महापुरुष लोकनिक महिमा आ हुनक सङ्ग केर फल

स्वाध्याय लेख

– अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी

सत्सङ्ग और कुसङ्ग

महापुरुष लोकनिक महिमा आ हुनक सङ्ग केर फल

– जयदयाल जी गोयन्दका (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)
जाहि तरहें भगवानक महान आदर्श चरित्र आ गुण सभक महिमा अनिवर्वचनीय अछि, तहिना भगवत्प्राप्त संत महापुरुष लोकनिक पवित्रतम चरित्र और गुण सभक महिमाक कियो वर्णन नहि कय सकैत अछि। एहेन महापुरुष लोकनि मे समता, शान्ति, ज्ञान, स्वार्थत्याग और सौहार्द आदि पवित्र गुण अतिशयरूप मे भरल रहैत छन्हि, एहि सँ एहेन पुरुष लोकनिक सङ्ग केर महिमा शास्त्र सब मे गायल गेल अछि। श्रीतुलसीदासजी महाराज कहैत छथि –
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
ठीक यैह भाव श्रीमद्भागवतक एहि श्लोक मे छैक –
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत्संगिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिषः॥१/१८/१३॥
‘भगवत्सङ्गी अर्थात् नित्य भगवानक संग रहयवला अनन्य प्रेमी भक्त सभक निमेषमात्रहु केर सङ्ग सँ हम सब स्वर्ग आर मोक्ष केर सेहो समानता नहि कय सकैत छी, फेर मनुष्यक इच्छित पदार्थ आदिक त बाते कि अछि?’
भगवत्प्रेमी महापुरुष लोकनिक एक निमेषक सत्संगक संग स्वर्ग-मोक्ष केकरहु तुलना नहि होइछ – ई बात ओहि लोकक बुझय मे आबि सकैत अछि जे श्रद्धा आ प्रेमक संग नित्य सत्सङ्ग करैत अछि।
प्रथमतः एहि संसार मे एहेन महापुरुष छथिये बहुत कम। फेर हुनक भेंट होयब बहुत दुर्लभ होइछ आ जँ भेटियो जाइथ त चिन्हनाय अत्यन्त दुर्लभ अछि। तथापि जँ एहेन महापुरुष लोकनिक कोनो तरहें भेंट भऽ जाय त हुनका सँ अपन-अपन भाव मुताबिक लाभ अवश्य होइत छैक; कियैक त हुनकर भेटनाय अमोघ अछि। श्रीनारदजी भक्तिसूत्र मे कहलनि अछि –
‘महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च।’ (नारद. सू. ३९)
‘महात्मा लोकनिक सङ्ग दुर्लभ, अगम्य आ अमोघ अछि।’
अपन-अपन भाव अनुसार लाभ केना होइत अछि? एहिपर एक कल्पित दृष्टान्त अछि –
दुइ ब्राह्मण कोनो जंगलक मार्ग सँ जा रहल रहथि। दुनू अग्निहोत्री रहथि। एक गोटे सकामभाव सँ अग्निक उपासना करयवला छलाह, दोसर निष्कामभाव सँ। रस्ता मे बड़ा जोरगर अन्हर-तूफान आ वर्षा आबि गेल। थोड़बे दूरी पर एक टा धर्मशाला छल। ओ दुनू कोनो तरहें धर्मशाला मे पहुँचलाह। अन्हार राति छल आ जाड़क दिन छल। धर्मशाला मे आरो लोक सब रुकल छलाह आर ओ सब प्रायः सर्दी सँ ठिठुरि रहल छलाह। धर्मशाला मे आर सब चीज छल, मुदा आइगक कतहु पता नहि लागि रहल छल, नहिये केकरो लग सलाइये छलय ओतय। ओ दुनू ब्राह्मण सज्जन ओतय आइग ताकय लगलाह। हुनका सब केँ एकटा कोठलीक बगल मे बैसल किछु लोक कहलकनि जे ओहि ठाम हुनका सब केँ कोनो जाड़ नहि लागि रहल छलन्हि, पता नहि कतय सँ कोन चीजक गरमी आबि रहल