अत्यन्त पठनीय-मननीय आलेखः ‘दान-धर्म’ (महर्षि दयानन्द सरस्वतीकृत्)

स्वाध्याय लेख

अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी

दान-धर्म

(ब्रह्मलीन स्वामी श्रीदयानन्दजी सरस्वती, भारतधर्म महामण्डल)
 
धर्मक तीन प्रधान अंग छैक – यज्ञ, तप आ दान। श्रीगीतोपनिषद् मे कहल गेल अछि – ‘यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्’। एहि तीन प्रकार प्रधान धर्मांग सब मे दान-धर्म सब प्रकारक अधिकारी लेल प्रथम व कलियुग मे परम सहायक अछि। भगवान् मनुजी सेहो कहने छथि –
 
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे॥
 
– मनुस्मृति १/८६
 
सत्ययुग मे तपोधर्म, त्रेतायुग मे ज्ञानधर्म, द्वापर मे यज्ञधर्म आ कलियुग मे केवल दान-धर्म और कलियुग मे केवल दान-धर्म मात्र प्रधान मानल गेल अछि।
 
अपन चीज-वस्तु केँ अपन सम्बन्ध हंटाकय दोसर केँ दऽ देनाय के नाम ‘दान’ थिक, स्मरण रहय जे दऽ देनाय त सहज छैक, मुदा देल गेल वस्तु सँ अपन सम्बन्ध चित्त सँ हंटा देनाय अत्यन्त कठिक छैक। जे दाता अपन दान कयल गेल वस्तु सँ जतबे चित्त केँ हंटबैत सम्बन्ध केँ छोड़ैत अछि, ओतबे ओकर दान केर गणना उत्तम श्रेणी मे होइत छैक।
 
दान-धर्म आर धर्म सभक अपेक्षा बहुते सहज व अनायास साध्य अछि; कियैक त यज्ञधर्म आ तपोधर्मक साधनक लेल अत्यन्त शारीरिक परिश्रमक आवश्यकता होइत छैक, मुदा दान-धर्मक निष्पादन केवल अपन वस्तु उठाकय दोसर केँ दऽ देला सँ भऽ जाइत छैक; तेँ ई धर्म सुखसाध्य अछि। दान-धर्म तीन तरहक मानल गेल अछि, यथा – अभयदान, ब्रह्मदान आर अर्थदान। एहि संसाररूपी महाभय सँ जीव केँ बचेबाक लेल जे उपदेश देल जाइत अछि, तेकरा अभयदान कहल गेल छैक।
 
विद्योन्नतिक अभिप्राय सँ साक्षात् आ परोक्षरूप सँ जे किछु दान कयल जाइत अछि ओकरा ब्रह्मदान कहल गेल अछि। शरीर द्वारा, वचन द्वारा, अर्थादि द्वारा विद्योन्नतिक उद्देश्य सँ जे किछु दान-धर्म कयल जाय, ओकरे ब्रह्मदान कहैत अछि। विद्यालयक स्थापना करब, विद्योन्नतिकारी यन्त्रालयक स्थापना करब, पुस्तक प्रकाशित करब, पुस्तकक प्रणयन करब, पुस्तक दान करब, शास्त्र अध्यापन इत्यादि एहि प्रकारक समस्त कार्य ब्रह्मदान अन्तर्गत बुझल जायत।
 
धन-ऐश्वर्य आदिक जे दान कयल जाइत अछि, ओकरा अर्थदान कहल गेल अछि। अन्न, वस्त्र, भवन, भूमि, रत्न आदि सब प्रकारक दान केँ अर्थदान कहल जाइत अछि।
 
ई सब प्रकारक दान गीतोपनिषद् मुताबिक त्रिगुणविचार सँ तीन प्रकारक होइत छैक – १. सात्त्विक, २. राजस आ ३. तामस।
 
