मूल लेखकः श्री जयदयाल गोयन्दका
अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी
अवतारवाद
भगवान् श्रीराम, श्रीकृष्ण साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा थिकाह, ई विश्वास हिन्दू जातिक लोक मे प्रायः हमेशा सँ चलैत आबि रहल अछि। ई युक्तियुक्त आ उचितो अछि। निर्गुण-निराकार रूप सच्चिदानन्दघन परमात्मा अपने सगुण-साकाररूप मे प्रकट होइत छथि, जेना आकाश मे परमाणुरूप सँ स्थित जल पहिने बादल केर रूप मे आबिकय फेर जल आ बर्फ केर रूप मे प्रकट भऽ कय बरसय लगैत अछि। सर्ग केर आदि मे सब पदार्थ सेहो निराकार सँ साकार बनैत अछि –
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे। (गीता ८/१८)
ओहि निराकाररूप ब्रह्मा केर सूक्ष्म शरीर सँ मात्र सम्पूर्ण स्थूल व्यक्ति सब उत्पन्न होइत अछि। तहिना ओहि सच्चिदानन्दघन परमात्मा स्वयं निराकार-रूप सँ साकार रूप केँ धारण करैत छथि। एकरे नाम अवतार लेनाय थिक।
तुलसीकृत रामायण मे अवतारवाद स्थान-स्थान पर भरल अछि। एतय संक्षेप मे किछु दिग्दर्शन करायल जाइत अछि।
बालकाण्ड मे श्रीशिवजी पार्वती सँ कहैत छथि –
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥
वाल्मीकीय रामायण मे लिखल अछि जे जखन देवता आर ऋषि लोकनि रावणक उपद्रव सँ दुःखित भऽ ब्रह्माजी सँ प्रार्थना कयलनि, तखन ब्रह्माजी हुनका सब केँ सान्त्वना देबय लगलाह। ओहि समय भगवान् श्रीविष्णुक प्रकट होयबाक वर्णन एहि तरहक आयल अछि –
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युतिः।
शङ्खचक्रगदापाणिः पीतवासा जगत्पतिः॥
वैनतेयं समारुह्य भास्करस्तोयदं यथा।
तप्तहाटककेयूरो वन्द्यमानः सुरोत्तमैः॥
“ओहि समय महान् तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु मेघपर आरूढ़ भेल-सन सूर्यक समान गरुड़पर सवार भऽ ओतय आबि गेलाह। हुनकर शरीर पर पीताम्बर, हाथ मे शङ्ख, चक्र व गदा आदि आयुध एवं भुजा (हाथ) सब मे चमकीला स्वर्णक बाजूबंद शोभा पाबि रहल छल। सब श्रेष्ठ देवता लोकनि हुनका प्रणाम कयलनि।”
भगवान् द्वारा देवता लोकनिक प्रार्थना पर दशरथजीक घर मे मनुष्य रूप सँ अवतार लेनाय स्वीकार कय लेलनि –
हत्वा क्रूरं दुराधर्षं देवर्षीणां भयावहम्।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च॥
वत्स्यामि मानुषे लोके पालयन् पृथिवीमिमाम्॥ (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड १५/२९-३०)
‘देवता आर ऋषि लोकनि केँ भय देनिहार ओहि क्रूर एवं दुर्धर्ष राक्षसक नाश कय केँ हम एगारह सहस्र वर्ष धरि एहि पृथ्वीक पालन करैत मनुष्यलोक मे निवास करब।’
अध्यात्मरामायण मे कथा अबैत अछि – जखन विश्वामित्रजी श्रीराम-लक्ष्मण केँ यज्ञरक्षार्थ लय जेबाक लेल एलाह, ओहि समय दशरथजीक द्वारा सलाह पुछल गेलापर वसिष्ठजी कहलखिन –
शृणु राजन् देवगुह्यं गोपनीयं प्रयत्नतः।
रामो न मानुषो जातः परमात्मा सनातनः॥
भूमेर्भारावताराय ब्रह्मणा प्रार्थितः पुरा।
स एव जातो भवने कौसल्यायां तवानघ॥ (अध्यात्मरामायण, बालकाण्ड ४/१२-१३)
‘राजन्! ई देवता लोकनिक गुह्य लीला सुनू, एकरा कोनो तरहें प्रकट नहि होबय देबाक चाही। ई राम मनुष्य नहि थिकाह, साक्षात् सनातन परमात्मा स्वयं (अपन माया सँ) एहि रूप मे प्रकट भेलाह अछि। अनघ! पूर्वकाल मे पृथ्वीक भार उतारबाक लेल ब्रह्माजी केर प्रार्थना कयलापर ओकरा पूर्ण करबाक लेल ओ परमेश्वर स्वयं अहाँ ओतय कौसल्याक गर्भ सँ जन्म लेलनि अछि।’
चित्रकूट मे माता कैकेयी द्वारा श्रीराम सँ क्षमा-प्रार्थना करैत कहल गेल अछि –
त्वं साक्षाद् विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः।
