रामचरितमानस मोतीः पृथ्वी आ देवता लोकनिक करुण पुकार

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

पृथ्वी और देवतादिक करुण पुकार

१. पराया धन और पराया स्त्री पर मोन चलबयवला, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुते बढ़ि गेल। लोक माय-बाप आ देवता सब केँ नहि मानैत छल आ साधु लोकनिक सेवा करब त दूर उल्टा हुनके सब सँ सेवा करबावैत छल। श्री शिवजी कहैत छथि – हे भवानी! जेकर एहेन आचरण छैक, ओकरा सब केँ राक्षसे बुझू। एहि तरहें धर्म प्रति लोकक अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखिकय पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल भ’ गेलीह। ओ सोचय लगलीह जे पर्वत, नदी और समुद्र केर बोझ हमरा एतेक भारी नहि बुझाइत अछि जतेक भारी हमरा एकटा परद्रोही (दोसरक अनिष्ट करयवला) लगैत अछि।

२. पृथ्वी सब धर्मक विपरीत देखि रहल छथि, मुदा रावणक भय सँ ओ किछु बाजि नहि सकैत छथि। अंत मे हृदय मे सोचि-विचारिकय, गायक रूप धय कय धरती ओतय गेलीह जतय सब देवता आ मुनि नुकायल रहथि। पृथ्वी कानिकय हुनका सब केँ अपन दुःख सुनेलीह, मुदा केकरो सँ किछु करैत नहि बनि रहल छैक।

छन्द :
सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥

तखन देवता, मुनि और गंधर्व सब कियो मिलिकय ब्रह्माजीक लोक (सत्यलोक) केँ गेलाह। भय और शोक सँ अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी सेहो गायक शरीर धारण कयने हुनका सभक संग छलीह। ब्रह्माजी सब किछु बुझि गेलाह। ओ मन मे अनुमान कयलनि जे एहि हमर कोनो वश चलयवला नहि अछि। तखन ओ पृथ्वी सँ कहलनि – जिनकर अहाँ दासी छी, ओ अविनाशी हमर-अहाँ दुनू के सहायक छथि।

हे धरती! मन मे धीरज धारण कय केँ श्री हरि केर चरणक स्मरण करू। प्रभु अपन दास केर पीड़ा केँ जनैत छथि, वैह अहाँक कठिन विपत्ति केँ नाश करता।

३. सब देवता बैसिकय विचार करय लगलाह जे प्रभु केँ कतय भेटब जाहि सँ हुनका सोझाँ विनती करब। कियो बैकुंठपुरी जाय लेल कहैत छथि आर कियो कहैत छथि जे ओ प्रभु क्षीरसमुद्र मे निवास करैत छथि।

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥

जिनकर हृदय मे जेहेन भक्ति और प्रीति होइत छन्हि, प्रभु ओतहि (हुनका लेल) सदिखन वैह रीति सँ प्रकट होइत छथि। हे पार्वती! ओहि समाज मे हम सेहो छलहुँ। अवसर पाबिकय हम एकटा बात कहलियनि –

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

हम त यैह जनैत छी जे भगवान सब जगह समान रूप सँ व्यापक छथि, प्रेम सँ ओ प्रकट भ’ जाइत छथि, देश, काल, दिशा, विदिशा मे कहू एहेन कोन जगह अछि जतय प्रभु नहि होइथ। ओ चराचरमय (चराचर मे व्याप्त) रहितो सब सँ रहित आ विरक्त छथि। हुनक कतहु आसक्ति नहि छन्हि। ओ प्रेम सँ प्रकट होइत छथि, जेना अग्नि। अग्नि अव्यक्त रूप सँ सर्वत्र व्याप्त छथि, धरि जतय हुनका लेल अरणिमन्थनादि साधन कयल जाइत अछि ओ ओतहि प्रकट भ’ जाइत छथि। तहिना सर्वत्र व्याप्त भगवान सेहो प्रेम सँ प्रकट होइत छथि। हमर ई बात सबकेँ बड प्रिय लगलनि। ब्रह्माजी ‘साधु-साधु’ कहिकय बड़ाई कयलाह।

४. हमर बात सुनिकय ब्रह्माजीक मन मे बड़ा हर्ष भेलनि। हुनकर तन पुलकित भ’ गेलनि आ नेत्र सँ प्रेमक अश्रुधारा बहय लगलनि। तखन ओ धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान भ’ कय हाथ जोड़िकय स्तुति करय लगलाह।

छन्द :
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥१॥

हे देवता लोकनिक स्वामी, सेवक केँ सुख देनिहार, शरणागतक रक्षा करनिहार भगवान! अपनेक जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणक हित करनिहार, असुर सभक विनाश करनिहार, समुद्र केर कन्या (श्री लक्ष्मीजी) केर प्रिय स्वामी! अपनेक जय हो! हे देवता और पृथ्वी केर पालन करनिहार! अहाँक लीला अद्भुत अछि, एकर भेद कियो नहि जनैत अछि। एहेन जे स्वभावहि सँ कृपालु और दीनदयालु छथि, से हमरा सब पर कृपा करथि।

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥२॥

हे अविनाशी, सभक हृदय मे निवास करनिहार (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रिय सँ परे, पवित्र चरित्र, माया सँ रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! अपनेक जय हो! जय हो!! एहि लोक और परलोक केर सब भोग सँ विरक्त तथा मोह सँ सर्वथा छूटल ज्ञानी मुनिवृन्द सेहो अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनिकय जिनकर राति-दिन ध्यान करैत छथि आर जिनकर गुणक समूह केर गान करैत छथि, से सच्चिदानंद केर जय हो।

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥३॥

जे बिना कोनो दोसर संगी अथवा सहायक के अकेले या स्वयं अपन त्रिगुणरूप- ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप – बनाकय अथवा बिना कोनो उपादान-कारण के अर्थात्‌ स्वयं मात्र सृष्टि केर अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनिकय तीन प्रकारक सृष्टि उत्पन्न कयलनि, से पाप केर नाश करनिहार भगवान हमरा सभक सुधि लेथि। हम न भक्ति जनैत छी, न पूजा, जे संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय केर नाश करयवला, मुनि लोकनिक मोन केँ आनंद दयवला और विपत्ति सभक समूह केँ नाश करयवला छथि। हम सब देवता लोकनिक समूह, मन, वचन और कर्म सँ चतुराई करबाक बयन छोड़िकय ओहि भगवान केर शरण मे आयल छी।

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥४॥

सरस्वती, वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि जेहो कियो जिनका नहि जनैत अछि, जिनका दीन प्रिय छन्हि, एहेन वेद जोरदार स्वर मे कहैत अछि, वैह श्री भगवान हमरा सबपर दया करथि। हे संसार रूपी समुद्र केर (मथबाक) लेल मंदराचल रूप, सब प्रकार सँ सुन्दर, गुणक धाम और सुखक राशि नाथ! अपनेक चरण कमल मे मुनि, सिद्ध और समस्त देवता भय सँ अत्यन्त व्याकुल भ’ नमस्कार करैत छी।