स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती

१. श्री रामजी हमर बिगड़ल अवस्था सब तरहें सुधारि देता, जिनकर कृपा कृपा करय सँ अघाइत नहि अछि। हुनक सन उत्तम स्वामी और हमरा जेहेन खराब सेवक! तैयो ओ दयानिधि हमरा दिश ताकिकय हमर पालन कयलनि अछि। लोक और वेद मे सेहो बढियां स्वामी (मालिक) केर यैह रीति प्रसिद्ध अछि जे ओ विनय सुनिते देरी प्रेम केँ बुझि गेल करैत छथि।
२. अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी, सुकवि-कुकवि, सब नर-नारी अपन-अपन बुद्धि अनुसार राजाक सराहना करैत छथि और साधु, बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर केर अंश सँ उत्पन्न कृपालु राजा – सभक सुनिकय और हुनका सभक वाणी, भक्ति, विनय और चाइल केँ चिन्हिकय सुन्दर मधुर वाणी सँ सभक यथायोग्य सम्मान करैत छथि। ई स्वभाव त संसारी राजा लोकनिक छन्हि, कोसलनाथ श्री रामचन्द्रजी तँ चतुरशिरोमणि छथि।
३. श्री रामजी तँ विशुद्ध प्रेमहि सँ रीझैत छथि, मुदा जग भरि मे हमरा सँ बढिकय मूर्ख और मलिन बुद्धि दोसर के होयत? तथापि कृपालु श्री रामचन्द्रजी हमरो समान दुष्ट सेवक केर प्रीति और रुचि केँ अवश्य रखता, जे स्वयं पत्थर केँ जहाज और बानर-भालु सब केँ बुद्धिमान मंत्री बना लेलनि।
४. सब कियो हमरा श्री रामजीक सेवक कहैत अछि आर हमहुँ बिना लाज-संकोच केँ सैह कहाइत छी, कहनिहारक कोनो विरोध नहि करैत छी, कृपालु श्री रामजी एहि निन्दा केँ सहैत छथि जे श्री सीतानाथजी जेहेन स्वामीक तुलसीदास सन सेवक अछि। ई हमर बहुत बड़का ढिठपना आ दोष थिक, हमर पाप केँ सुनिकय नरक सेहो नाक सिकोड़ि लेलक अर्थात् नरकहु मे हमरा लेल ठौर नहि अछि। ई सोचिकय हमरा अपनहि कल्पित भय सँ भय भऽ रहल अछि, लेकिन भगवान श्री रामचन्द्रजी तँ स्वप्नहु मे हमर एहि ढिठाई और दोष पर ध्यान नहि देलनि।
५. हमर प्रभु श्री रामचन्द्रजी तँ ई बात सुनिकय, देखिकर और अपनहि सुचित्त रूपी चक्षु सँ निरीक्षण कय केँ हमर भक्ति और बुद्धिक उलटा सराहने कयलनि, कियैक तऽ कहय मे भले बिगड़ि जाय – माने जे हम अपना केँ भगवानक सेवक कहैत-कहाइत रही, धरि हृदय मे भलापना होबाके टा चाही। हृदय मे त अपना केँ उनका सेवक बनय योग्य नहि मानिकय पापी और दीने मानैत छी से भलापना थिक।
६. श्री रामचन्द्रजी सेहो दास लोकनिक हृदय केर अवस्था बुझिकय रीझ गेल करैत छथि। प्रभुक चित्त मे अपन भक्त केर भेल भूल-चूक याद नहि रहैत अछि, ओ ताहि सब केँ बिसरि गेल करैत छथि आर हुनकर हृदय केँ नेकी (नीक कार्य) बेर-बेर याद करैत रहैत छन्हि।