छलैक। ओ दुनू गोटे जखन ओहि कोठली केँ खोललनि त देखला जे ओहिठाम छाउर के भीतर आगि छल। एहि आइगक गर्मी सँ ओ कोठली गर्म छल, बाकी सम्पूर्ण धर्मशाला मे सर्दी व्याप्त छल। जखन आइगक पता लागि गेल त सब कियो प्रसन्न भऽ गेलाह। पहिने सँ रुकल जाहि लोक केँ आइग मे श्रद्धा नहि छल आर जे मात्र आइग सँ इजोत एवं भोजन पकेबाक काज मात्र के अपेक्षा रखैत छलाह ओ लोकनि ओहि सँ यैह दुइ काज कयलथि। एम्हर ई दुनू अग्निहोत्री ब्राह्मण जिनक आइगक ज्ञानक संग ओहिमे अपार श्रद्धा सेहो छलन्हि, ओ सब इजोत आ खाना त पकेबे कयलनि, संगहि अग्निहोत्र कर्मकांड सेहो कयलथि। एहि मे जे सकामभाव वला छलाह ओ सकामभाव सँ अग्निहोत्र कय केँ लौकिक कामना – सिद्धिरूप सिद्धि प्राप्त कयलथि आर जे निष्कामभाव वला छलाह ओ अपन निष्कामभाव सँ अग्निहोत्र कय केँ अन्तःकरण केर शुद्धिक द्वारा परमात्मा प्रति – विषयक परम लाभ उठौलनि। एहि तरहें जिनका आइगिक ज्ञान तक नहि छलन्हि ओहो सब आइगक स्वभाववश ओकर नजदीक रहबाक कारण गर्मी प्राप्त कयलनि, जिनका ज्ञान छलन्हि मुदा श्रद्धा नहि रहनि ओ सब मात्र इजोत आ भोजन बनेबाक लाभ उठौलनि। ज्ञान-श्रद्धाक संग सकामभाव सँ अग्निहोत्र कयनिहार सकाम-सिद्धि प्राप्त कयलनि आर निष्कामी पुरुष परमात्मविषयक लाभ उठौलनि। एहि तरहें जँ कोनो महापुरुष केर संग भऽ जाय आ हुनका चिन्हलो नहि जा सकय तैयो हुनक स्वाभाविक तेज सँ पापरूपी ठंढक केर तँ नाश होइते टा छैक। जे लोकनि महात्मा लोकनिक कोनो अंश मात्र मे जनैत छथि आ हुनका सँ क्षणिक लाभ टा उठबय चाहैत छथि हुनका साधारण क्षणिक लाभ भेटि जाइत छन्हि। जिनका मे श्रद्धा छन्हि आ संगहि सकामभाव छन्हि ओ हुनक संग कय केँ एहि लोक आ परलोक केर भोग सब केँ प्राप्ति रूप वैषयिक लाभ प्राप्त करैत छथि। आर, जे हुनका खूब नीक जेकाँ चिन्हिकय श्रद्धाक संग निष्कामभाव सँ हुनक संग करैत छथि, ओ परमात्माप्राप्तिविषयक लाभ उठबैत छथि। एहि तरहें महात्माक अमोघ संग सँ लाभ सब केँ होइत छैक, मुदा होइत छैक अपन-अपन भावनाक अनुसार।
महात्मा पुरुष लोकनिक शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि मायिक होइत छन्हि लेकिन परमात्माक प्राप्तिक प्रभाव सँ ओ साधारण मनुष्य सभक अपेक्षा पवित्र, विलक्षण और दिव्य भऽ जाइत छथि, अतएव हुनक दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप सँ त लाभ होइते छैक, मन केर द्वारा हुनक स्मरण कयलो सँ बड पैघ लाभ होइत छैक। जखन एक कामिनीक दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन सँ कामी पुरुष केर हृदय मे काम केर प्रादुर्भाव भऽ जाइत छैक, तखन भगवत्प्राप्त महापुरुष केर दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन सँ साधकक हृदय मे तऽ भगवत्भाव और ज्ञानक प्रादुर्भाव अवश्य होयबाके टा चाही।
