रामचरितमानस मोतीः जनकजीक राम-लक्ष्मण केँ देखि मुग्धताक कथा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-लक्ष्मण केँ देखिकय जनकजीक प्रेम मुग्धता

१. मन प्रेम मे मग्न जानि राजा जनक विवेकक आश्रय लय धीरज धारण कयलनि आर मुनिक चरण मे सिर नमाकय गद्गद् (प्रेमभरल) गंभीर वाणी बजलाह – हे नाथ! कहू, ई दुनू सुन्दर बालक मुनिकुल केर आभूषण छथि या कोनो राजवंश केर पालक? अथवा जिनका वेद ‘नेति’ कहिकय गान कयलक अछि कहीं वैह ब्रह्म त युगल रूप धारण कय के त नहि अयलाह अछि? हमर मन जे स्वभावहि सँ वैराग्य रूप अछि, हिनका लोकनि केँ देखिकय एहि तरहें मुग्ध भ’ रहल अछि जेना चन्द्रमा केँ देखिकय चकोर। हे प्रभो! एहि लेल हम अहाँ सँ निश्छल भाव सँ पुछैत छी, हे नाथ! बताउ, किछुओ नुकाव नहि। हिनका सब केँ देखिते अत्यन्त प्रेम के वश भ’ कय हमर मोन जबर्दस्ती ब्रह्मसुख केँ त्यागि देलक अछि।

२. मुनि विहँसिकय कहलखिन – हे राजन्‌! अहाँ ठीके (यथार्थे) कहलहुँ अछि। अहाँक वचन मिथ्या नहि भ’ सकैत अछि। जगत मे जहाँ तक (जतेको) प्राणी अछि, ई सब केँ प्रिय छथि।
३. मुनिक (रहस्य भरल) वाणी सुनिकय श्री रामजी मनहि-मन मुस्कुराइत छथि, हँसिकय मानू संकेत करैत छथि जे रहस्य खोलू नहि। फेर मुनि कहलखिन जे ई रघुकुल मणि महाराज दशरथ केर पुत्र छथि। हमर हित वास्ते राजा हिनका हमरा संग पठौलनि अछि। ई राम और लक्ष्मण दुनू श्रेष्ठ भाइ रूप, शील और बल केर धाम छथि। सारा जगत (एहि बातक) साक्षी अछि जे ई लोकनि युद्ध मे असुर सब केँ जीतिकय हमर यज्ञ केर रक्षा कयलनि अछि।
४. राजा कहलखिन – हे मुनि! अहाँक चरणक दर्शन कय हम अपन पुण्य प्रभाव कहि नहि सकैत छी। ई सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के दुनू भाइ आनंद केँ सेहो आनंद दयवला छथि। हिनकर आपसक प्रीति बड़ा पवित्र और सुहाओन अछि, ई मोन केँ बड नीक लागि रहल अछि, मुदा वाणी सँ कहल नहि जा सकैत अछि। – विदेह (जनकजी) आनंदित भ’ कय कहैत छथि – हे नाथ! सुनू, ब्रह्म और जीव जेकाँ हिनका मे स्वाभाविक प्रेम अछि।
५. राजा बेर-बेर प्रभु केँ देखैत छथि। दृष्टि हुनका सब सँ हंटय नहि चाहैत अछि। प्रेम सँ शरीर पुलकित भ’ रहल अछि आर हृदय मे बड़ा भारी उत्साह अछि। फेर मुनिक प्रशंसा कय केँ आर हुनकर चरण मे सिर नमाकय राजा हुनका नगर मे लय गेलाह। एकटा सुन्दर महल जे हर समय (सब ऋतु मे) सुखदायक छल, ओतय राजा हुनका सब केँ ठहरेलनि। तदनन्तर सब प्रकार सँ पूजा और सेवा कयकेँ राजा विदा माँगि अपन घर गेलाह।
६. रघुकुल शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषिक संग भोजन और विश्राम कय भाइ लक्ष्मण समेत बैसलाह। ताहि समय पहर भरिक दिन रहि गेल छल। लक्ष्मणजीक हृदय मे विशेष लालसा छल जे कनि जाय कय जनकपुर देखि आबी, मुदा प्रभु श्री रामचन्द्रजीक डर छन्हि आर फेर मुनि सँ सेहो कहय मे लजाइत छथि, ताहि हेतु प्रकट रूप मे किछु नहि बजैत छथि, मने-मन मुस्कियाइत रहैत छथि। अन्तर्यामी श्री रामचन्द्रजी छोट भाइ के मनक दशा जानि लेलनि तखन हुनक हृदय मे भक्तवत्सलता उमड़ि पड़लनि, ओ गुरुक आज्ञा पाबिकय बहुते विनय के संग लजाइते आ विहँसैत बजलाह – हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखय चाहैत छथि, लेकिन अपनेक डर व संकोच के कारण स्पष्ट नहि बजैत छथि। यदि अपनेक आज्ञा पाबी त हम हिनका नगर देखाकय तुरन्त वापस आनि ली।

७. ई सुनिकय मुनीश्वर विश्वामित्रजी प्रेम सहित वचन कहलखिन – हे राम! अहाँ नीति केर रक्षा केना नहि करब! हे तात! अहाँ धर्म केर मर्यादाक पालन करयवला आर प्रेमक वशीभूत भ’ कय सेवक केँ सुख दयवला छी।