स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
१५. सतीक भ्रम, श्री रामजीक ऐश्वर्य और सतीक पछताबा
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
९. यद्यपि शिवजी बहुत बेर समझेलखिन मुदा तैयो सतीजीक हृदय मे हुनकर उपदेश नहि आबि सकल। तखन महादेवजी मनहि मे भगवान् केर मायाक बल बुझैत विहुंसैत कहलखिन – अहाँक मोन मे बहुत संदेह अछि त अहाँ जा कय परीक्षा कियैक नहि लैत छी? जा धरि अहाँ वापस आयब ता धरि हम एहि बरगद गाछक छाहरि मे बैसल रहब। जाहि तरहें अहाँक ई अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो से खूब नीक जेकाँ विवेक सँ सोचि-बुझि अहाँ वैह करू।
१०. शिवजीक आज्ञा पाबिकय सती चलली आर मन मे सोचय लगलीह कि परीक्षा केना ली! एम्हर शिवजी मन मे एना अनुमान कयलथि जे दक्षकन्या सतीक कल्याण नहि छन्हि। जखन हमरो बुझेला सँ संदेह दूर नहि भेलनि तखन बुझाइत अछि जे विधाते उलटि गेल छथि, आब सतीक कुशल नहि छन्हि। जे किछ राम रचि देने छथि सैह होयत। तर्क कय केँ के अनेरक शाखा विस्तार करय। मोन मे एतेक कहिकय शिवजी भगवान् श्री हरिक नाम जपय लगलाह आर सतीजी ओतय गेलीह जतय सुखक धाम श्रीरामचंद्र जी छलाह।
११. सती बेर-बेर मोन मे विचारिकय सीताजीक रूप धारण कय केँ वैह रस्ता पर आगू-आगू चलय लगलीह जाहि सँ सतीजीक मतानुसार मनुष्यक राजा श्री रामचन्द्रजी आबि रहल छलाह। सतीजीक बनावटी वेष देखि लक्ष्मणजी आश्चर्यचकित रहि गेलथि आर हुनकर हृदय मे बड़ा भ्रम भेलनि। ओ बहुत गंभीर भऽ गेलाह, किछु कहि नहि सकलथि। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजीक प्रभाव केँ जनैत रहथि। सब किछु देखयवला आ सभक हृदय केर जानयवला देवता लोकनिक स्वामी श्री रामचंद्रजी सतीक कपट केँ जानि लेलथि।
१२. जिनकर स्मरण मात्र सँ अज्ञान केर नाश भऽ जाइत अछि से सर्वज्ञ भगवान् श्री रामचंद्रजी छथि। स्त्री स्वभावक असर देखू जे ओतय, वैह सर्वज्ञ भगवान् के सामने सेहो सतीजी छिपाव करय चाहैत छथि। अपन मायाक बल केँ हृदय मे बखानिकय श्री रामचंद्रजी हँसिकय कोमल वाणी सँ बजलाह, ताहि सँ पहिने प्रभु हाथ जोड़िकय सती केँ प्रणाम कयलनि आर पिता सहित अपन नाम बतेलनि। फेर कहलनि – वृषकेतु शिवजी कतय छथि? अहाँ एतय वन मे असगरे कियैक विचरण कय रहल छी?
