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रामचरितमानस मोतीः श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र जीक जनकपुर मे प्रवेश

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र जीक जनकपुर मे प्रवेश

रामचरितमानस मोती अन्तर्गत हमरा लोकनि मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जीक जीवन लीला पढ़ि रहल छी। ताहि मे सँ अपना वास्ते ज्ञानामृत सन्देश (सनेश) ग्रहण करबाक ध्येय अछि। मोती तेँ सम्बोधित कयल अछि। विगत के अध्याय मे पढ़लहुँ केना भगवान् श्री रामचन्द्र भाइ लखन सहित मुनि विश्वामित्र जीक यज्ञ केँ पूरा करौलनि, तदोपरान्त ओ सब मिथिलाक राजा जनक ओतय घोषित ‘धनुष यज्ञ’ देखय मिथिला दिश प्रस्थान कएने छथि। रास्ता मे पाथर के बुत्त रूप मे परिणत अहल्याक उद्धार कयलनि, ओ पतिलोक केँ गमन कयलीह। फेर…..

१. श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनिक संग ओतय गेलाह जतय जगत केँ पवित्र करयवाली गंगाजी छलीह। महाराज गाधि केर पुत्र विश्वामित्रजी ओ सबटा कथा सुनेलखिन जे केना देवनदी गंगाजी पृथ्वी पर अयलीह। तखन प्रभु ऋषि सहित (गंगाजी मे) स्नान कयलनि। ब्राह्मण लोकनि हुनका सब सँ भाँति-भाँति के दान पेलनि। फेर मुनिवृन्दक संग ओ प्रसन्न भ’ कय आगू बढ़लाह आ जल्दिये जनकपुर नजदीक आबि गेलाह।

२. श्री रामजी जनकपुर के शोभा देखलनि त छोट भाइ लक्ष्मण सहित बहुते प्रसन्न भेलाह। ओतय बहुतो रास पोखरि, इनार, नदी आर झील सब छलैक जाहि मे अमृत समान जल छलैक आर मणिक सीढ़ी सब बनल छलैक। मकरंद रस सँ मतवाला भ’ भौंरा सब सुन्दर गुंजार गान कय रहल छल। रंग-बिरंगक पक्षी सब मधुर आवाज मे गाबि रहल छल। रंग-रंग के कमल फुलायल छल। सब ऋतु मे सुख दयवला शीतल, मंद, सुगंध पवन सब बहि रहल छल। पुष्प वाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जाहि मे अनेकों चिड़ै-चुनमुनीक वास छलैक, फूलैत, फलैत आर सुन्दर पत्ता सँ लदल नगरक चारूदिश सुशोभित छलैक।

३. सुन्दरताक वर्णन करैत नहि बनैत अछि ततेक सुन्दर छलैक जनकपुर। जतय मोन जाइत छल ओतहि लोभा जाइत छल, रमि जाइत छल। सुन्दर बाजार अछि, मणि सँ बनल गजब सुन्दर साजक छज्जा लागल मकान सब भरल छैक, मानू ब्रह्मा ओ सबटा अपनहि हाथ सँ बनेने होइथ। कुबेर समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी जहाँ-तहाँ अनेकों वस्तु लयकय दोकान लगौने छल। सुन्दर चौराहा आ सोहाओन गली सब सदिखन सुगंध सँ सिंचित रहैत अछि। सभक घर मंगलमय अछि आर ओहि पर चित्र काढ़ल गेल अछि जे बुझू कामदेव रूपी चित्रकार बनौने छथि।

४. नगर केर सब स्त्री-पुरुष सुन्दर, पवित्र, साधु स्वभाववला, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान अछि। जतय जनकजीक अत्यन्त अनुपम (सुन्दर) निवास स्थान (महल) अछि ओतुका विलास (ऐश्वर्य) केँ देखिकय देवता सेहो थकित (स्तम्भित) भ’ जाइत छथि त मनुष्यक बाते कि हुए!