एहेन महापुरुष लोकनिक हृदय मे दिव्यगुण सभक अपार शक्ति सम्पन्न समूह भरल रहैत छैक जेकर दिव्य बलशाली परमाणु नेत्रमार्ग सँ निरन्तर बाहर निकलैत रहैत छैक और दूर-दूर धरि जाय केँ जड़-चेतन सब पर अपन प्रभाव दैत रहैत छैक। मनुष्य पर त हुनका लोकनिक अपन-अपन भाव अनुसार न्यूनाधिक रूप मे प्रभाव पड़िते छैक, विविध पशु-पक्षी तथा जड़ आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वृक्ष, पाषाण, काष्ठ, घास, आदि पदार्थहु धरि पर असर पड़ैत छैक, ताहि सब मे सेहो भगवत्भाव केर पवित्र परमाणु प्रवेश कय जाइत अछि। एहेन महात्मा जाहि कोनो पशु-पक्षी केँ देखि लैत छथि, जाहि कोनो वायुमण्डल मे रहैत छथि, जे वायु हुनका लोकनिक शरीर केँ स्पर्श कय केँ जाइत अछि, जाहि अग्नि सँ ओ अग्निहोत्र करैत छथि, भोजन बनबैत वा तापैत छथि, जाहि सरोवर या नदी मे स्नान-पान करैत छथि, जाहि भूमि पर निवास करैत छथि, जाहि वृक्षक कोनो तरहें उपयोग करैत छथि, जाहि पाषाण-खंड केँ स्पर्श कय लैत छथि, जाहि चौकी पर बैसि जाइत छथि और जाहि तृणाङ्कुर पर अपन पैर राखि दैत छथि, ताहि सब मे भगवत्भाव केर परमाणु न्यूनाधिक रूप मे स्थित भऽ गेल करैत छैक; तथा एहि वस्तु केँ जे काज मे लगायल जाइछ, या फेर जेकरा-जेकरा एहि सभक संसर्ग प्राप्त भेल करैत अछि ओकरो सब केँ बिना चिन्हनहियो-बुझनहियो सद्भाव केर प्राप्तिक लाभ भेल करैत छैक। जेकरा मे श्रद्धा, ज्ञान तथा प्रेम होइत अछि ओकरा यथापात्र विशेष लाभ भेल करैत अछि।
एहेन महात्मा लोकनिक वाणी सँ सेहो लोकक हृदगत् भाव सभक विकास होइत छैक, एहि सँ ओकर सुनयवला पर यथाधिकार – जे जेहेन पात्र होइत अछि तदनुसार प्रभाव पड़िते टा छैक, संगहि ओ वाणी नित्य हेबाक कारण सम्पूर्ण आकाश मे व्याप्त भ’ कय स्थित भऽ गेल करैछ तथा जगत केर प्राणी सभक सदा सहजहि मंगल कयल करैत अछि। जतय हुनका लोकनिक वाणीक प्रथम प्रादुर्भाव होइछ, ओ स्थान आ ओतुका वायुमण्डल विशेष प्रभावोत्पादक बनि गेल करैछ। एहि तरहें हुनका सभक शरीरक स्पर्श कयलो पर लाभ होइत अछि। भाव केर परमाणु एकदम सूक्ष्म होइत छैक जाहि सँ लोक केँ प्रत्यक्ष प्रतीति (अनुभूति) नहि होइछ मुदा ओ ओहिना सद्भावक प्रसार करैत छैक जेना प्लेग केर कीटाणु रोग केर विस्तार करैत छैक।
एहेन महापुरुष लोकनिक प्रत्येक क्रिया सर्वोत्तम दिव्य चरित्र, गुण एवं भाव सँ ओतप्रोत रहैत छैक; अतएव हुनक चिन्तन मात्र सँ – स्मृति मात्र सँ हुनक चरित्र, गुण आ भाव केर प्रभाव दोसरक हृदय पर पड़ैत छैक। नाम केर स्मृति अबिते नामी केर स्वरूप केर स्मरण भेल करैत छैक, स्वरूपक स्मरण सँ सेहो क्रमशः चरित्र, गुण आर भाव केर स्मृति भऽ जाइत छैक जे हृदय केँ वैह भाव सब सँ भरिकय पवित्र बना दैत छैक। वस्तुतः महापुरुष लोकनिक मानसिक संग बहुत लाभदायक होइत छैक; चाहे महात्मा कोनो साधकक स्मरण कय लेथि अथवा साधक कोनो महात्माक स्मरण कय लेथि। आइग घास पर पड़ि जाय या घास आइग पर पड़ि जाय, आइगिक संसर्ग ओकर