देनाय अपन कर्तव्य आ धर्म छी – एहि विचार सँ जे दान कयल जाइछ आर एहेन व्यक्ति केँ दान कयल जाइछ जे ओहि सँ कोनो तरहक प्रत्युपकार प्राप्ति कोनो सम्भावना नहि हो आर केहेन देश मे दान कयला सँ दानक अधिक फल होयत, केहेन समय मे दान कयला सँ दान अधिक फल होयत तथा केहेन व्यक्ति केँ दान कयला सँ दानक अधिक फल होयत; एहि सब बात केँ विचार करैत सावधानीपूर्वक जे दान कयल जाइछ, ओकरा सात्त्विक दान कहल जाइत छैक। बदला मे प्रत्युपकार केर आशा सँङ फल केर उद्देश्य सँ तथा दैत समय चित्त मे क्लेश पाबिकय जे दान कयल जाइत अछि, ओकरा राजसिक दान कहल जाइत छैक। सात्त्विकदान मे जाहि प्रकारक देश, काल व पात्र केर विचार करबाक बात कहल गेल तेकर विचार बिना रखने जे दान कयल जाय आर दान लेनिहारक जाहि तरहक सम्मान करब उचित अछि, तेहेन सम्मान नहि कय केँ जे दान कयल जाइत अछि आ अवज्ञाक संग जे दान कयल जाइत अछि ओकरा तामसिक दान कहल जाइत छैक।
 
सात्त्विक दान सँ मुक्ति, राजसिक दान सँ ऐहिक तथा पारलौकिक सुख और तामसिक दान सँ कहियो-कहियो नरकक प्राप्ति सेहो होयबाक सम्भावना रहैत छैक। ताहि लेल दान कयला मात्र सँ पुण्य केर प्राप्ति नहि होइत छैक, एहि मे विचार केर आवश्यकता होइत छैक, विचारपूर्वक कयल गेल दानक फल टा उत्तमरूप सँ भेटि सकैत अछि।
 
यदि कियो ई प्रश्न करय जे कि एक क्षुद्र वस्तुक प्रदानरूप एक सामान्य कर्म सँ दुर्लभ मुक्तिपद केर प्राप्ति भऽ सकैत अछि? एहेन पूर्वपक्ष केर उत्तर मे सिद्धान्त यैह अछि जे जखन कर्ममीमांसा द्वारा ई सिद्ध छैक जे धर्म मुक्तिप्रद अछि, तखन ईहो निश्चय अछि जे दानरूपी पुण्यकर्म यदि यथावत् वेदानुकूल कयल जाय आर ओ कर्म तीव्रतम हो तऽ अवश्य ओहि धर्म-कार्य द्वारा मुक्ति केर प्राप्ति होयत। जखन धर्म मुक्तिप्रद अछि, तखन धर्मक प्रत्येक अंग सेहो मुक्तिप्रद अछि। जेना अग्नि मे दाहिका शक्ति रहला सँ ओकर अंशभूत क्षुद्र स्फुलिंग मे सेहो दाहिका शक्ति छैक, जेना एक क्षुद्र स्फुलिंग सेहो देश, काल आर सहयोगीक सहायता भेटलापर बड़का-बड़का पदार्थ केँ दग्ध कय सकैत अछि, ओहि तरहें यथार्थ विज्ञानानुकूल दान-धर्म केर साधन द्वारा साधक केँ परम्परा-सम्बन्ध सँ अवश्य टा मुक्ति भेटि सकैत अछि।
 
जा धरि मनुष्यक अन्तःकरण विषय सब मे आसक्त रहैत अछि, ताबत धरि वृत्ति सब अन्तःकरण केँ प्रतिक्षण चंचल बनेने रहैत अछि आर जखन अन्तःकरणक विषयासक्ति नष्ट भऽ जाइत छैक, ताहि समय सब वृत्ति सब क्षीण भऽ जाइत छैक। वृत्ति सभक विलीन होइते अन्तःकरणक चांचल्य निःशेष नष्ट भऽ जाइत छैक। योगदर्शन सँ ई बात सिद्ध छैक जे यदि चित्तवृत्ति सब केँ निरोध कय देल जाय तँ अन्तःकरणक चंचलता नष्ट होयबाक कारण स्वतः चैतन्यक दर्शन होबय लगैत छैक। पूज्यपाद महर्षि पतंजलि जी कहलनि अछि –
 
‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’, ‘तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्थानम्।’
– योगदर्शन
 
आब विचार करबाक बात ई अछि जे जाहि कोनो मनुष्यक अन्तःकरण कोनो विषय मे अत्यन्त आसक्त रहय आर ओहि आसक्तिक कारण वृत्ति सब अन्तःकरण केँ आलोडित कय केँ चंचल बना रहल हो तखन ओ मनुष्य जँ साहस कय केँ ओहि विषय सँ अपन चित्त केर आसक्ति एकदम हंटाकय ओहि विषय केँ त्यागि दियए, त कि वृत्ति सभक निरोध भऽ गेला सँ अन्तःकरणक स्थिरता नहि भऽ सकैछ? आर कि स्थिर अन्तःकरण मे चैतन्य केर दर्शन दुर्लभ अछि? और जखन चैतन्यक दर्शन भऽ गेल तऽ कि मुक्ति मे कोनो असैर रहि गेल? कदापि नहि। यैह कारण ई विज्ञान सँ सिद्ध भेल जे पहिने कहल गेल सात्त्विक दान केर विज्ञानक अनुसार यदि कियो दाता अपन ओहि पदार्थ केर दान करय, जाहि पदार्थ मे ओकर आसक्ति अछि, तऽ दानधर्म द्वारा मुक्ति प्राप्ति होयब अवश्य सम्भव अछि, परन्तु ई निश्चय अछि जे केवल सात्त्विक दान टा मुक्ति केर कारण भऽ सकैत अछि। देश-काल-पात्र केर विचार सँ सात्त्विक दान द्वारा दाताक अन्तःकरण मे दिन-प्रतिदिन कनेक-मनेक सत्त्वगुण अवश्य बढैत जायत आ क्रमशः निष्काम भाव ओ सत्त्वगुण केर विशेष बढि गेला सँ ओ दाता मुक्तिक नजदीक पहुँचि जायत।
 
दान-धर्म
 
(दोसर क्रमशः सँ आगू)
 
दानक विलक्षणता ई छैक जे मनुष्य जँ एकान्त मे बैसिकय सात्त्विक भाव सँ कोनो समय कोनो उत्तम आ योग्य पात्र केँ एको पाय दान करैत अछि त ओकर गणना सात्त्विक दान मे भऽ सकैत छैक आर एहि प्रकारक दान दाता केँ मुक्तिपद प्राप्त करा सकैत अछि। जँ मुक्तिक प्राप्ति करब बिल्कुल असम्भव होय त ओहि सँ ऐहिक व पारलौकिक शान्ति-सुख केर प्राप्ति भऽ सकैत छैक। सात्त्विक वृत्ति सँ एक पैसा अथवा एक मुट्ठी अन्न आदिक दान सेहो क्रमशः दाताक मुक्तिक कारण भऽ सकैत छैक आर क्रमशः ओकर बुद्धि केँ शुद्ध करैत दाता केँ मुक्ति-भूमि मे पहुँचा दैत छैक; मुदा राजसिक वृत्ति सँ दान कयल गेल करोड़ों रुपया सँ सेहो मुक्ति नहि भेटि सकैत अछि। एहि द्वारा ई स्वतः सिद्ध अछि जे दानधर्म श्रद्धामूलक थिक। शुद्धभाव द्वारा दान करय मे दानक शक्ति असाधारणरूप सँ बढि जाइत छैक। भाव केर द्वारा मात्र एक छोट दान के सेहो अनन्त फल भऽ सकैत छैक आर यदि भाव ठीक नहि हो तऽ महान् दानक फल सेहो अत्यन्त सामान्य टा होइत छैक।
 
