एकाग्रता कोना साधब: विनोबा भावे

आलेख (भावानुवाद)

– प्रवीण नारायण चौधरी

vinobaसंसार भरिक वेत्ता लोकनि श्रीमद्भागवद्गीता केँ अध्ययन-मनन आ तदनुसार प्रवचन करैत रहला अछि। एहि पाँति मे आचार्य विनोबा भावे केर स्थान अग्रस्थान मे पड़ैत अछि। हिनक रचना ‘गीता-प्रवचन’ केर एकटा अलगे महिमामंडन इतिहास द्वारा कैल जाइछ आ जे कियो हिनक एहि अमर रचना केर रसास्वादन करैत छथि हुनको जीवन मे बड पैघ उपलब्धि भेटब तय अछि।

भारतक स्वाधीनता संग्राम मे भागीदारीक कारण सजाक तौर पर तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत आचार्य विनोबा केँ धुलिया (महाराष्ट्र) जेल मे कैद केने छल। बात सन् १९३२ केर थीक। ओहि अवधि मे कार्यकर्ता-सह-कैदीक निवेदन केँ स्वीकार करैत विनोबा हरेक रवि दिन ‘गीता’ केर अठारहो अध्याय पर अपन गहन चिन्तन प्रकट करैत छलाह, ताहि क्रम मे जे प्रवचन केलनि, तेकरे एक अन्य राष्ट्रभक्त साने गुरुजी लिपिबद्ध कय लेलनि। मूल मराठी भाषा मे कैल गेल यैह प्रवचनक प्रसाद थीक – गीता-प्रवचन।

गीताकेँ मानव-आत्माक अमर संगीत कहल गेल छैक। ओहि गूढ-गम्भीर शास्त्रीय संगीतकेँ जन‍-सुलभ, जन-मंगलकारी रूप मे प्रस्तुत करैत आचार्य विनोबा मानव-समाज केँ एकटा अनमोल निधि उपहार देलनि जाहि सँ मानव-मनकेँ आरोहणक उत्प्रेरणा आ दिशा पीढी-दर-पीढी भेटैत रहत। (संयोजक-प्रकाशक: सर्व सेवा संघ केर शब्द मे)

आउ, यैह प्रवचन मे सँ एकटा अंश ‘एकाग्रता कोना साधब’ तेकरा आइ स्वाध्याय मे समेटैत ‘मैथिली जिन्दाबाद’ पर प्रकाशित करी: गीताक छठम् अध्याय मे भगवान् कृष्ण अर्जुन सँ ध्यान योग केर व्याख्या करैत छथि। ‘अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥’ – “ओ जे निहित नित्य कर्म बिना कर्मफल सँ आसक्त भेने करैत अछि वैह संन्यासी थीक, वैह योगी थीक; ओ नहि जे अग्नि बिना अछि वा ओहो नहि जे बिना क्रिया केने अछि।” एहि महान उक्ति सँ शुरु करैत जगद्गुरु कृष्ण मनुष्यक कर्म-अकर्म सब गतिक व्याख्या करैत चित्त केर एकाग्रता समान गूढ विषय केँ छूबैत छथि।

ओ कहैत छथि जे ध्यान योग मे तीन टा बात मुख्य अछि: १. चित्त केर एकाग्रता, २. चित्त केर एकाग्रताक लेल उपयुक्त जीवनक परिमितता, आ ३. साम्यदशा या समदृष्टि। चित्तक एकाग्रताक समग्र माने चित्त केर चंचलता पर अंकुश सँ होइत छैक। जीवनक परिमितताक अर्थ समस्त क्रियाक संतुलन सँ होइछ आ समदृष्टिक अर्थ विश्व केँ देखबाक उदार दृष्टि सँ होइछ। एकाग्रता विषय पर आजुक लेख केँ केन्द्रित रहबाक अछि।

एकाग्रता कोना साधब?

एकाग्रता तऽ चाही, मुदा ओ होयत कोना? ओकरा लेल कि करबाक चाही? भगवान् कहैत छथि, आत्मामे मनकेँ स्थिर करैत – न किञ्चिदपि चिन्तयेत् – अन्य किछुओ पर चिंतन नहि करू।

परंतु ई साधल कोना जायत? मनकेँ एकदम शांत करब बड महत्त्वक बात होइछ। विचारक चक्रकेँ जोरसँ रोकने बिना एकाग्रता होयत कोना? बाहरी चक्र केँ तऽ कोनो तरहें रोकियो लेल जाय, मुदा भीतरी चक्र तऽ चलिते रहैत अछि। चित्त केर एकाग्रताक लेल ई बाहरी साधन जेना-जेना काज मे आनब, तहिना-तहिना भीतरका चक्र आरो बेसी गति सँ चलय लगैत अछि। अहाँ आसन जमाउ, तानिकय बैसि जाउ, आँखि स्थिर कय लेल जाउ… मुदा ई सब केला सँ मन एकाग्र नहि होयत। मुख्य बात यैह जे मनक चक्र बंद करबाक साधना चाही।

