कविता
– ज्योति झा, काठमांडू
जा रहल कतय समाज
दहेज नै लेब नै देब कहिते कहिते
उमेर तिस पार भ’ गेलै गे बहिना
बेटा बेटी कुमारे रहिगेल
सख रहि जायत जहिना तहिना
माय बाप दहेज पर छैथ अटकल
बेटा बेटी पढिलिख प्रगति पथमे परिकल
असन्तुलन बढिरहल सामाजिक व्यवस्थामे
जिम्मेवार अभिभावक निर्णय दुबिधामे
जिनकर धिया गुणी, माय बाप सीना तनलैथ
धियाके टक्कर मे आब बेटाबालाके ललकारलैथ
नै जानि समाज कुन दिशामे पहुँचरहल
बिकास विकृति सब सँगहि चमकल
दहेज नै देब धिया गुणी बनेलौं
एतबामे माय बाप सन मित पेलौं
अर्थके जुगमे भाव हरारहल नै बुझलौं
आब दहेज पर नै, जोरी सफल बनत कोना सोचू
अकड़ल मिजास’ कनिक वर कनियाके देखू
समता जँ दुनू बीच अछि
मुदा किछ जटिल आबिरहल
कमायल धन एक कात परिगेल
स्नेह सम्मान त हवामे उरियागेल
माता लक्ष्मी जेहन पैयर दबायब बिष्णुके किया
माता पिता जँ बनलैथ कमौवा धिया
एहन विचारसब पर व्यस्त समाज
गुणवान सँ बेसी अहंकारके राज
कमाओक आनब भानस भात करब
नै बिवाह करब, नै जन्जालमे पड़ब
मनन करू सब, अस्तव्यस्त परिवार समाज
दहेजेटा नै बहुत बात सँ भ’रहल परिवार बर्बाद
जय माता जानकी जी जय मिथिला जय मैथिली
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ज्योति झा 🖋️😊