रामचरितमानस मोतीः सतीक भ्रम, रामक ऐश्वर्य तथा सतीक पछताबा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

१५. सतीक भ्रम, श्री रामजीक ऐश्वर्य और सतीक पछताबा

आब मुनि याज्ञवल्क्य जी द्वारा भरद्वाज जी केँ हुनक प्रश्न (जिज्ञासा) जे कि श्री रामचन्द्र जी के सम्बन्ध मे सब बात फरिछाकय कहबाक लेल छल तेकर जवाब देल जा रहल अछि।
 
रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥४॥
 
श्री रामजीक कथा चंद्रमाक किरण समान अछि जे संतरूपी चकोर सदिखन पान करय चाहैत छथि। एहने संदेह पार्वतीजी कयने छलीह, तखन महादेवजी हुनका विस्तार सँ एकर उत्तर देने रहथि।
 
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥४७॥
 
आब हम अपन बुद्धि अनुसार वैह उमा और शिवजीक संवाद कहैत छी। ओ जाहि समय और जाहि हेतु सँ भेल से सुनू, अहाँक विषाद मेटा जायत।
 
१. एक बेर त्रेता युग मे शिवजी अगस्त्य ऋषिक पास गेलाह। हुनका संग जगज्जननी भवानी सतीजी सेहो छलीह। ऋषि संपूर्ण जगत्‌ केर ईश्वर जानिकय हुनकर पूजन कयलनि। मुनिवर अगस्त्यजी रामकथा विस्तार सँ कहलथि, जे महेश्वर अत्यन्त सुख मानिकय सुनलथि। फेर ऋषि शिवजी सँ सुन्दर हरिभक्ति केर सम्बन्ध मे पुछलथि आ शिवजी हुनका ताहि योग्य (अधिकारी) बुझिकय रहस्य सहित भक्ति केर निरूपण कयलनि। श्री रघुनाथजी के गुणक कथा सब कहिते-सुनिते किछु दिन धरि शिवजी ओतहि रहला। फेर मुनि सँ विदा माँगिकय शिवजी दक्षकुमारी सतीजीक संग वापस कैलाश लेल प्रस्थान कयलनि।
 
२. ताहि समय पृथ्वीक भार उतारय लेल श्री हरि रघुवंश मे अवतार लेने छलाह। ओ अविनाशी भगवान्‌ ताहि समय पिताक वचन सँ राज्य केर त्याग कय तपस्वी या साधु वेश मे दण्डकवन मे विचरि रहल छलाह।
 
३. शिवजी हृदय मे विचारैत जा रहल छलाह जे भगवान्‌ केर दर्शन हमरा कोन हुए, प्रभु त गुप्त रूप सँ अवतार लेलनि अछि, हमरा गेला सँ सब कियो बुझि जायत। श्री शंकरजी के हृदय मे यैह बात लय कय बड़ा खलबली मचि गेल, लेकिन सतीजी ई सब भेद केँ नहि बुझि सकलीह। तुलसीदासजी कहैत छथि जे शिवजीक मोन मे भेद खुलबाक डर छलन्हि लेकिन दर्शन के लोभ सँ हुनकर नेत्र ललचा रहल छल।
 
४. रावण ब्रह्माजी सँ अपन मृत्यु मनुष्य केर हाथ सँ माँगने छल। ब्रह्माजीक वचन केँ प्रभु सत्य करय चाहैत छथि। हम जँ हुनका लग नहि जाइत छी त बहुत पछताबा होयत। यैह सब शिवजी विचार करैत छथि, लेकिन कोनो युक्ति ठीक नहि बैसि रहल छलन्हि जे दर्शन कोना कयल जाय। एहि तरहें महादेवजी चिन्ताक वश भ’ जाइत छथि। तखनहि नीच रावण जा कय मारीच केर संग लैत तुरंत कपट मृग बनि गेल। मूर्ख रावण छल कय केँ सीताजी केर हरण कय लेलक। ओकरा श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभावक किछो पता नहि छलैक। मृग केँ मारिकय भाइ लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम मे एलाह आर ओतय सीताजी केँ नहि देखि हुनकर आँखि मे नोर भरि गेलनि। श्री रघुनाथजी मनुष्यहि समान विरहाक दुःख सँ व्याकुल छथि आर दुनू भाइ वन मे सीता केँ तकैत एम्हर-ओम्हर घुमि रहल छथि। जिनका कहियो कोनो संयोग-वियोग नहि अछि, हुनका मे प्रत्यक्ष विरह केर दुःख देखल गेल।
 