घास स्वरूप केँ मेटाकय ओकरा तुरन्त आइगे बना देतैक। तहिना ज्ञानाग्नि सँ परिपूर्ण अधिकारी महात्माक संग सँ साधकक दुर्गुण, दुराचार तथा अज्ञान केर नाश भऽ जाइत छैक, चाहे ओ संसर्ग महात्माक द्वारा हो या फेर साधक केर द्वारा। महात्मा स्वयं आबिकय दर्शन देथि तखन त ओ प्रत्यक्षतः केवल श्रीभगवानक अपार कृपा मात्र केर फल भेल, आ जँ यदि साधक अपन प्रयत्न सँ महात्मा सँ भेटय त एहि सँ साधकक अन्तःकरण मे शुभ संस्कार अवश्य सिद्ध होइत छैक, कियैक त शुभ संस्कार भेने बिना महात्मा सँ भेटबाक इच्छा या चेष्टा कियै हुए लागत, तथापि एहि मे प्रधान कारण भगवान मात्र केर कृपा थिक –
‘बिनु हरि कृपा मिलहि नहि सन्ता॥’
एहि संसार मे जतेक तीर्थ छैक ओ सबटा केवल दुइये गोटे केर सम्बन्ध सँ बनल छैक, श्रीभगवान केर कोनो स्वरूप या अवतार केर प्राकट्य निवास, लीला-चरित्र आदिक भेला सँ, आर दोसर – महापुरुष लोकनिक निवास, तप, साधन, प्रवचन या समाधि आदिक भेला सँ। देशगत नीक परमाणु सभक प्रमाण प्रत्यक्ष अछि। आइयो जे लोक घर छोड़िकय पवित्र तीर्थ या तपोभूमि आदि मे निवास करैत छथि हुनका अपन-अपन श्रद्धा तथा भाव मुताबिक विशेष लाभ होइते टा छन्हि। एकर कारण यैह अछि जे उक्त भूमि, जल तथा वातावरण मे ईश्वरक लीला-चरित्र आदिक या महात्मा लोकनिक तपस्या, भक्ति, सदाचार, सद्गुण, सद्भाव, ज्ञान आदिक शक्तिशाली परमाणु व्याप्त अछि।
विशेष आ शीघ्र लाभ त ओ साधक प्राप्त करैत छथि जे ईश्वर एवं महापुरुष लोकनिक इच्छाक अनुसरण, आचरणक अनुकरण आर आज्ञाक पालन करैत छथि। जे भाग्यवान् पुरुष महापुरुष लोकनिक आज्ञाक प्रतीक्षा नहि कय केँ सब काज हुनकर रुचि व भाव अनुकूल करैत छथि हुनका पर भगवानक विशेष कृपा बुझबाक चाही। ओना त श्रेष्ठ पुरुष लोकनिक अनुकरण साधारण लोक कयले करैत अछि, ताहि लेल भगवान सेहो कहने छथि –
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥गीता ३ – २१॥
“श्रेष्ठ पुरुष सब जे-जे आचरण करैत छथि अन्य पुरुष सेहो ओहिना-ओहिना आचरण कयल करैत छथि। ओ लोकन (श्रेष्ठ लोकनि) जे किछु प्रमाण कय देल करैत छथिन, सम्पूर्ण मनुष्य समुदाय ताहि अनुसार बरतब (व्यवहार करब) शुरू कय देल करैछ।”
मुदा जे श्रद्धा-विश्वासपूर्वक महापुरुष लोकनिक चरित्रक अनुकरण और हुनका सभक द्वारा निर्णीत मार्गक अनुसरण करैत छथि ओ विशेष लाभ प्राप्त करैत छथि।
एहि तरहें भगवान और महात्मा सभक चरित्र, उपदेश, ज्ञान, महत्व, तत्त्व, रहस्य आदिक बात जाहि ग्रन्थ सब मे लिखित अछि, महात्मा लोकनि एवं भगवान (देवी-देवता लोकनिक) चित्र जाहि देबाल या कागज सब मे अंकित अछि; एतय तक जे महात्मा लोकनि आ भगवानक स्मृति दियाबयवला जे-जे वस्तु अछि – ताहि सभक संग सेहो सत्सङ्गहि थिक तथा श्रद्धा-विश्वास केर अनुसार सब केँ लाभ पहुँचाबयवला थिक। जाहि तरहें स्वाभाविकहि मध्याह्नकाल केर सूर्य सँ प्रखर प्रकाश, पूर्णिमाक चन्द्रमाक ज्योत्सना सँ अमृत एवं अग्नि सँ उष्णताक प्राप्ति होइत अछि, तहिना महात्मा पुरुष लोकनिक संग सँ स्वाभाविकहि ज्ञान केर प्रकाश, शान्ति केर सुधा-धारा एवं साधन मे तीक्ष्णता और उत्तेजना प्राप्त होइत अछि।
