रामचरितमानस मोतीः रावणादिक जन्म, तपस्या, ऐश्वर्य आ अत्याचारक कथा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

पिछला अध्याय मे राजा प्रतापभानु अर्थात् रावणक पूर्व जन्म केर कथा पढ़लहुँ। हम सब देखलहुँ जे कोना एक प्रतापी राजा कपटी तपस्वी सँ भेंटक क्रम मे अचानक अपन अहंता मे डूबि आवश्यकता सँ अधिक आशीर्वाद, वरदान आ चमत्कार करबाक चक्कर मे फँसि गेलाह आ कोना हुनका ब्राह्मण द्वारा तीक्ष्ण श्राप भेटलनि। आउ आगू देखू – वैह राजा प्रतापभानु आब राक्षस कुल मे रावण केर रूप मे जन्म लैत छथि आ पुनः अपन कठोर तपबल सँ अनेकानेक महात्वाकांक्षी वरदान प्राप्त करैत छथि।

रामचरितमानस मोती

रावणादि केर जन्म, तपस्या आ ओकर ऐश्वर्य तथा अत्याचार

१. याज्ञवल्क्यजी कहैत छथि – हे भरद्वाज! सुनू, विधाता जखन केकरो विपरीत होइत छथि तखन ओकरा लेल धूरा सेहो सुमेरु पर्वत समान भारी आ भार सँ पीस दयवाली, पिता यम के समान (कालरूप) और रस्सी साँप के समान (काटय वाली) भ’ जाइत छैक। हे मुनि! सुनू, समय पाबिकय वैह राजा (प्रतापभानु) परिवार सहित रावण नामक राक्षस भेलाह। हुनकर दस सिर आ बीस भुजा छलन्हि। ओ अत्यन्त प्रचण्ड शूरवीर छलाह। अरिमर्दन नामक जे राजा केर छोट भाइ रहथि, से बल केर धाम कुम्भकर्ण भेलाह। हुनकर जे मंत्री छलथि, जिनकर नाम धर्मरुचि रहनि, से रावणक सौतेला छोट भाइ भेलाह। हुनकर नाम विभीषण छलन्हि, जिनका सौंसे संसार जनैत अछि। ओ विष्णुभक्त और ज्ञान-विज्ञान केर भंडार रहथि आर जे राजाक पुत्र और सेवक छलाह, ओहो लोकनि बड़ा भयानक राक्षस भेलथि। ओ सब अनेकों जाति केर, मनमाना रूप धारण करयवला, दुष्ट, कुटिल, भयंकर, विवेकरहित, निर्दयी, हिंसक, पापी और संसार भरि केँ दुःख दयवला भेलथि, जेकर वर्णन नहि भ’ सकैत अछि।

२. यद्यपि ओ सब पुलस्त्य ऋषिक पवित्र, निर्मल और अनुपम कुल मे उत्पन्न भेलाह, तथापि ब्राह्मणक श्रापक कारण ओ सब पाप रूप भेलाह। तीनू भाइ अनेकों प्रकारक बहुते कठिन तपस्या सब कयलनि तेकरो वर्णन नहि भ’ सकैत अछि। हुनका सभक उग्र तपस्या देखिकय ब्रह्माजी हुनका लग गेलथि आ कहलखिन – हे तात! हम प्रसन्न छी, वर माँगू। रावण तखन विनय कयकेँ आर चरण पकड़िकय कहलखिन – हे जगदीश्वर! सुनू, वानर और मनुष्य – एहि दुइ जाति केँ छोड़ि हम आर केकरो द्वारा मारला पर नहि मरी से वरदान दिअ।

३. शिवजी कहैत छथि – हम आ ब्रह्मा मिलिकय ओकरा वर देलहुँ जे एहिना हुए, तूँ बड़ा भारी तपस्या कयलें अछि। तकर बाद ब्रह्माजी कुंभकर्ण लग गेलाह। ओकरा देखिकय हुनकर मोन मे बड़ा भारी आश्चर्य भेलनि जे ई दुष्ट जँ नित्य आहार करत तँ सारा संसारे उजाड़ भ’ जायत। एना विचारिकय ब्रह्माजी सरस्वती केँ प्रेरणा करैत ओकर बुद्धि फेर देलनि जाहि सँ ओ छह महीना के नींद माँगलक। फेर ब्रह्माजी विभीषण लग गेलाह आर कहला – हे पुत्र! वर माँगू। ओ भगवानक चरणकमल मे निर्मल (निष्काम और अनन्य) प्रेम माँगलनि। हुनका वर दयकय ब्रह्माजी चलि गेलाह आर ओ तीनू भाइ हर्षित भ’ कय अपन घर लौटि गेलाह।