५. श्री रघुनाथजीक चरित्र बहुते विचित्र अछि, ओकरा पहुँचल ज्ञानीजन टा जनैत छथि। जे मंदबुद्धि अछि ओ सब त विशेष रूप सँ मोह केर वश भ’ कय हृदय मे किछु दोसरे बात बुझि बैसैत छथि।
 
६. श्री शिवजी वैह अवसर पर श्री रामजी केँ देखलनि आर हुनकर हृदय मे बड़ा भारी आनंद उत्पन्न भऽ गेलनि। ओहि शोभाक समुद्र श्री रामचंद्रजी केँ शिवजी नेत्र भरिकय देखलनि, मुदा अवसर ठीक नहि जानिकय परिचय नहि कयलनि।
 
७. जगत्‌ केँ पवित्र करनिहार सच्चिदानंद की जय हो, एतेक कहिकय कामदेव केँ नाश करयवला श्री शिवजी चलि पड़लाह। कृपानिधान शिवजी बेर-बेर आनंद सँ पुलकित होइते सतीजीक संग चलैत जा रहल छलथि। सतीजी केँ शंकरजीक एहेन अवस्था देखि देखीकय मोन मे बड़ा संदेह उत्पन्न भेलनि। ओ मनहि-मन कहय लगलीह जे शंकरजी केर सारा जग वंदना करैत अछि, ओ जगत्‌ केर ईश्वर छथि, देवता, मनुष्य, मुनि सब हुनका प्रति सिर नमबैत छथि। ओ एक राजपुत्र केँ सच्चिदानंद परधाम कहिकय प्रणाम कयलनि आर हुनकर शोभा देखिकय ओ एतेक प्रेममग्न भ’ गेलाह अछि जे एखन धरि हुनकर हृदय मे प्रीति रोकलो पर नहि रुकि रहल अछि। जे ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित छथि आर जिनका वेद सेहो नहि जनैछ, कि ओ देह धारण कय केँ मनुष्य भ’ सकैत छथि? देवता लोकनिक हित लेल मनुष्य शरीर धारण करनिहार जे विष्णु भगवान्‌ छथि ओहो शिवजी जेकाँ सर्वज्ञ छथि। ओ ज्ञान के भंडार, लक्ष्मीपति और असुर सभक शत्रु भगवान्‌ विष्णु कि अज्ञानी जेकाँ स्त्री केँ तकता? फेर शिवजीक वचन सेहो झूठ नहि भ’ सकैत अछि। सब कियो जनैत अछि जे शिवजी सर्वज्ञ छथि। सती के मोन मे एहि तरहक अपार संदेह उठि ठाढ़ भ’ गेलनि, कोनो तरहें हुनकर हृदय मे ज्ञानक प्रादुर्भाव नहि भ’ रहल छल।
८. यद्यपि भवानीजी प्रकट रूप मे किछु नहि बजलीह लेकिन अन्तर्यामी शिवजी सब किछु जानि गेलाह। ओ बजलाह – हे सती! सुनू, अहाँक स्त्रीगणक स्वभाव अछि। एहेन संदेह मोन मे कथमपि नहि रखबाक चाही। जिनकर कथा अगस्त्य ऋषि गान कयलनि आर जिनकर भक्ति हम मुनि केँ सुनेलहुँ, ई वैह हमर इष्टदेव श्री रघुवीरजी थिकाह, जिनकर सेवा ज्ञानी मुनि सदा कयल करैत छथि। 

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।

कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥

सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।

अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥

ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त सँ जिनकर ध्यान करैत छथि तथा वेद, पुराण और शास्त्र ‘नेति-नेति’ कहिकय जिनकर कीर्ति गबैत अछि, वैह सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांड केर स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान्‌ श्री रामजी अपन भक्त लोकनिक हितक लेल अपनहि इच्छा सँ रघुकुल केर मणिरूप मे अवतार लेलनि अछि। 