पूर्वविज्ञानानुसार ई सिद्ध भऽ चुकल अछि जे कोन तरह सँ दान-धर्म द्वारा साधक केँ मुक्तिपद केर प्राप्ति भऽ सकैत छैक आर ईहो सिद्ध भऽ चुकल अछि जे मात्र दान-धर्म केर साधन टा सँ कोन तरहक चित्तवृत्तिनिरोध भऽ कय साधक समाधि-भूमि मे पहुँचैत अछि। दान जखन धर्महि थिक तखन उक्त धर्म द्वारा धर्म केर अन्तिम फल मुक्तिपद अवश्य टा प्राप्त होयत। पहिनहि कहल गेल अछि जे अग्निक एक स्फुलिंग (लुत्ती) यदि देश, काल आ पदार्थक सहायता प्राप्त कय लैत अछि त ओ स्फुलिंग क्रमशः महान शक्ति केँ धारण कय केँ प्रलयाग्निक रूप मे परिणत भऽ कय एहि पृथिवी केँ दग्ध कय सकैत अछि। जाहि तरहें अग्निक स्फुलिंग सेहो अग्निये थिक, ताहि तरहें दान-धर्म सेहो धर्मे थिक आर ओहि मे धर्मक पूर्ण शक्ति विद्यमान अछि।
 
आब ई प्रश्न उठि सकैत छैक जे दान-धर्म द्वारा अभ्युदय करैत स्वर्ग आ निःश्रेयस्कर मुक्ति तँ प्राप्त भऽ सकैत अछि; मुदा दानक द्वारा विरूद्ध फल नरक केना प्राप्त होइत अछि? एहि पूर्वपक्ष केर उत्तर मे सिद्धान्त यैह अछि कि जखन दान मे पूर्णशक्ति विद्यमान छैक त वैह शक्ति ऊर्ध्वगामिनी भेला सँ अभ्युदय आ निःश्रेयस फल दैत अछि आर वैह शक्ति अधोगामिनी भेला सँ नरकरूपी फल सेहो दय सकैत अछि। सात्त्विक दान सँ निःश्रेयस आ राजसिक दान सँ पारलौकिक आ ऐहलौकिक अभ्युदयक प्राप्ति होइत अछि, ई दुनू दान भय-रहित आ उन्नतिप्रद अछि। साधक एहि दुनूक द्वारा यथाधिकार आध्यात्मिक उन्नति अवश्य प्राप्त करैत अछि, मुदा तामसिक दान द्वारा दाता केँ कहियो-कहियो केवल ऐहलौकिक अभ्युदयक प्राप्त होइत छैक आर कहियो-कहियो नरकक प्राप्ति सेहो भऽ सकैत छैक। उदाहरणार्थ बुझि सकैत छी जे जँ कोनो दाताक देश, काल, पात्र विचाररहित प्रमादयुक्त तामसिक दान सँ धन प्राप्त करैते कियो मनुष्य घोरतर प्रबल पापानुष्ठान करय मे प्रवृत्त रहय त ई निश्चय अछि जे परम्परा-सम्बन्ध सँ सहायक भेलाक कारण ओ तामसिक दाता सेहो ओहि पापीक कयल गेल पापकर्मक किछु अंश केर भागी अवश्य बनत। एहि एक सामान्य उदाहरण सँ एहि विज्ञान केँ बुझय मे सुगमता भऽ सकैत अछि, एहि मे सन्देह नहि। यैह लेल अत्रिसंहिता मे लिखल अछि –
 
नास्ति दानात्परं मित्रमिहलोके परत्र च।
अपात्रे किन्तु यद्दत्तं दहत्यासप्तमं कुलम्॥
 
