स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
१६. शिवजी द्वारा सतीक त्याग, शिवजीक समाधि
रामायणक आरम्भ याज्ञवल्क्यजी द्वारा भरद्वाजजीक प्रश्न आ ताहि मे रहल किछु आशंका केँ सती माताक सन्देह आ भगवानक परीक्षा लेबाक प्रकरण सँ आरम्भ भेल अछि। सती माता द्वारा परीक्षाक स्वरूप एहेन भेल जे आब शिवजी बड़ा घोर दुविधा मे पड़ि गेल छथि। देखू ई सुन्दर प्रकरण केँ तुलसीदासजी केना वर्णन कयलनि अछिः
१. सती परम पवित्र छथि तेँ हुनका छोड़ितो नहि बनैत अछि आ प्रेम करता सेहो बड़ा भारी पाप होयत, कारण ओ माता सीताक रूप मे अपना केँ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीक समक्ष प्रस्तुत कय देलनि।
२. प्रकट कय केँ महादेवजी किछुओ नहि कहैत छथि मुदा हुनकर हृदय मे बड़ा भारी संताप अछि। तखन शिवजी प्रभु श्री रामचन्द्रजीक चरणकमल मे सिर नमेलनि आर हुनके स्मरण करैत देरी हुनकर मोन मे एलनि जे सतीक ई शरीर संग आब हम पति-पत्नी रूप मे भेंट नहि कय सकैत छी आर शिवजी अपने मोन मे यैह संकल्प कय लेलनि।
३. स्थिर बुद्धि शंकरजी एना विचारिकय श्री रघुनाथजीक स्मरण करैते अपन घर (कैलास) लेल चलि पड़लाह। चलैत समय सुन्दर आकाशवाणी भेल जे हे महेश! अहाँक जय हुए। अहाँ भक्ति केर सुन्दर-दृढ़ताक उदाहरण प्रस्तुत कयलहुँ। अहाँ छोड़ि दोसर के एहेन प्रतिज्ञा कय सकैत अछि। अहाँ श्री रामचन्द्रजीक भक्त छी, समर्थ छी और भगवान् छी।
४. एहि आकाशवाणी केँ सुनिकय सतीजीक मोन मे चिन्ता भेलनि आर ओ लजाइते शिवजी सँ पुछलीह – हे कृपालु! कहू जे अपने एहेन कोन प्रतिज्ञा कयलहुँ अछि? हे प्रभो! अहाँ सत्य केर धाम और दीनदयालु छी। यद्यपि सतीजी बहुतो प्रकार सँ पछलथि, लेकिन त्रिपुरारि शिवजी किछु नहि बजलाह। सतीजी हृदय मे अनुमान लगेलीह जे सर्वज्ञ शिवजी सब किछु जानि गेलाह। हम शिवजी संग कपट कयलहुँ, स्त्री स्वभावहि सँ मूर्ख और बेसमझ होइत छथि। प्रीति केर सुन्दर रीति देखू जे जल सेहो दूधक संग मिलिकय दूधहि के समान भाव बिकाइत अछि, लेकिन कपट रूपी खटाई पड़िते पानि अलग भऽ जाइत अछि। दूध फाटि जाइत अछि आर स्वाद (प्रेम) खत्म भऽ जाइत अछि।
५. अपन करनी केँ याद कयकेँ सतीजीक हृदय मे एतेक भारी सोच अछि आर एतेक बेसी चिन्ता अछि जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैछ। ओ बुझि गेलीह जे शिवजी कृपाक परम अथाह सागर छथि ताहि सँ प्रकट मे ओ हमर अपराध नहि कहलनि, लेकिन हुनकर रुइख देखिकय यैह लागि रहल अछि जे स्वामी हमर त्याग कय देलनि आर ओ हृदय मे अत्यन्त व्याकुल भऽ गेलीह। अपन पाप बुझैत किछु कहितो नहि बनैत अछि मुदा भीतरे भीतर कुम्हारक आँवा समान प्रचंड जलन होबय लागल।
६. वृषकेतु शिवजी सती केँ चिन्तायुक्त जानिकय हुनका सुख देबाक लेल सुन्दर-सुन्दर कथा सब कहय लगलाह। एहि तरहें मार्ग मे विविध प्रकारक इतिहास केँ कहैते विश्वनाथ कैलाश आबि गेलाह। ओतय फेर सँ शिवजी अपन प्रतिज्ञा केँ याद कयकेँ बरगदक गाछक नीचाँ पद्मासन लगाकय बैसि रहलाह। शिवजी अपन स्वाभाविक रूप मे आबि गेलथि, हुनका अखण्ड और अपार समाधि लागि गेलनि।
७. तखन सतीजी कैलाश पर रहय लगलीह। हुनक मोन मे बहुत दुःख रहनि। एहि रहस्य केँ कियो किछु नहि जानि रहल अछि। हुनकर एक-एक दिन युग के समान बीति रहल छल। सतीजीक हृदय मे नित्य नव और भारी सोच भऽ रहल छल जे हम एहि दुःख समुद्र केँ आब कोना आ कहिया पार कय सकब। हम जे श्री रघुनाथजीक अपमान कयलहुँ आर फेर पतिक वचन केँ झूठ बुझलहुँ तेकर फल विधाता हमरा देलनि। जे उचित छल वैह कयलथि, मुदा हे विधाता! आब ई उचित नहि अछि जे शंकर जी विमुख भेलाक बादो हम जीबिते रखने छी।
८. सतीजीक हृदय केर ग्लानि किछु कहल नहि जाइछ। बुद्धिमती सतीजी मोन मे श्री रामचन्द्रजी केँ स्मरण कयलथि आर कहलथि – हे प्रभो! यदि अपने दीनदयालु कहाइत छी आर वेद अहाँक यशगान कयलक अछि जे अहाँ दुःख केँ हरण करनिहार छी त हम हाथ जोड़िकय विनती करैत छी जे हमर ई देह जल्दी छुटि जाय। जँ हमरा शिवजीक चरण मे प्रेम अछि आर हमर ई प्रेमक व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) सँ सत्य अछि त हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनू आर शीघ्र वैह उपाय करू जाहि सँ हमर मरण हो और बिना परिश्रमहि केँ पति-परित्याग रूपी असह्य विपत्ति दूर भऽ जाय।
९. दक्षसुता सतीजी एहि तरहें बहुत बेसी दुःखित छलीह। हुनका एतबे दारुण दुःख छलन्हि जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। सत्तासी हजार वर्ष बीत गेलापर अविनाशी शिवजीक समाधि खुजलनि। शिवजी रामनाम केर स्मरण करय लगलाह, तखन सतीजी बुझलीह जे आब जगत के स्वामी शिवजी जागि गेलाह। ओ जाय कय शिवजीक चरण मे प्रणाम कयलथि। शिवजी हुनका बैसय लेल सोझें मे आसन देलथि। शिवजी भगवान हरि केर रसमय कथा सब कहय लगलाह। ताहि समय दक्ष प्रजापति भेलथि।
१०. ब्रह्माजी सब प्रकार सँ योग्य बुझि दक्ष केँ प्रजापति लोकनिक नायक बना देलनि। जखन दक्ष एतेक पैघ अधिकार प्राप्त कयलथि तखन हुनका हृदय मे अत्यन्त अभिमान आबि गेलनि। जग भरि मे एहेन कियो नहि जन्म लेलक जेकरा प्रभुता भेटला पर मद नहि भेल होइ।
हरिः हरः!!