बात एहेन अछि जे बाहरक ई अपरंपार संसार, जे हमरा लोकनिक मन मे भरल रहैत अछि, ओकरा खाली केने बिना एकाग्रताक साधब अशक्य अछि। अपन आत्माक अपार ज्ञान-शक्ति हम बाह्य क्षुद्र बात सब मे खर्च कय दैत छी, लेकिन एना नहि हेबाक चाही। जेना दोरकेँ नहि लूटैत स्वयं अपन प्रयत्न सँ धनी बननिहार पुरुष आवश्यकताक बिना खर्च नहि करैत अछि, तहिना हम सब अपन आत्माक ज्ञान-शक्ति क्षुद्र बातक चिन्तन मे खर्च नहि करी। ई ज्ञान-शक्ति हमरा लोकनिक अनमोल थाती थीक, मुदा हम सब एकरा स्थूल विषय मे खर्च कय दैत छी। ई साग नीक नहि बनल, एहि मे नून कम पड़ल! अरे भाइ! कतेक रत्ती नून कम पड़ल? नून कनेक कम पड़ि गेल, एहने महान् विचार सब मे हमरा लोकनिक ज्ञान खर्च भऽ जाइत अछि! धिया-पुताकेँ पाठशालाक छहरदेवालीक भितरे पढबैत छी, कहल जाइछ जे गाछक नीचाँ पढायब तऽ बच्चाक दिमाग पढाई मे कम लागत, कौआ-चिड़ियाँ बेसी देखत, ओकरा सबहक मन एकाग्र नहि भऽ पायत! जँ कौआ-चिड़ियाँ नहि देखत तऽ मन एकाग्र कय लेत! हम सब भऽ गेल छी घोड़ा! हमरा सबहक आब सींग सेहो निकैल गेल अछि! हमरा सात-सात टा देवालक भितरो जँ कियो बंद कयने अछि, तखनहु हमरा लोकनिक मन एकाग्रता प्राप्त नहि कय पबैत अछि। कियैक तँ, दुनियाक फालतू बातक चर्चा हम ओतहु करब। जे ज्ञान परमेश्वरक प्राप्ति करा सकैत अछि, ओकरा हम सब साग‍-सब्जीक स्वाद केर चर्चा मे खर्च करैत नुकसान कय दैत छी आर ओही मे तृप्त-कृतार्थ रहैत छी!

दिन-राति एहेन भयान संसार चारू कात, भीतर-बाहर धू-धू करैत रहैत अछि। प्रार्थना अथवा भजन करबा मे पर्यन्त कारण बाहरिये रहैत अछि। परमेश्वर सँ तन्मय भाव एको क्षण लेल हो तऽ संसार बिसरा जायत! लेकिन ई भावना रहिते नहि अछि। प्रार्थना सेहो एकटा देखाबा होइत अछि। जतय मनक एहन स्थिति हो, ओतय आसन जमाकय बैसला सँ वा आँखि मूँदि लेला सँ कि होयत, सब ब्यर्थे टा! मनक दौड़ सदा बाहर दिशि रहला सँ मनुष्यक संपूर्ण सामर्थ्य नष्ट होइत अछि। कोनो प्रकारक व्यवस्था, नियंत्रण-शक्ति मनुष्य मे नहि रहि जाइत अछि। एकर अनुभव आइ हमरा सबहक देश मे डेग-डेगपर भऽ रहल अछि। वास्तवमे भारतवर्ष तऽ परमार्थ भूमि थीक। एहि ठामक लोक तऽ पूर्वहि सँ ऊँच हवामे उड़निहार बुझल जाइत छथि, मुदा एहेन देश मे हमरा-अहाँक कोन दशा अछि? छोट-छोट बात केँ एतेक बारीकी सँ चर्चा करैत छी जेकरा देखिकय दु:ख होइत अछि। क्षुद्र विषय मे अपन चित्त डूबल रहैत अछि।

कथा पुराण मे आबि गेलौं, झपकी आयल ठाम!

खटिया बिछि गेल नींद लय, चिंता सतबय गाम!!

एहने गहन अछि कर्मगति, केना कऽ चलतय काम!!

एक दिशि शून्याग्रता, तऽ दोसर दिशि अनेकाग्रता! एकाग्रताक कतहु पता नहि अछि। मनुष्य इन्द्रिय केर गुलाम अछि। एक बेर कियो पूछलक – “आँखि अर्धोन्मीलित रखबाक चाही, ई कियैक कहल गेल अछि?” हम कहलियैक – “सीधा-सादा उत्तर दैत छी। आँखि पूरा मुनि लेब, तऽ नींद आबि जायत। खुजले राखब, तऽ चारू कात दृष्टि जायत आ एकाग्रता नहि भेटत। आँखि मुनला सँ नींद अबैत छैक जे तमोगुण भेल। खुजल रहला सँ दृष्टि सब ठाम जायत, ई रजोगुण भेल। ताहि हेतु बीचक स्थिति कहल गेल अछि।”