४. मय दानवक मंदोदरी नाम केर कन्या परम सुन्दरी और स्त्री मे शिरोमणि छलीह हुनका आनिकय रावण केँ सौंपि देलखिन। ओ जानि लेलनि जे ई राक्षस केर राजा होयत। सुन्दर स्त्री पाबिकय रावण प्रसन्न भेल आर फेर ओ स्वयं जाय कय अपन दुनू भाइ केर सेहो विवाह करबा देलक। समुद्रक बीच मे त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्माक बनायल एकटा बड़ा भारी किला छलैक। महान मायावी और निपुण कारीगर मय दानव ओकरा फेर सँ सजा देलखिन। ओहि मे मणि सँ जड़ित सोनाक अनगिनत महल छल। जेना नागकुल केर रहयवला पाताल लोक मे भोगावती पुरी अछि और इन्द्र केर रहबाक लेल स्वर्गलोक मे अमरावती पुरी अछि, ताहि सँ बेसी सुन्दर और बेहतर ओ दुर्ग छल। जग भरि मे ओकर नाम लंका प्रसिद्ध भेल। ओकर चारू दिश सँ समुद्रक अत्यन्त गहींर खाई घेरने अछि। ओहि दुर्ग के मणि सँ जड़ित सोनाक मजबूत परकोटा लागल अछि जेकर कारीगरीक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि।

५. भगवानक प्रेरणा सँ जाहि कल्प मे जे राक्षस सभक राजा (रावण) होइत अछि, वैह शूर, प्रतापी, अतुलित बलवान्‌ अपन सेना सहित ओहि पुरी मे बसैत अछि। पहिने ओतय बड़ा-भारू योद्धा राक्षस सब रहैत छल। देवता ओकरा सबकेँ युद्ध मे मारि देलनि। आब इन्द्र केर प्रेरणा सँ ओतय कुबेरक एक करोड़ रक्षक (यक्ष लोक) रहैत अछि। रावण केँ कतहु ई खबरि भेटि गेलैक, तखन ओ सेना सजाकय किला केँ घेरि लेलक। ओहि अति विकट योद्धा और ओकर विशाल सेना केँ देखिकय यक्ष अपन प्राण बचेबाक लेल भागि गेल। तखन रावण घूमि-फिरि कय सारा नगर देखलक। ओकर (स्थान संबंधी) चिन्ता मेटा गेलैक आर ओ बहुते सुखी भेल। ओहि पुरी केँ स्वाभाविक सुन्दर और बाहरवला लेल दुर्गम अनुमान कय केँ रावण ओतहि अपन राजधानी कायम कयलक। योग्यता अनुसार घर सब बाँटिकय रावण सब राक्षस केँ सुखी कय देलक। एक बेर ओ कुबेर पर चढ़ाई कय केँ हुनकर पुष्पक विमान जीतिकय आनि लेलक। फेर ओ खेले-खेल मे कैलाश पर्वत उठा लेलक आ मानू अपन भुजाक बल भजियाबैत खूब प्रसन्न भ’ कय ओतय सँ चलि गेल। सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय, प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई- ई सबटा ओकर नित्य ओहिना बढ़ैत जाइत छल जेना प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ैत छैक।

६. अत्यन्त बलवान्‌ कुम्भकर्ण सन ओकर भाइ रहैक जेकर जोड़ा योद्धा एहि जग मे कतहु पैदा नहि भेल। ओ मदिरा पीबिकय छह महीना सुतल करय। आर ओकर जगैत देरी तीनू लोक मे तहलका मचि जाइत छल। जँ ओ प्रतिदिन भोजन करितय त सम्पूर्ण विश्व केँ खाली होइ मे बेसी समय नहि लगितैक। रणधीर एहेन छल जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। लंका मे एहेन असंख्य बलवान वीर छल। मेघनाद रावणक बड़का बेटा रहय, जग भरिक योद्धा मे एकर गिनती पहिल नम्बर पर छलैक। रण मे कियो ओकर सामना नहि कय सकैत छल। स्वर्ग मे त ओकर डर सँ नित्य भगदड़ मचि गेल करैक। एहि के अलावे दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु और अतिकाय आदि अनेकों योद्धा रहैक जे असगरे सौंसे संसार केँ जीति सकैत छल। सब राक्षस मनमाना रूप बना सकैत छल आर आसुरी माया जनैत छल। ओकरा सब लग दया-धर्म सपनहुँ मे नहि छलैक।