एहि कारण सब केँ चाही जे अपन इन्द्रिय केँ, मन केँ, बुद्धि केँ नित्य-निरन्तर महापुरुष लोकनिक संग मे और वैह विषय सब मे लगाबय जे भगवान तथा महापुरुष लोकनिक संसर्ग या सम्बन्ध सँ भगवद्भाव-संपन्न भऽ चुकल हो। एना कयलापर हुनका सर्वत्र तथा सर्वदा सत्सङ्गहि भेटैत रहत।
उपर्युक्त विवेचन श्रीभगवान एवं सच्चा अधिकारी महापुरुष लोकनिक सम्बन्ध मे अछि। एहेन महापुरुष कियो विरले भेल करैत छथि। एहि सिद्धान्त केर दुरुपयोग कय केँ जे दुराचारी लोक शास्त्र तथा भगवानक खण्डन करैत दम्भपूर्वक स्वयं अपना केँ भगवान अथवा महापुरुष कहिकय अपनहि कल्पित मिथ्या नाम केर जप-कीर्तन करबाबैत अछि, अपन नश्वर शरीर केँ पूजबाबैत अछि, लोक सब केँ अपन उच्छिष्ट, अपन चरणक धूलि एवं चरणामृत दैत अछि, अपन चित्र केर ध्यान करबाबैत अछि, आर एहि तरहें जनता केँ धोखा दय केँ स्वार्ध सिद्ध करैत अछि, ओ सब वस्तुतः बड पैघ पाप करैत अछि। एहेन लोक केँ महापुरुष माननाय बड़को सँ बड़का धोखा मे पड़ब थिक तथा एहेन लोक केर संग करनाय बड़का सँ बड़का कुसंग थिक।
असल मे ई एक सिद्धान्त अछि जे जाहि तरहक भाव वाला पुरुष केर संसर्ग जाहि मात्रा मे चेतनाचेतन पदार्थ सब केँ प्राप्त होइत अछि ताहि प्रकारक भाव केर ताहि मात्रा मे न्यूनाधिक रूप सँ ओहि मे प्रवेश होइत अछि और ई प्रवेश जेना महात्मा लोकनिक भावक होइत छैक तहिना दुरात्मा लोकनिक भावक सेहो भेल करैत छैक। महात्मा लोकनिक भावक जेना सच्चा श्रद्धालू व्यक्तिक ऊपर तथा सात्विक पदार्थ सब पर विशेष प्रभाव पड़ैत छैक, तहिना दुराचारी लोकनिक भाव केर दुराचारपरायण व्यक्ति लोकनि पर एवं राजस-तामस पदार्थ सब पर विशेष प्रभाव पड़ैत छैक। तेँ आब एतय कुसङ्ग केर फल पर संछेप मे विचार कयल जा रहल अछि।
दुराचारी पुरुष और दुराचारी लोकनिक कुसङ्गक फल
जेना सत्सङ्ग सँ बहुत नीक प्रभाव पड़ैत छैक तहिना कुसङ्ग सँ खराब प्रभाव पड़ैत अछि। भगवद्भाव सँ रहित नास्तिक, विषयी, पामर, आलसी, प्रमादी और दुराचारी व्यक्ति लोकनिक संग तँ प्रत्यक्ष हानिकारक और पतन करयवला अछिये, एहि तरहक लोकक संसर्ग मे आयल मनुष्य, पशु-पक्षी और जड़ पदार्थ तक केर संसर्ग पर्यन्त हानिकारक अछि। जे लोक गन्दा नाटक-सिनेमा देखैत अछि, रेडियो केर श्रृंगारपरक गन्दा गाना तथा वार्तालाप सुनैत अछि, घर मे ग्रामोफोन आदि पर गन्दा रेकर्डेड गीत चढाकय सुनैत वा सुनबैत अछि, व्यभिचारी लोकनिक और अनाचारी लोकनिक मोहल्ला मे रहल करैत अछि और ओहेन लोकक संसर्ग मे आयल पदार्थ सभक सेवन करैत अछि, ओकरो सबपर खराब असर पड़ल करैत छैक एवं जे लोक मोह अथवा स्वार्थवश एहेन लोकक सेवन, सङ्ग तथा