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रामचरितमानस मोतीः रति केँ वरदान

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

रति केँ वरदान

 

तुलसीकृत् रामचरितमानस केर स्वाध्याय आ तेकर भावानुवाद अपने सभक लेल मैथिली मे राखि रहल छी। एखन शिव विवाह केर प्रसंग चलि रहल अछि। पार्वती जी के तपस्या पूर्ण भ’ गेल छन्हि। लेकिन शिवजी समाधिस्थ अवस्था मे रहबाक कारण देवता सभक अनुरोध पर कामदेव हुनका ऊपर डेराइते-डेराइते लेकिन देवकार्य निमित्त आखिरकार अपन अग्निपुष्प बाण चला देलनि आ तेकर बाद जे भेल से पुछू जुनि। कामदेव भस्म कयल गेलाह। लेकिन रति (कामदेवक स्त्री) द्वारा बेकल भ’ प्रार्थना कयलापर फेर तुरन्त दयालु महादेव – भोलेनाथ केना प्रसन्न भेलाह आ फेर केना समाधान कयलाह से देखू।
 
१. महादेव रति केँ कहलखिन – हे रति! आब सँ अहाँक स्वामीक नाम अनंग होयत। ओ बिना शरीरहि केर सबपर प्रभावकारी होयत। आब अहाँ अपन पति सँ मिलन केना करब सेहो बात सुनू। जखन पृथ्वीक बड़ा भारी भार केँ उतारबाक लेल यदुवंश मे श्री कृष्ण केर अवतार होयत, तखन अहाँक पति हुनकर पुत्र (प्रद्युम्न) केर रूप मे जन्म लेता। हमर ई वचन अन्यथा नहि होयत।
 
२. शिवजीक वचन सुनिकय रति चलि गेलीह। ओम्हर ब्रह्मादि देवता लोकनि जखन ई सब समाचार सुनलनि त ओ सब वैकुण्ठ गेलाह। फेर ओतय सँ विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता ओहि स्थान पर गेलाह जतय कृपाक धाम शिवजी रहथि। ओ सब शिवजी केर अलग-अलग स्तुति कयलनि, तखन शशिभूषण शिवजी प्रसन्न भेलाह।
 
३. कृपाक समुद्र शिवजी बजलाह – हे देवता लोकनि! कहू, अपने लोकनि कियैक अयलहुँ अछि? ब्रह्माजी कहलखिन – हे प्रभो! अपने अन्तर्यामी छी, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश अम अपने संग विनती करैत छी।
 
क्रमशः….
 
हरिः हरः!!

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