तात्पर्य ई भेल जे मनक बैठक बदलने बिना एकाग्रता नहि भऽ सकैत अछि। मनक स्थिति शुद्ध हेबाक चाही। केवल आसन जमा लेला सँ ई प्राप्त नहि होयत। एकरा लेल हमरा सबकेँ व्यवहार शुद्ध बनय पड़त। व्यवहार शुद्ध बनबाक लेल ओकर उद्देश्य बदलय पड़त। व्यवहार व्यक्तिगत लाभक लेल, वासना-तृप्तिक लेल अथवा बाहरी बातक लेल नहि करबाक चाही।

व्यवहा तऽ हम दिन भैर करैत रहैत छी। आखिर दिनभरिक एहि खटपट केर हेतु कि छैक? ई समस्त परिश्रम यैह लेल तऽ केलहुँ जे अंत मे समय सुन्दर हो। सब खटपट, सब दौड़-धूप यैह लेल न जे हमरा अंतिम दिवस नीक हो? जिंदगी भैर कड़ुआ विखे कियैक पचबैत छी? यैह लेल जे अंतिम घड़ी, मृत्यु, पवित्र हो। जेना दिनक अंतिम घड़ी सांझ खन अबैत छैक। आजुक दिनक सब काज यदि पवित्र भाव सँ केने होयब, तऽ राति लेल प्रार्थना सुन्दर होयत। वैह दिनक अंतिम क्षण जँ मधुर भऽ गेल, तऽ दिनक सबटा कैल काज केँ सफल भेल बुझब। तखन मन एकाग्र भऽ जायत।

एकाग्रताक लेल एहेन जीवन-शुद्धि आवश्यक अचि। बाह्य वस्तुक चिंतन छूटबाक चाही। मनुष्यक आयु बहुते नहि अचि। मुदा यैह थोड़-बहुत आयु मे सेहो परमेश्वरीय सुखक अनुभव लेबाक सामर्थ्य अछि। दु गोटा लोक एक्के साँचा मे ढलैत बनायल गेला, एक्कहि छापो लागल, दुइ आँखि, ताहि बीच एक नाक आ ओहि नाक मे दुइ नासापुट। एहि तरहें बिलकुल एक समान होइतो एक गोटा देव-तुल्य होइत अछि, तऽ दोसर गोटे पशु-तुल्य। एना कियैक होइत अछि? एक्कहि परमेश्वरक बाल-बच्चा छी – ‘सब कियो एक्कहि खानिके’ – तऽ फेर ई फर्क कियैक पड़ैत अछि? दुनू एक्के मनुष्यजातिक थीक, ई विश्वास नहि होइत अछि। एक नर केर नारायण बनैत अछि तऽ दोसर नरकेर बानर!

मनुष्य कतेक ऊँच उठि सकैत अछि, एकर नमूना देखाबयवला लोक पहिलो भऽ गेल छथि, आइयो हमरा सबहक बीच मे छथि। ई अनुभवक बात थिकैक। एहि नर-शरीर मे कतेक शक्ति छैक, ई देखाबयवला संत पहिलो भऽ गेल छथि, आइयो छथि। एहि देह मे रहिकय मनुष्य यदि एहेन महान् कार्य कय सकैत अछि, तऽ फेर भले हम सेहो कियैक नहि कय सकब? हम अपन कल्पना केँ मर्यादा मे कियैक बान्हि ली? जेहि नर-देहमे रहिकय दोसर नर-वीर बनि गेल, वैह नर-देह हमरो भेटल अछि, फेर हम एहेन कियैक? कतहु-न-कतहु हमरा सँ भूल भऽ रहल अछि। हमर ई चित्त सदिखन बाहर जाइत रहैत अछि। दोसराक गुण-दोष देखय मे ई बहुत आगू बढि गेल अछि। मुदा हमरा दोसराक गुण-दोष देखबाक जरुरते कि अछि? कि हमरा स्वयं दोष कम अछि? यदि हम सदैव दोसराक छोट-छोट बात देखय मे लागल रहब, तऽ फेर हमर चित्तक एकाग्रता कोन सधत? ओहि दशा मे हमर स्थिति दुइ तरहक भऽ सकैत अछि। एक तऽ शून्य अवस्था अर्थात् नींद, आ दोसर अनेकाग्रता। तमोगुण और रजोगुण मे हम उलझल रहब।

भगवान् चित्तक एकाग्रताक लेल एना बैसू, एना आँखि राखू, एहेन आसन जमाउ आदि सूचना नहि देलनि अछि, सेहो बात नहि छैक। एहि अध्याय मे शरीरक अवस्था पर सेहो प्रकाश देल गेल अछि, मुदा सबसँ पहिने आ अन्तो तक ओहि सबहक लाभ केवल आ केवल तखनहि अछि जखन पहिने चित्तक एकाग्रताक हम कायल बनब। मनुष्यक चित्त मे पहिले ई जमि जेबाक चाही जे चित्तक एकाग्रता आवश्यक अछि, फेर तऽ मनुष्य स्वयं ओकर साधना आ मार्ग खोजि सकैत अछि।

अस्तु!