स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
२१. सप्तर्षि द्वारा परीक्षा मे पार्वतीजीक महत्व
शिवजी द्वारा सप्तर्षि सँ पार्वतीक परीक्षा लेबाक आ तदनुसार हुनका घर वापस लय जेबाक वास्ते हिमाचल राजा सँ कहबाक निर्देश अनुसार सप्तर्षि आबि गेला पार्वतीक तपस्थल पर। आब तेकर बाद –
१. ओ सब पार्वती केँ तपस्यारत मूर्तिमान् देखि बजलाह – हे शैलकुमारी! अहाँ कथी लेल एतेक कठोर तप कय रहल छी? किनकर आराधना कय रहल छी आ कि चाहैत छी? हमरा लोकनि सँ सत्य भेद कहू।
२. पार्वती कहलखिन – बात कहैत हमरा बहुत संकोच होइत अछि। हमर मूर्खता सुनि अपने सब हँसब। हमर मन हठ पकड़ि लेने अछि, ओ केकरो उपदेश नहि सुनैत अछि आर जल पर देवाल ठाढ़ करय चाहि रहल अछि। नारदजी जे कहि देलनि वैह सत्य मानिकय हम बिना पाँखिये केँ उड़य चाहि रहल छी। हे मुनिगण! अपने लोकनि हमर अज्ञान त देखू जे हम सदा शिवजी मात्र केँ अपन पति बनबय चाहैत छी।
३. पार्वतीजीक बात सुनिते ऋषि लोकनि हँसि पड़लाह आ कहलखिन्ह – अहाँक शरीर पहाड़े सँ न उत्पन्न भेल अछि! भला कहू त! नारदक उपदेश सुनिकय आइ धरि केकर घर बसल अछि? वैह जाय केँ दक्षक पुत्र सबकेँ उपदेश देने रहथि, जाहि सँ ओ सब फेर घुमिकय घरक मुँहों नहि देखलनि। चित्रकेतुक घर केँ नारदे चौपट कयलथि। फेर यैह हाल हिरण्यकशिपु केर भेलैक। जे स्त्री-पुरुष नारदक सीख सुनैत छथि, ओ घर-बार छोड़िकय अवश्य टा भिखारी भ’ जाइत छथि। हुनकर त मोने कपटी छन्हि, शरीर पर सज्जन के निशानी देखय लेल छन्हि। ओ सब केँ अपनहि समान बनाबय चाहैत छथि। हुनकर वचन पर विश्वास मानिकय अहाँ एहेन पति चाहि रहल छी जे स्वभावे सँ उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, अशुभ वेषवला, नर-कपालक माला पहिरयवला, कुलहीन, बिना घर-बार के, नंगा और शरीर पर साँप केँ लपेटि राखयवला, एहेन वर केँ भेटले सँ कहू जे अहाँ केँ केहेन सुख होयत? अहाँ ओहि ठकहरबा नारदक बहकावा मे आबिकय सब सुधि-बुधि बिसैर गेलहुँ। पहिने पंच लोकनिक कहला पर शिव सती सँ विवाह कयने रहथि, मुदा फेर हुनको त्यागिकय मरबा देलाह। आब शिव केँ कोनो चिन्ता नहि रहलनि, भीख माँगिकय खा लैत छथि आर सुखीपूर्वक सुतैत छथि। एहेन स्वभावहि सँ असगर रहयवला के घरहु मे कहियो कोनो स्त्री टिक सकैत अछि? एखनहुँ हमर कहनाय मानू, हम सब अहाँ लेल नीक वर के विचार अनलहुँ अछि। ओ बहुत सुन्दर, पवित्र, सुखदायक आ सुशील छथि। हुनकर यश व लीला केँ वेद सेहो गबैत अछि। ओ दोष सँ रहित, सारा सद्गुण केर राशि, लक्ष्मीक स्वामी और वैकुण्ठपुरी केर रहयवला छथि। हम एहेन वर केँ आनिकय अहाँ सँ भेंट करा देब।
४. ई सुनिते पार्वतीजी हँसिकय बजलीह – अपने ई सहिये कहलहुँ जे हमर ई शरीर पहाड़ सँ उत्पन्न भेल अछि ताहि लेल हठ नहि छुटत भले शरीर छुटियो जाय। सोना सेहो पत्थरहि सँ उत्पन्न होइत अछि, आर ओ जरेला पर अपन स्वभाव अर्थात् सुवर्णत्व केँ नहि छोड़ैत अछि। तेँ हम नारदजीक वचन केँ नहि छोड़ब चाहे घर बसय या उजड़य, ताहि सँ हम नहि डेराइत छी। जेकरा गुरुक वचन मे विश्वास नहि छैक, ओकरा सुख और सिद्धि स्वप्नहुँ मे सुगम नहि होइत छैक। मानलहुँ जे महादेवजी अवगुणक