७. जाहि पापक कारण ओ बालि केँ व्याध जेकाँ मारने रहथि वैह कुचाइल फेर सुग्रीवहु चलने छलाह। ओहने करनी विभीषणक सेहो भेलनि, मुदा श्री रामचन्द्रजी सपनहुँ मे ताहि बात सभ पर अपन मन मे कनिको विचार नहि कयलनि। उलटे भरतजी सँ भेंट करबाक समय श्री रघुनाथजी हुनका सभक सम्मान कयलनि आ राजसभा मे सेहो हुनका लोकनिक गुणहि केर बखान कयलनि।
८. प्रभु श्री रामचन्द्रजी तँ गाछक नीचाँ आर बानर सब डार्हिपर! अर्थात कतय मर्यादा पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्री रामजी और कतय गाछक डार्हि-ठार्हिपर कूदयवला बानर! लेकिन एहनो बानर सब केँ ओ अपनहि समान बना लेलनि।
९. तुलसीदासजी कहैत छथि जे श्री रामचन्द्रजी समान शीलनिधान स्वामी कतहु नहि छथि। हे श्री रामजी! अहाँक नेकी सँ सभक भलाई छैक, यानि अहाँक कल्याणमय स्वभाव सभक कल्याण करयवला छैक, जँ ई बात सच अछि त तुलसीदास केर सदिखन कल्याणहि टा हेतैक।
१०. एहि तरहें अपन गुण-दोष सब कहिकय आर सब केँ फेर सँ सिर नमाकय हम श्री रघुनाथजी केर निर्मल यश वर्णन करैत छी जे सुनला सँ कलियुगक पाप नष्ट भ’ जाइत अछि।
११. मुनि याज्ञवल्क्यजी जे सुहाओन कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी केँ सुनेने रहथि, वैह संवाद केँ हम बखान करैत कहब, सब सज्जन सुखक अनुभव करैत से सुनता।
१२. शिवजी द्वारा पहिने ई सुहाओन चरित्र केर रचना भेल, फेर कृपा कय केँ ओ पार्वतीजी केँ सुनेलनि। वैह चरित्र शिवजी द्वारा काकभुशुण्डिजी केँ रामभक्त और अधिकारी बुझिकय देल गेल। ओ काकभुशुण्डिजी सँ फेर याज्ञवल्क्यजी प्राप्त कयलनि आ ओ फेर ओहि कथा केँ भरद्वाजजी केँ गाबिकय सुनेलनि।
१३. ओ दुनू वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शील रखनिहार तथा समदर्शी छथि और श्री हरि केर लीला केँ जनैत छथि। ओ सब अपनहि ज्ञान सँ तीनू काल केर बात केँ हथेली पर राखल गेल आँवला जेकाँ प्रत्यक्ष जनैत छथि। आरो जे सुजान भगवान केर लीला सभक रहस्य जननिहार हरि भक्त छथि ओ एहि चरित्र केँ नाना प्रकार सँ कहैत, सुनैत और बुझैत छथि।
१४. फेर यैह कथा हम वाराह क्षेत्र मे अपन गुरुजी सेँ सुनलहुँ, मुदा ताहि समय हम लड़कपन केर कारण बहुत अबुझ रही, ताहि सँ तेना भऽ कय नीक जेकाँ नहि बुझि सकल छलहुँ। श्री रामजीक गूढ़ कथा के वक्ता (कहनिहार) और श्रोता (सुननिहार) दुनू ज्ञान केर खजाना (पूरे ज्ञानी) होइत छथि। हम कलियुग केर पाप सँ ग्रसित भेल महामूढ़ जड़ जीव भला ओकरा केना बुझि सकैत छलहुँ? तैयो गुरुजी जखन बेर-बेर कथा कहलनि, तखन अपन बुद्धि मुताबिक किछु किछु बुझय मे आयल। वैह आब हमरा द्वारा अपन भाषा मे रचल जायत जाहि सँ हमरा मोन केँ संतोष भेटत।