५. कोट (राजमहल केर परकोटा) केँ देखिकय चित्त चकित भ’ जाइत अछि, एना बुझाइत अछि मानू ओ समस्त लोक केेर शोभा केँ रोकि (घेरि) रखने हो। उज्ज्वल महल सब मे अनेकों प्रकारक सुन्दर रीति सँ बनायल गेल मणि जटित सोनाक जरी केर परदा लागल अछि।

६. सीताजीक रहयवला सुन्दर महल के शोभा वर्णन कोना कयल जा सकैत अछि भला! राजमहलक सब फाटक सुन्दर अछि जाहि मे वज्र जेहेन मजगुत आर हीरा समान चमकैत केवाड़ लागल अछि।

७. ओतय जनकराजक मातहत राजा लोकनिक, नट, मागध आर भाट केर भीड़ लागल रहैत अछि। घोड़ा आ हाथी लेल बहुत बड़का-बड़का घुड़साल और गजशाला (फीलखाना) बनल अछि जे हर समय घोड़ा, हाथी आ रथ सब सँ भरल रहैत अछि।

८. बहुतो रास शूरवीर, मंत्री और सेनापति छथि। हुनका लोकनिक घर सेहो राजमहले जेकाँ छन्हि। नगर के बाहर पोखरि आ नदी सभक आसपास जतय-ततय बाहर सँ धनुष यज्ञ देखय आयल राजा लोकनि आबिकय डेरा रखने छथि।

९. ओतहि आम के एकटा अनुपम बगीचा देखि, जतय सब प्रकारक सुविधा छल, सब तरहें सोहाओन छल, विश्वामित्रजी बजलाह जे हे सुजान रघुवीर! हमर मोन कहैत अछि जे एतहि रुकल जाय। कृपाक धाम श्री रामचन्द्रजी ‘बहुत नीक स्वामिन्‌!’ कहिकय ओतहि मुनि लोकनिक समूहक संग रुकि गेलाह।

१०. मिथिलापति जनकजी जखन ई समाचार पेलनि जे महामुनि विश्वामित्र आयल छथि त ओ पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मंत्री लोकनि आ बहुतो रास योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानंदजी) व अपन जातिक श्रेष्ठ लोक सब केँ संग लय खूब प्रसन्नताक संग मुनि लोकनिक स्वामी विश्वामित्रजी सँ भेटय विदाह भेलाह।

११. राजा मुनिक चरण पर मस्तक राखिकय प्रणाम कयलनि। मुनि विश्वामित्रजी प्रसन्न भ’ कय आशीर्वाद देलखिन। फेर सब ब्राह्मणमंडली केँ आदर सहित प्रणाम कयलनि आर अपन अहोभाग्य बुझिकय राजा आनन्दित भेलाह।

१२. बेर-बेर कुशल-क्षेम पुछिकय विश्वामित्रजी राजा केँ बैसौलनि। ताहि समय दुनू भाइ आबि गेलाह जे फुलवारी देखय गेल रहथि। सुकुमार किशोर अवस्थाक श्याम व गौर वर्णक दुनू कुमार देखनिहारक नेत्र केँ सुख दयवला आ सम्पूर्ण विश्व के चित्त केँ चोरवयवला रहथि।

१३. जखन रघुनाथजी अयलाह त सब कियो हुनकर रूप व तेज सँ प्रभावित भ’ उठिकय ठाढ़ भ’ गेलाह। विश्वामित्रजी हुनका अपना लग बैसा लेलनि। दुनू भाइ केँ देखिकय सब सुखी भेलथि। सभक नेत्र मे जल भरि गेलनि। आनंद व प्रेमक नोर उमड़ि पड़लनि। शरीर रोमांचित भ’ गेलनि। रामजीक मधुर मनोहर मूर्ति केँ देखिकय विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह केर सुधि-बुधि सँ रहित) भ’ गेलाह।

हरिः हरः!!

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