७. एक बेर सभा मे बैसल रावण अपन अगणित परिवार केँ देखलक। पुत्र-पौत्र, कुटुम्बी और सेवक ढेर-के-ढेर छलैक। समस्त राक्षस लोकनिक जाति केँ त गानियो के सकैत छल! अपन सेना केँ देखिकय स्वभावहि सँ अभिमानी रावण क्रोध आ गौरव भरल बोली बाजल – हे समस्त राक्षस दल! सुनय जाउ! देवतागण हमरा सभक शत्रु छथि। ओ सामने आबिकय युद्ध नहि करैत छथि। बलवान शत्रु देखिते भागि जाइत छथि। हुनका लोकनिक मरण एक्के टा उपाय सँ भ’ सकैत अछि, से बुझाकय हम कहैत छी, बढियां सँ सुनू। हुनकर बल बढाबयवला ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध- एहि सब मे जाय अहाँ सब विघ्न डालू। भूख सँ दुर्बल और बलहीन भ’ कय देवता सहजहि आबि मिलता। तखन हम हुनका मारि देबनि या फेर नीक जेकाँ अपना अधीन कय केँ सर्वथा पराधीन करैत छोड़ि देबनि। फेर ओ मेघनाद केँ बजबेलक आर सिखा-पढ़ाकय ओकर बल आ देवता सभक प्रति बैरभाव केँ उत्तेजना देलक। कहलकैक – हे पुत्र ! जे देवता रण मे धीर और बलवान्‌ छथि आर जिनका लड़बाक अभिमान छन्हि, हुनका युद्ध मे जीतिकय बान्हि आने। बेटा उठिकय पिताक आज्ञा केँ शिरोधार्य कयलक। एहि तरहें ओ सबकेँ आज्ञा देलक आर स्वयं सेहो हाथ मे गदा लय कय चलि देलक।

८. रावणक चलय सँ पृथ्वी डगमगाय लागल आर ओकर गर्जना सँ देवरमणि सभक गर्भ तक खसय लागल। रावण केँ क्रोध सहित आबि रहल से बात सुनिकय देवता लोकनि सुमेरु पर्वतक गुफा ताकय लगलाह, अर्थात् भागिकय सुमेरुक गुफा केर आश्रय लेलनि। दिक्पाल केर सब सुन्दर लोक केँ रावण खाली पेलक। ओ बेर-बेर भारी सिंहगर्जना कय केँ देवता लोकनि केँ ललकारा आ गारि तक पढ़य लागल। रण केर मद मे मतवाला भ’ ओ अपन जोड़ा के योद्धा तकैत जग भरि मे दौड़ैत फिरय, मुदा ओकरा एहेन योद्धा कतहु नहि भेटलैक।

९. सूर्य, चन्द्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, अग्नि, काल और यम आदि सब अधिकारी, किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग – सभक पाछाँ ओ जबरदस्ती लागि गेल, केकरहु ओ शांतिपूर्वक नहि बैसय देलक। ब्रह्माजीक सृष्टि मे जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष रहथि, सब रावणक अधीन भ’ गेल। डरक मारे सब ओकरहि आज्ञाक पालन करैत छल आर नित्य आबिकय नम्रतापूर्वक ओकर चरण मे सिर नमवैत छल।

१०. ओ भुजाक बल सँ सारा विश्व केँ वश मे कय लेलक, केकरो स्वतंत्र नहि रहय देलक। एहि तरहें मंडलीक राजा लोकनिक शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण अपन इच्छानुसार राज्य करय लागल। देवता, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, किन्नर और नाग केर कन्या तथा बहुतो रास अन्य सुन्दरी और उत्तम स्त्री केँ ओ अपन भुजाक बल सँ जीतिकय ब्याह कय लेलक। मेघनाद सँ ओ जे किछु कहलक, से बुझू जे ओ (मेघनाद) पहिनहि सँ पूरा कय चुकल हो, मतलब जे रावणक कहबाक देरी टा छलैक, ओ आज्ञापालन मे कनिकबो देरी नहि कयलक। ताहि सँ पहिने जेकरा जे आज्ञा देल गेल छल, तेकर करतूत सब सुनू – सब राक्षसक समूह देखय मे बड़ा भयानक, पापी और देवता लोकनि केँ दुःख दयवला रहय। ओ असुर सभक समूह उपद्रव करैत छल आ माया सँ विभिन्न प्रकार के रूप धय लैत छल।

११. जाहि सँ धर्म केर जड़ि कटय, ओ सब वैह वेदविरुद्ध काज करैत छल। जाहि-जाहि स्थान मे ओ गो और ब्राह्मण केँ पाबय, वैह नगर, गाँव और पुरवा मे आगि लगा दैत छल। ओकर डर सँ कतहु शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहि होइत छलैक। देवता, ब्राह्मण और गुरु केँ कियो नहि मानैत छल। नहिये हरिभक्ति छलैक, आ न यज्ञ, तप और ज्ञान छलैक। वेद और पुराण त सपनहुँ मे सुनय लेल नहि भेटैक।

छन्द :
जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥

जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ मे (देवताक) भाग पेबाक बात रावण कतहु कान सँ सुनि लितय, त ताहि क्षण स्वयं उठि दौड़य। किछु नहि रहि पबैत छल, रावण सब केँ पकड़िकय सब किछु विध्वंस कय दैत छल। संसार मे एहेन भ्रष्ट आचरण पसैर गेल जे धर्म त कान मे सुनइयो मे नहि अबैत छल, जे कियो वेद आ पुराण कहय, ओकरा अनेकों ढंग सँ त्रास दितय आ देश सँ निकाला कय दैत छलैक।

१२. राक्षस सब जे-जे घोर अत्याचार करैत छल तेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। हिन्से पर जेकर प्रीति हो, ओकर पापक कोन ठेकान!