१५. जे किछु हमरा मे बुद्धि और विवेक केर बल अछि, हम हृदय मे हरिक प्रेरणा सँ ताहि अनुसार कहब। हम अपन संदेह, अज्ञान और भ्रम को हरय योग्य कथा रचैत छी जे संसाररूपी नदी केँ पार करय वास्ते नाव बनय।
१६. रामकथा पण्डित लोकनि केँ विश्राम दय योग्य होइछ, सब केँ प्रसन्न करय योग्य होइत अछि आर कलियुग केर पाप सब केँ नाश करय योग्य होइत अछि।
१७. रामकथा कलियुग रूपी साँप लेल मोरनी थिक और विवेक रूपी अग्नि केँ प्रकट करबाक लेल अरणि (मंथन करय वला लकड़ी) थिक, अर्थात एहि कथा सँ ज्ञान केर प्राप्ति होइत अछि।
१८. रामकथा कलियुग मे सब मनोरथ केँ पूर्ण करयवाली कामधेनु गौ थिक आर सज्जन लोकनि लेल सुन्दर संजीवनी जड़ी थिक। पृथ्वी पर यैह अमृत केर नदी थिक, जन्म-मरण रूपी भय केर नाश करयवाली और भ्रम रूपी बेंग केँ भक्षण करयवाली सर्पिणी थिक।
१९. ई रामकथा असुर सभक सेना जेकाँ नरक केँ नाश करयवाली और साधु रूप देवता लोकनिक कुल केँ हित करयवाली पार्वती (दुर्गा) थिक। ई संत-समाज रूपी क्षीर समुद्र केर लेल लक्ष्मीजी के समान अछि और सम्पूर्ण विश्व केर भार उठेबा मे अचल पृथ्वी के समान अछि। यमदूत सभक मुख पर कालिख लगेबाक लेल एहि जग केर यमुनाजीक समान अछि आर जीव सब केँ मुक्ति देबाक लेल बुझू जे काशी यैह अछि। ई श्री रामजी केँ पवित्र तुलसी समान प्रिय छन्हि और तुलसीदास के लेल हुलसी (तुलसीदासजीक माता) केर समान हृदय सँ हित करयवाली अछि।
२०. ई रामकथा शिवजी केँ नर्मदाजी समान प्रिय छन्हि, ई सब सिद्धिक आ सुख-सम्पत्तिक राशि अछि। सद्गुण रूपी देवता लोकनि केँ उत्पन्न और पालन-पोषण करबाक लेल माता अदिति केर समान अछि। श्री रघुनाथजीक भक्ति और प्रेमक परम सीमा जेकाँ अछि।
२१. तुलसीदासजी कहैत छथि जे रामकथा मंदाकिनी नदी थिक, सुन्दर (निर्मल) चित्त चित्रकूट थिक और सुन्दर स्नेहे एकर वन थिक, जाहि मे श्री सीतारामजी विहार करैत छथि।
२२. श्री रामचन्द्रजीक चरित्र सुन्दर चिन्तामणि थिक और संत लोकनिक सुबुद्धि रूपी स्त्रीक सुन्दर श्रृंगार थिक। श्री रामचन्द्रजी के गुण-समूह जगत् केर कल्याण करयवला तथा मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम प्रदान करयवला अछि।
२३. ज्ञान, वैराग्य और योग केर लेल सद्गुरु थिक और संसार रूपी भयंकर रोग केँ नाश करय लेल देवता लोकनिक वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान अछि।
२४. ई श्री सीतारामजीक प्रेम केँ उत्पन्न करबाक लेल माता-पिता थिक और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियम केर बीज थिक। पाप, संताप और शोक केँ नाश करयवला आ एहि लोक व परलोक केर प्रिय पालनहार थिक।
२५. विचार (ज्ञान) रूपी राजाक शूरवीर मंत्री और लोभ रूपी अपार समुद्र केँ सोखयवला अगस्त्य मुनि थिक।