मायामानुषरूपेण मोहयस्यखिलं जगत्॥ (अध्यात्मरामायण, अयोध्याकाण्ड ९/५७)
‘अपने साक्षात् विष्णु भगवान्, अव्यक्त परमात्मा आर सनातन पुरुष थिकहुँ। अपन लीलामय मनुष्यरूप सँ अहाँ समस्त संसार केँ मोहित कय रहल छी।’
रावणवधक अनन्तर ब्रह्मादि देवता लोकनि सँ बातचीत करैत श्रीराम कहलखिन, “हम त अपना केँ दशरथपुत्र रामहि टा बुझैत छी। वास्तव मे हम जे छी, जेना छी से अहीं बताउ।” एहिपर ब्रह्माजी श्रीराम केर महत्त्व बतबैत कहलखिन –
भवान् नारायणो देवः श्रीमांश्चक्रायुधः प्रभुः।
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सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः॥
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वधार्थं रावणस्येह प्रविष्टो मानुषीं तनुम्॥
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(वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ११७/१३, २७ आ २८)
‘अपने साक्षात्, चक्रपाणि लक्ष्मीपति प्रभु श्रीनारायणदेव छी। सीता साक्षात् लक्ष्मी थिकीह आर अपने भगवान् विष्णु, कृष्ण* एवं प्रजापति थिकहुँ। अपने रावणवध केर लेल मात्र एहि मनुष्यलोक मे मानवशरीर धारण कयलहुँ अछि।’
*एतय ‘कृष्ण’ नाम आयल अछि, एहि सँ सिद्ध होइत अछि जे परमात्माक ई नाम अनादिकाल सँ प्रसिद्ध अछि, सिर्फ कृष्ण-अवतार लेबाक कारण सँ नहि।
भगवान् केर परमधाम पधारला सँ ई बात आरो स्पष्ट भऽ जाइत अछि जे श्रीराम साक्षात् पूर्णब्रह्म परमेश्वर छलाह। ओहि समय ब्रह्माजीक कथनानुसार भगवान् द्वारा अपन भाइ लोकनिक संग एहि मानवविग्रह सँ मात्र ओहि वैष्णवतेज मे प्रवेश कयलनि –
विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः। (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड ११०/१२)
एहि तरहें गीता(१), भागवत(२), आदि ग्रन्थ सब मे सेहो अवतारवादक उल्लेख ठाम-ठाम पर भेटैत अछि। एकर संस्कार प्रायः हिन्दू लोकनिक हृदय मे स्वाभाविके अङ्कित अछि। यैह छी हिन्दू-संस्कृति।
(१) गीता मे कहल गेल अछि –
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
‘हम अजन्मा आर अविनाशीस्वरूप रहितो तथा समस्त प्राणीलोकक ईश्वर रहितो अपन प्रकृति केँ अधीन कय केँ अपनहि योगमाया सँ प्रकट होइत छी। हे भारत! जखन-जखन धर्मक हानि और अधर्म केर वृद्धि होइत अछि, तखनहि तखनहि हम अपन रूप केँ रचना करैत छी। अर्थात् साकार रूप सँ लोक केर सम्मुख प्रकट होइत छी। श्रेष्ठ पुरुष केर उद्धार करबाक लेल, पापकर्म करनिहार केर विनाश करबाक लेल आर धर्म केँ नीक जेकाँ स्थापना करबाक लेल युग-युग मे प्रकट भेल करैत छी।
(२) भागवत मे भगवान् श्रीकृष्ण माता देवकी सँ कहैत छथि –
‘अदृष्टवान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम्। अहं सुतो वामभवं पृश्रिगर्भ इति श्रुतः॥
तयोर्वां पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात्। उपेन्द्र इति विख्यातो वामनत्वाद्य वामनः॥
तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वयुषाथ वाम्। जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहतं सति॥’ (श्रीमद्भागवतकथा १०/३/४१-४३)
संसार मे शील, उदारता, आदि सद्गुण सभ मे अपन सदृश दोसर केँ नहि देखि हम स्वयं अपने दुनू गोटेक पुत्र बनिकय पहिने पृश्रिगर्भ केर नाम सँ विख्यात भेल छलहुँ। तेकर बाद जखन अहाँ दुनू गोटे कश्यप व अदिति केर रूप मे प्रकट भेलहुँ तखन हम उत्पन्न भऽ कय उपेन्द्र केर नाम सँ विख्यात भेलहुँ। ताहि समय हमर शरीर छोट हेबाक कारण हमर दोसर नाम वामन भेल छल। एहि तेसर अवतार मे आब हमहीं ओहि शरीर सँ अहाँ दुनूक ओतय फेर उत्पन्न भेल छी। हे सती! हम ई अहाँ सँ सत्य कहलहुँ अछि।