भवन छथि और विष्णु समस्त सद्गुणक धाम छथि, मुदा जेकर मोन जाहि मे रमि गेल ओकरा तँ ओही सँ काज होइत छैक। हे मुनीश्वर लोकनि! यदि अपने लोकनि पहिने भेटल रहितहुँ त हम अहाँ लोकनिक उपदेश सिर-माथा राखिकय सुनितहुँ मुदा आब त हम अपन जन्म शिवजीक लेल हारि चुकल छी। फेर गुण-दोषक विचार के करय! यदि अपने सभक हृदय मे बहुते हठ अछि आर विवाहक बातचीत (प्रस्ताव) कयने बिना अहाँ सब केँ रहल नहि जाइत अछि त संसार मे वर-कन्या बहुते छैक। खेलवाड़ करयवला केँ आलस्य त होइत नहि छैक, कतहु आर जा कय करू। हमर त करोड़ों जन्म धरि यैह हठ रहत जे या त शिवजी केँ वरण करब, नहि त कुमारिये रहब। स्वयं शिवजी सौ बेर कहता तैयो नारदजी केर उपदेश केँ नहि छोड़ब।
५. जगज्जननी पार्वतीजी फेर कहलखिन्ह – हम अपने लोकनिक पैर पड़ैत छी, अपने अपन घर जाउ, बहुत देरी भ’ गेल अछि।
६. शिवजी मे पार्वतीजी केर एहेन अटूट प्रेम देखिकय ज्ञानी मुनि बजलाह – हे जगज्जननी! हे भवानी! अपनेक जय हो! जय हो!! अपने माया छी और शिवजी भगवान छथि। अपने दुनू समस्त जगत केर माता-पिता छी। एतेक कहिकय मुनि लोकनि पार्वतीजीक चरण मे सिर नमबैत चलि देलाह। हुनका सभक शरीर बेर-बेर पुलकित भ’ रहल छन्हि।
७. मुनि सब तखन ओतय सँ हिमवान् ओतय जाय केँ हुनका पार्वतीजी लग पठेलनि आर ओ विनती कय केँ हुनका घर आनि लेलनि। फेर सप्तर्षि शिवजी लग जाय केँ हुनका पार्वतीजीक सब कथा सुनौलनि। पार्वतीजीक प्रेम सुनिते शिवजी आनन्दमग्न भ’ गेलाह। सप्तर्षि प्रसन्न भ’ कय अपन घर ब्रह्मलोक चलि गेलाह। तखन सुजान शिवजी मोन केँ स्थिर कयकेँ श्री रघुनाथजीक ध्यान करय लगलथि।
८. ताहि समय तारक नाम के असुर भेल जेकर भुजाक बल, प्रताप और तेज बहुत पैघ छलैक। ओ सम्पूर्ण लोक और लोकपाल केँ जीत लेलक, सब देवता सुख और सम्पत्ति सँ रहित भ’ गेलाह। ओ अजर-अमर छल, ताहि सँ केकरहु द्वारा जीतल नहि जाइत छल। देवता ओकरा संग बहुतो तरहक लड़ाइ लड़िकय हारि गेलाह। तखन ओ ब्रह्माजी लग जाय केँ समस्या सुनौलनि।
९. ब्रह्माजी सब देवता केँ दुःखी देखि सबकेँ बुझबैत कहलखिन्ह – एहि दैत्य के मृत्यु तखनहि होयत जखन शिवजीक वीर्य सँ पुत्र उत्पन्न होयत, एकरा युद्ध मे वैह टा जीतत। हमर बात सुनिकय उपाय करय जाउ। ईश्वर सहायता करता आ काज भ’ जायत। सतीजी जे दक्ष केर यज्ञ मे देहक त्याग कयने रहथि से एखन हिमाचलक घर जाय केँ जन्म लेलथि अछि। ओ शिवजी केँ पति बनेबाक लेल तप कयलनि अचि, एम्हर शिवजी सब किछु छोड़ि-छाड़िकय समाधि लगेने बैसल छथि। अछि त बड़ा असमंजस के बात तैयो हमर एक बात सुनू – अहाँ सब जाकय कामदेव केँ शिवजी लग पठाउ, ओ शिवजीक मन मे क्षोभ उत्पन्न करथि, हुनकर समाधि भंग करथि, तखन हम जाय केँ शिवजीक चरण मे अपन माथ राखि देब आर जबरदस्ती हुनका राजी-खुशी कय केँ विवाह करा देब। एहि तरहें मात्र देवता सभक हित होयत, दोसर त कोनो उपाय नहि देखि रहल छी।
१०. सब देवतागण कहलखिन्ह – यैह सम्मति बहुत नीक अछि। फेर देवता लोकनि बड़ा प्रेम सँ कामदेव जीक स्तुति कयलनि। तखन विषम (पाँच) बाण धारण करनिहार और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा धारण करनिहार कामदेव प्रकट भेलाह।