साहित्य
– अंजू झा
जन्म हमर सुनि सब हर्षित भेल। सब मूँह मिठ कैल बधाई देल।
मातु हमर अति पुलकित भेली, दादी चाची सोहर गेली।
बाबा, कका, भैया निहारैथ, नेहक झूला सदा झूलाबैथ।
पिता अपन गुमान बनेलैथ, शिक्षित सक्षम संतान बनेलैथ।
लेकिन जन्म अकारथ भेल, जखन उम्र विवाहक भेल।
बिवस पिता दहेज़ के आगू, बेटी योग्य वर कतय सं ताकू।
हृदय हमर चित्कार करैया, माँके नोर कखनो ने रुकैया।
पिता हमर व्याकुल छैथ, बेटीक बाप सकुचायल छैथ।
समाजक लोकसं भरल दलान, बढ़ल जतय पिता के मान।
अपना पर भेल बहुत गुरूर, जखन पिता सं बजला हमर ससुर।
बेटी मान छथि, सम्मान छथि, ईहो रवि, मयंक छथि।
बेटी पिता के मोनक बोझ नै, ने कोनो कलंक छैथ।
आहाँ कियैक दुखियारी छी, आहाँ दाता हम भिखारी छी।
मांग हमर आहाँ पूरा करू, दहेज़ के रूप में लक्ष्मी भेजू।
शौक मनोरथ पुराऊ जरूर, लेकिन ऋणक पाई संनै मंजूर
विनती हमर सबजन सुनू, समय बदलत, सोच के बदलू।
ज्यों दहेज़ के आगि में पुतौह नञिं जड़त, कोखि में बेटी कखनों नञिं मरत।
बेटा के बाप हृदय विचारू, बेटी बाप के ने जीते-जी मारू
बेटी दुर्गा काली लक्ष्मी रूपा, इंदिरा, किरण, सिंधु स्वरूपा
सब मिलजुल जे करब निश्चय, बांचत बेटी कोनो ने संसय।
युग युग सं चलि आयल रीत, एक घर कानन एक घर गीत
अहि कानब के गुमान बनाऊ, पुतौह नञिं, बेटी घर लाऊ।
दहेज़ मुक्त मिथिला अहि पावन मंचक ईयैह संकल्प
मांगरूपी दहेज़क प्रतिकारक सिवा ने एकर कोनो विकल्प।
अपना संग समाज के जगाऊ, दहेज़ विरोध में आवाज उठाऊ
बेटी जन्मक जश्न मनाऊऊ, लक्ष्मी जन्मक मान बढ़ाऊ।