अनुकरण करैत अछि, ओकर तऽ – इच्छा नहियो भेलापर – शीघ्र पतन भऽ गेल करैत छैक। सङ्ग के रङ्ग चढने बिना नहि रहैछ। एक आदमी जुआ खेलेनाय खराब बुझैत अछि, चोरी-डकैती केँ पाप मानैत अछि, शराब सँ दूर रहय चाहैत अछि, अनाचार-व्यभिचार केर बातो नहि सुनय चाहैत अछि, ओहनो व्यक्ति जँ एहेन लोकक गिरोह मे कोनो कारण सँ सम्मिलित होबय लगैत अछि आर जँ ओकरा अनिष्टकर मानिकय जल्दिये छोड़ि नहि दैत अछि त किछुए समय मे ओहि सङ्गदोष केर कारण पहिने ओहि कुकर्म मे ओकर घृणा कम होइत छैक; फेर घृणाक नाश भऽ जाइत छैक, तदनन्तर ओकरो सब मे वैह प्रवृत्ति हुए लगैत छैक आर अन्त मे ओहो सब प्रायः ओहिना बनि गेल करैत अछि। एकर अनेकों उदाहरण हमरा लोकनिक सामने अछि।
कामी व्यक्तिक संग सँ काम केर, क्रोधी व्यक्तिक संग सँ क्रोध केर और लोभीक संग सँ लोभ केर प्रकट भेनाय या बढनाय और तदनुसार क्रिया करबा देनाय स्वाभाविक होइत छैक। काम-क्रोध-लोभ जेकरा मे उत्पन्न भऽ कय बढि जाइत छैक ओकर पतन अवश्यम्भावी अछि। भगवान एहि सब केँ नरक केर द्वारा और आत्माक पतन करयवला कहने छथि। गीता – १६/२१। सङ्गदोष सँ चरित्र खराब भऽ जाइछ, खानपान भ्रष्ट भऽ जाइछ और मन तथा आचरण दुनू मे नाना प्रकार केर दोष आबिकय दृढ़ताक संग अपन डेरा जमा लेल करैत अछि। ताहि सँ शास्त्र द्वारा अमुक-अमुक स्थिति सब केँ तथा अमुक-अमुक काज करयवला लोक केर संसर्ग सँ बचय लेल आज्ञा देने अछि, एतय धरि जे ओहि सब केँ स्पर्श करय तक केँ निषेध कएने अछि। एहि मे प्रसूतिक और रजस्वला अवस्था मे पूजनीया माता, प्रियतमा पत्नी तथा अपनहि शरीर सँ उत्पन्न पुत्री तक केर स्पर्श केर निषेध कयल गेल अछि। आइयो विशेषज्ञ डाक्टर सब कोनो संक्रामक रोग सँ पीड़ित रोगी केँ छूबिकय हाथ धोयल करैत छथि आर कोनो अंश मे एहि सिद्धान्त केँ स्वीकार करैत छथि। ई वैज्ञानिक तत्त्व थिक। अपन परम विज्ञ ऋषि-मुनि दीर्घदृष्टि और सूक्ष्मदृष्टि सँ सम्पन्न छलाह। प्रत्येक वस्तुक परिणाम केँ जनैत छलाह, ताहि सँ ओ सब स्पर्शास्पर्शक विधिक निर्दोष निर्माण कएने रहथि। ई केवल सङ्गदोष सँ बचय लेल छल नहि कि कोनो जाति अथवा व्यक्ति विशेष सँ घृणा करय लेल।
दुराचारी नर-नारी लोकनिक संग केर खराब असर होइते अछि, पशु-पक्षी सभक अश्लील क्रिया, चित्र लिखल अश्लील दृश्य, समाचार पत्र सब मे प्रकाशित नारी सभक चित्र, केकरो अश्लील व घृणित बर्ताव व क्रिया सभक वर्णन देखय-सुनय और पढ़य सँ चित्त मे अश्लील तथा असद्भावक जागृति भऽ जाइत अछि। एहि तत्त्व केँ बुझिकय मनुष्य केँ सब प्रकारक कुसङ्ग केर सर्वथा त्याग कय देबाक चाही। श्रीरामचरितमानस मे कहल गेल अछि –
बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देहि विधाता ॥
नरक मे रहिकय ओतुका यंत्रणा भोगब नीक मुदा विधाता कतहु खराब संग नहि देथि। क्षणहु भरिक खराब संग मनुष्य केँ नीचाँ खसबयवला होइत अछि।
हरिः हरः!!