साहित्य
– प्रवीण नारायण चौधरी
होली साखी
मन उदास आ खिन्न अवस्था
होली खूब मनेलहुँ,
मिलिजुलि साथी-संगत सब तैर
गीतो खूब जे गेलहुँ!
सोचैत रहलहुँ मनहि मन कि
होली के यैह थिक रीत,
भाँग-गाँजा आ दारू पीबि कय
गायब अनढन गीत!
बच्चे सँ जे देखलहुँ-सीखलहुँ
यैह बनल अछि आदैत,
नीक-निकुत खूब खाउ खुवाउ
होली भाव आ भागैत!
मगर मूल किछु आरे होली
मन भीतर ई सोची,
देखि व्यवहार सब लोकक उन्टा
माथ सदीखन नोची!
एहि ब्रह्माण्डक अधिपति ईश्वर
एकमात्र छथि स्वामी,
सतति जपू आ भजू प्रभु केँ
जिनगी सफल सुनामी!
पाबि कृपा आशीष कि वर सब
रहय पड़य अछि सीमा,
जँ नहि राखब रीत प्रकृतिक
बचा न सकत वर-बीमा!
होली थिक एक पर्व एहेन जे
नव ऊर्जा नव सोच दियए,
मारि दर्प आ झूठ हठी केँ
जीवन शुचिता लोच दियए!
भक्त भेला प्रह्लाद चलथि जे
रीत सदा ईश्वर केर,
पिता हुनक एक वीर तपस्वी
बिगड़ल बुद्धि-नजरि केर!
बुद्धि अपन ओ तीख चलाकय
मांगि लेलथि वरदान,
एना नै मरी ओना नै मरी
कोहुना मरय नहि जान!
एहि वरदान केँ पबिते हिरणा
बनि गेल वरं-बताह,
अपनहि नाम भजय कहि दुनिया
कहलक शक्ति अथाह!
पुनः पुत्र प्रह्लाद बुझाबथि
पिता धरू कने धीर,
शक्तिक सीमा केवल ईश्वर
मोन करू अहाँ थीर!
देखि पुत्र केँ हुकुम विरोधी
हिरणा कयलक चिन्ता,
रखलक मास्टर नियम सिखाबय
बिसरय ईशक सुरता!
मुदा भक्त प्रह्लाद एहेन जे
गुरुओजी केँ रिझाबथि,
मिलिजुलि असुर समाज देखू ओ
हरे राम हरे कृष्ण गाबथि!
देखि उल्लंघन राज्य हुकुमत
हिरणा भेल बताह,
अपनहि बेटा भगत प्रह्लाद केँ
यातना दियए अथाह!
जरत न होलिका आइग कदापि
तेहेन भेटल वरदान,
हिरणा भाइक कारण होलिका
जरि खकस्याह खरान!
भक्त प्रह्लादक सत्यक चिन्तन
सत्य स्थापित कयलक,
पिता हिरण्याकशिपुक दम्भ केँ
नरसिंह चूर कय देलक!
ओ नरसिंह छल स्वयं नारायण
शक्तिक परिचय देलनि,
हरा सकत नहि सत्य कियो से
सिद्ध समुच्चय केलनि!
एहि सुन्दर आख्यान-कथा के
होली पाबनि नाम,
सोचू आ देखू निज-निज वृत्ति
मंजिल अछि कुन गाम!
अछि कत हिरणा अपनो भीतर
मारू एहि शत्रू केँ,
तखन खेलाउ ई पावन होली
राखू नाम भक्ति केँ!
ई नहि कोनो थिक उपदेश
केवल ‘प्रवीण’ विचार,
मानय लेल सब छी स्वतंत्र
अछि अग्रिम आभार!!
हरिः हरः!!