९. यद्यपि शिवजी बहुत बेर समझेलखिन मुदा तैयो सतीजीक हृदय मे हुनकर उपदेश नहि आबि सकल। तखन महादेवजी मनहि मे भगवान्‌ केर मायाक बल बुझैत विहुंसैत कहलखिन – अहाँक मोन मे बहुत संदेह अछि त अहाँ जा कय परीक्षा कियैक नहि लैत छी? जा धरि अहाँ वापस आयब ता धरि हम एहि बरगद गाछक छाहरि मे बैसल रहब। जाहि तरहें अहाँक ई अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो से खूब नीक जेकाँ विवेक सँ सोचि-बुझि अहाँ वैह करू।

१०. शिवजीक आज्ञा पाबिकय सती चलली आर मन मे सोचय लगलीह कि परीक्षा केना ली! एम्हर शिवजी मन मे एना अनुमान कयलथि जे दक्षकन्या सतीक कल्याण नहि छन्हि। जखन हमरो बुझेला सँ संदेह दूर नहि भेलनि तखन बुझाइत अछि जे विधाते उलटि गेल छथि, आब सतीक कुशल नहि छन्हि। जे किछ राम रचि देने छथि सैह होयत। तर्क कय केँ के अनेरक शाखा विस्तार करय। मोन मे एतेक कहिकय शिवजी भगवान्‌ श्री हरिक नाम जपय लगलाह आर सतीजी ओतय गेलीह जतय सुखक धाम श्रीरामचंद्र जी छलाह। 

११. सती बेर-बेर मोन मे विचारिकय सीताजीक रूप धारण कय केँ वैह रस्ता पर आगू-आगू चलय लगलीह जाहि सँ सतीजीक मतानुसार मनुष्यक राजा श्री रामचन्द्रजी आबि रहल छलाह। सतीजीक बनावटी वेष देखि लक्ष्मणजी आश्चर्यचकित रहि गेलथि आर हुनकर हृदय मे बड़ा भ्रम भेलनि। ओ बहुत गंभीर भऽ गेलाह, किछु कहि नहि सकलथि। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजीक प्रभाव केँ जनैत रहथि। सब किछु देखयवला आ सभक हृदय केर जानयवला देवता लोकनिक स्वामी श्री रामचंद्रजी सतीक कपट केँ जानि लेलथि।

१२. जिनकर स्मरण मात्र सँ अज्ञान केर नाश भऽ जाइत अछि से सर्वज्ञ भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी छथि। स्त्री स्वभावक असर देखू जे ओतय, वैह सर्वज्ञ भगवान्‌ के सामने सेहो सतीजी छिपाव करय चाहैत छथि। अपन मायाक बल केँ हृदय मे बखानिकय श्री रामचंद्रजी हँसिकय कोमल वाणी सँ बजलाह, ताहि सँ पहिने प्रभु हाथ जोड़िकय सती केँ प्रणाम कयलनि आर पिता सहित अपन नाम बतेलनि। फेर कहलनि – वृषकेतु शिवजी कतय छथि? अहाँ एतय वन मे असगरे कियैक विचरण कय रहल छी? 

१३. श्री रामचन्द्रजीक कोमल और रहस्य भरल वचन सुनिकय सतीजी केँ बड़ा भारी संकोच भेलनि। ओ डराइते डराइते चुपेचाप शिवजीक पास चलि देली, हुनकर हृदय मे बड़ा भारी चिन्ता भऽ गेलनि जे हम शंकरजी केँ कहनाय नहि मानि अपन अज्ञानता सँ श्री रामचन्द्रजी पर प्रयोग कयलहुँ। आब हम शिवजी केँ कि उत्तर देबनि? एहिना सोचिते-सोचिते सतीजीक हृदय मे पछताबाक जलन उत्पन्न भऽ गेलनि। 