१३. श्री रामचन्द्रजीक कोमल और रहस्य भरल वचन सुनिकय सतीजी केँ बड़ा भारी संकोच भेलनि। ओ डराइते डराइते चुपेचाप शिवजीक पास चलि देली, हुनकर हृदय मे बड़ा भारी चिन्ता भऽ गेलनि जे हम शंकरजी केँ कहनाय नहि मानि अपन अज्ञानता सँ श्री रामचन्द्रजी पर प्रयोग कयलहुँ। आब हम शिवजी केँ कि उत्तर देबनि? एहिना सोचिते-सोचिते सतीजीक हृदय मे पछताबाक जलन उत्पन्न भऽ गेलनि।
१४. श्री रामचन्द्रजी बुझि गेलाह जे सतीजी केँ दुःख भेलनि, तखन ओ अपन किछु प्रभाव प्रकट कय केँ हुनका देखेलथि। सतीजी वापस जाहि बाटे जा रहल छलीह ओतय देखैत छथि जे श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगू चलल जा रहल छथि। ताहि अवसर पर सीताजी केँ एहि लेल देखायल गेलनि जे सतीजी श्री राम केर सच्चिदानंदमय रूप केँ देखथि, वियोग आर दुःख केर कल्पना जे हुनका भेल छलन्हि से सब दूर भऽ जाइन आ ओ प्रकृतिस्थ होइथ। ई सब देखैत ओ पाछू दिश घुरिकय तकलीह त ओतय सेहो भाइ लक्ष्मणजी और सीताजी के संग श्री रामचन्द्रजी सुन्दर वेष मे देखेलाह।
१५. ओ जेम्हरे देखैत छथि ओम्हरे प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान छथि और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर लोकनि हुनकर सेवा कय रहल छथि। सतीजी अनेकों शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखलथि जे एक सँ एक बढ़िकय असीम प्रभाववला छलाह। ओ देखलथि जे भिन्न-भिन्न वेष धारण कयने सब देवता श्री रामचन्द्रजीक चरणवन्दना और सेवा कय रहल छलथि। अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी सेहो ओ देखलथि। जाहि-जाहि रूप मे ब्रह्मा आदि देवता रहथि ताहि अनुकूलक रूप मे हुनका सभक शक्ति लोकनि सेहो छलीह। सतीजी जतय-जतय रघुनाथजी केँ देखलथि, शक्ति सहित ओतय ओतबहि समस्त देवता लोकनि केँ सेहो देखलीह। संसार मे जे चराचर जीव अछि ओहो सब केँ अनेकों प्रकारक देखलथि। अनेकों वेष धारण कय केँ देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजीक पूजा कय रहल छथि, लेकिन श्री रामचन्द्रजी के दोसर रूप कतहु नहि देखलथि। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुतो रास देखलथि, लेकिन हुनका लोकनिक वेष अनेक नहि छल। सब जगह वैह रघुनाथजी, वैह लक्ष्मण और वैह सीताजी – सती एना देखिकय बहुते डरा गेलीह। हुनकर हृदय काँपय लगलनि आर देहक सबटा सुधि-बुधि हेराइत रहलनि। ओ आँखि मुनिकय ओहिठाम रस्ते पर बैसि रहलीह।
१६. फेर जखन आँखि खुजलनि तखन दक्षकुमारी (सतीजी) केँ किछुओ नहि देखेलनि। आब ओ बेर-बेर श्री रामचन्द्रजी केर चरण मे सिर नमाबैत ओतय सँ श्री शिवजी लग वापस चलि देलीह। जखन लग पहुँचलीह तखन श्री शिवजी हँसिकय कुशल प्रश्न करैत कहलनि जे अहाँ रामजीक परीक्षा कोना के लेलहुँ, सब बात सच-सच कहू त!
१७. सतीजी श्री रघुनाथजीक प्रभाव केँ बुझैत डरक मारे शिवजी सँ नुकबैत बजलीह – हे स्वामिन्! हम किछुओ परीक्षा नहि लेलहुँ, ओतय जाय केँ अहीं जेकाँ हुनका प्रणाम कयलहुँ। अहाँ जे कहलहुँ से झूठ भइये नहि सकैत अछि, हमर मोन मे ई पूरा विश्वास अछि।
१८. तखन शिवजी ध्यान कय केँ देखलथि आर सतीजी जे चरित्र कयने छलीह से सब जानि लेलथि। फेर ओ श्री रामचन्द्रजी केर माया जेकर प्रेरणा सँ सतीक मुँह सँ सेहो झूठ बजबा देलक तेकरा सिर नमेलनि। सुजान शिवजी तखनहि मोन मे विचार कयलथि जे हरिक इच्छा रूपी भावी प्रबल अछि। सतीजी सीताजीक वेष धारण कयलीह से जानिकय शिवजीक हृदय मे बड़ा पैघ विषाद भेलनि। ओ सोचलथि जे जँ हम आब सती सँ प्रीति करैत छी त भक्तिमार्ग लुप्त भऽ जाइत अछि आर बड़ा भारी अन्याय होइत अछि।
हरिः हरः!!