२६. भक्त सभक मनरूपी वन मे बसयवला काम, क्रोध और कलियुग केर पाप रूपी हाथी केँ मारयवला सिंह केर बच्चा थिक।
२७. शिवजीक पूज्य और प्रियतम अतिथि थिक और दरिद्रता रूपी दावानल केँ मिझेबाक लेल कामना पुरेनिहार मेघ थिक।
२८. विषयरूपी साँप केर जहर उतारय लेल मन्त्र और महामणि थिक।
२९. ई ललाट पर लिखल बड़ी मुश्किल सँ मेटायवला खराब लेख (मंद प्रारब्ध) केँ मेटाबय वला अछि।
३०. अज्ञानरूपी अन्धकार केँ हरण करबाक लेल सूर्य किरणक समान और सेवक रूपी धान केर पालन करय मे मेघ केर समान अछि।
३१. मनोवांछित वस्तु दय मे श्रेष्ठ कल्पवृक्ष केर समान और सेवा करय मे हरि-हर केर समान सुलभ और सुख दयवला अछि।
३२. सुकवि रूपी शरद् ऋतु केर मनरूपी आकाश केँ सुशोभित करबाक लेल तारागण केर समान और श्री रामजीक भक्त सभक त जीवन धने छी।
३३. सम्पूर्ण पुण्य केर फल महान भोग केर समान अछि।
३४. जगत केर छलरहित (यथार्थ) हित करय मे साधु-संत केर समान अछि।
३५. सेवक लोकनिक मनरूपी मानसरोवर लेल हंस के समान और पवित्र करय मे गंगाजीक तरंगमालाक समान अछि।
३६. श्री रामजीक गुणक समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाइल और कलियुग केर कपट, दम्भ और पाखण्ड केँ जरेबाक लेल ओहिना अछि जेना ईंधन लेल प्रचण्ड अग्नि।
३७. रामचरित्र पूर्णिमाक चन्द्रमाक किरण जेकाँ सब केँ सुख दयवाली लेकिन सज्जन रूपी कुमुदिनी आ चकोर केर चित्त लेल त विशेष हितकारी आ महान लाभदायक अछि।
३८. जाहि तरहें श्री पार्वतीजी श्री शिवजी सँ प्रश्न कयलीह आर जाहि तरहें श्री शिवजी विस्तार सँ हुनका उत्तर देलाह, ओहि सब कारणे हम विचित्र कथाक रचना कय केँ गाबिकय कहब।
३९. जे ई कथा पहिने नहि सुनने छी, ओ ई सुनिकय आश्चर्य नहि करब। जे ज्ञानी एहि विचित्र कथा केँ सुनैत अछि ओ ई जानिकय आश्चर्य नहि करैत अछि जे संसार मे रामकथाक कोनो सीमा नहि छैक, रामकथा अनंत अछि। हुनका लोकनिक मोन मे एहेन विश्वास रहैत छन्हि।
४०. नाना प्रकार सँ श्री रामचन्द्रजीक अवतार भेलनि अछि आर सौ करोड़ तथा अपार रामायण अछि। कल्पभेद केर अनुसार श्री हरिक सुन्दर चरित्र केँ मुनीश्वर लोकनि अनेकों प्रकार सँ गेलनि अछि। हृदय मे एना विचारिकय संदेह नहि करब आर आदर सहित प्रेम सँ ई कथा केँ सुनब।
४१. श्री रामचन्द्रजी अनन्त छथि, हुनक गुण सेहो अनन्त अछि और हुनकर कथा सभक विस्तार सेहो असीम अछि। अतएव जिनकर विचार निर्मल अछि, ओ एहि कथा केँ सुनिकय आश्चर्य नहि मानब। एहि तरहें सारा संदेह केँ दूर कय केँ आर श्री गुरुजीक चरणकमल केर रज केँ माथ पर धारण कय केँ हम पुनः हाथ जोड़ि सभक विनती करैत छी, जाहि सँ कथाक रचना मे कोनो दोष स्पर्श नहि कय पाबय।
हरिः हरः!!