१४. श्री रामचन्द्रजी बुझि गेलाह जे सतीजी केँ दुःख भेलनि, तखन ओ अपन किछु प्रभाव प्रकट कय केँ हुनका देखेलथि। सतीजी वापस जाहि बाटे जा रहल छलीह ओतय देखैत छथि जे श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगू चलल जा रहल छथि। ताहि अवसर पर सीताजी केँ एहि लेल देखायल गेलनि जे सतीजी श्री राम केर सच्चिदानंदमय रूप केँ देखथि, वियोग आर दुःख केर कल्पना जे हुनका भेल छलन्हि से सब दूर भऽ जाइन आ ओ प्रकृतिस्थ होइथ। ई सब देखैत ओ पाछू दिश घुरिकय तकलीह त ओतय सेहो भाइ लक्ष्मणजी और सीताजी के संग श्री रामचन्द्रजी सुन्दर वेष मे देखेलाह।

१५. ओ जेम्हरे देखैत छथि ओम्हरे प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान छथि और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर लोकनि हुनकर सेवा कय रहल छथि। सतीजी अनेकों शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखलथि जे एक सँ एक बढ़िकय असीम प्रभाववला छलाह। ओ देखलथि जे भिन्न-भिन्न वेष धारण कयने सब देवता श्री रामचन्द्रजीक चरणवन्दना और सेवा कय रहल छलथि। अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी सेहो ओ देखलथि। जाहि-जाहि रूप मे ब्रह्मा आदि देवता रहथि ताहि अनुकूलक रूप मे हुनका सभक शक्ति लोकनि सेहो छलीह। सतीजी जतय-जतय रघुनाथजी केँ देखलथि, शक्ति सहित ओतय ओतबहि समस्त देवता लोकनि केँ सेहो देखलीह। संसार मे जे चराचर जीव अछि ओहो सब केँ अनेकों प्रकारक देखलथि। अनेकों वेष धारण कय केँ देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजीक पूजा कय रहल छथि, लेकिन श्री रामचन्द्रजी के दोसर रूप कतहु नहि देखलथि। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुतो रास देखलथि, लेकिन हुनका लोकनिक वेष अनेक नहि छल। सब जगह वैह रघुनाथजी, वैह लक्ष्मण और वैह सीताजी – सती एना देखिकय बहुते डरा गेलीह। हुनकर हृदय काँपय लगलनि आर देहक सबटा सुधि-बुधि हेराइत रहलनि। ओ आँखि मुनिकय ओहिठाम रस्ते पर बैसि रहलीह। 

१६. फेर जखन आँखि खुजलनि तखन दक्षकुमारी (सतीजी) केँ किछुओ नहि देखेलनि। आब ओ बेर-बेर श्री रामचन्द्रजी केर चरण मे सिर नमाबैत ओतय सँ श्री शिवजी लग वापस चलि देलीह। जखन लग पहुँचलीह तखन श्री शिवजी हँसिकय कुशल प्रश्न करैत कहलनि जे अहाँ रामजीक परीक्षा कोना के लेलहुँ, सब बात सच-सच कहू त!

 

१७. सतीजी श्री रघुनाथजीक प्रभाव केँ बुझैत डरक मारे शिवजी सँ नुकबैत बजलीह – हे स्वामिन्‌! हम किछुओ परीक्षा नहि लेलहुँ, ओतय जाय केँ अहीं जेकाँ हुनका प्रणाम कयलहुँ। अहाँ जे कहलहुँ से झूठ भइये नहि सकैत अछि, हमर मोन मे ई पूरा विश्वास अछि।

१८. तखन शिवजी ध्यान कय केँ देखलथि आर सतीजी जे चरित्र कयने छलीह से सब जानि लेलथि। फेर ओ श्री रामचन्द्रजी केर माया जेकर प्रेरणा सँ सतीक मुँह सँ सेहो झूठ बजबा देलक तेकरा सिर नमेलनि। सुजान शिवजी तखनहि मोन मे विचार कयलथि जे हरिक इच्छा रूपी भावी प्रबल अछि। सतीजी सीताजीक वेष धारण कयलीह से जानिकय शिवजीक हृदय मे बड़ा पैघ विषाद भेलनि। ओ सोचलथि जे जँ हम आब सती सँ प्रीति करैत छी त भक्तिमार्ग लुप्त भऽ जाइत अछि आर बड़ा भारी अन्याय होइत अछि।

हरिः हरः!!