अर्थात् इहलोक आ परलोक मे दान केर समान परममित्र आर कियो नहि अछि, किन्तु अपात्र मे देल दान सात पुरुषपर्यन्त दुःखदायी होइत अछि। तेँ दान-धर्मक साधक केँ सदैव तीन गुण केर दान सभक तीनू लक्षण केँ स्मरण मे राखिकय दान करब उचित अछि आर संगहि ईहो स्मरण राखब उचित अछि जे जेकरा पास यथेष्ट धन अछि, ओ व्यक्ति यदि कृपणता और नीचताक कारण दान नहि करय त परलोक मे ओकरा नरक आ जन्मान्तर मे दरिद्र होबय पड़त, एहि मे कोनो टा सन्देह नहि अछि। प्रत्येक क्रियाक प्रतिक्रिया अवश्य भेल करैत अछि, तेँ कृपण केँ नरक आ दरिद्रता अवश्य टा भोगय पड़त, ई विज्ञान मीमांसादर्शन द्वारा एनाहू सिद्ध कयल गेल अछि कि कर्म केर क्रिया आ प्रतिक्रिया विज्ञान मुताबिक जाहि मनुष्यक पास जे पदार्थ अछि तेकरा ओ व्यक्ति यदि अपव्यवहार करय त जन्मान्तर मे ओहि व्यक्ति केँ ओहि पदार्थक अभाव रहत। एहि रीतिपर यदि धनवान् व्यक्ति धनक अपव्यवहार करय त ओहो जन्मान्तर मे दरिद्र होयत। सिद्धान्त यैह अछि जे कृपण मनुष्य आर धन-अपव्यवहारकारी दुनू व्यक्ति केँ परलोक मे नरक भोगय पड़त आर जन्मान्तर दरिद्र होबय पड़त।
 
चाहे पुस्तक, विद्यालय, अन्नसत्र, छात्रनिवास, विश्वविद्यालय, पुस्तकालय, यन्त्रालय आदि कोनो तरहक ब्रह्मदान-सम्बन्धी दान हुए अथवा अन्न, वस्त्र, भूमि, धन, रत्न आदि कोनो प्रकारक अर्थदान-सम्बन्धी दान हुए – सब दान देश, काल, पात्र केर विचारपूर्वक होयब उचित अछि। केना देश मे दान करबाक चाही, कोन देश मे उक्त प्रकारक दान केर अभाव अछि, कोन देश मे उक्त प्रकारक दान कयला सँ बेसी फल केर प्राप्त भऽ सकैत अछि, कोन देश मे दान कयला सँ ईश्वरक आज्ञाक पालन मे विशेष सुविधा होयत, कोन देश मे दान कयला सँ अधिसंख्यक जीव केर कल्याण भऽ सकैत अछि इत्यादि विषय सब पर विचार कयला सँ देशक विचार ठीक-ठीक भऽ सकैत अछि। एहि तरहें कोन काल (समय) मे दान करब उचित अछि, कोन काल मे उक्त प्रकारक दानक अभाव अछि, कोन काल मे उक्त प्रकारक दान कयला सँ बेसी फल केर प्राप्त भऽ सकैत छैक, कोन काल मे दान कयला सँ ईश्वरक आज्ञाक पालन मे विशेष सुविधा होयत, कोन काल मे दान कयला सँ अधिसंख्यक जीव केर कल्याण भऽ सकैत अछि इत्यादि विषय सब पर निश्चय कय दान कयला सँ उन्नत दान भऽ सकैत अछि। एहि रीति सँ पात्रक सेहो विचार होयब उचित अछि। केहेन पात्र केँ दान करब उचित अछि, केहेन पात्र मे उक्त प्रकारक अभाव अछि, कोन पात्र मे उक्त प्रकारक दान कयला सँ अधिक फल केर प्राप्ति भऽ सकैत अछि, कोन पात्र मे दान कयला सँ ईश्वरक आज्ञाक पालन मे विशेष सुविधा भेटि सकैत अछि, कोन पात्र मे दान कयला सँ अधिसंख्यक जीव केर कल्याण भऽ सकैत अछि इत्यादि विषय सब पर नीक जेकाँ विचारिकय दान कयला सँ दान-धर्मक साधन ठीक-ठीक भऽ सकैत अछि। अतः श्रीगीतोपनिषद्-कथित त्रिविध-दानक रहस्य केँ पूर्णरीति सँ बुझिकय तथा देश, काल आ पात्र केर विचार कय केँ दान-धर्मक साधन कयला सँ मनुष्य मात्र अभ्युदय आर निःश्रेयसक अधिकारी होयत, अन्यथा नहि।
 
व्याससंहिता मे कहल गेल अछि –
 
ऊषरे वापितं बीजं भिन्नभाण्डेषु गोदुहम्।
हुतं भस्मनि हव्यश्च मूर्खे दानमशाश्वतम्॥
 
जाहि प्रकार ऊषर भूमि मे रोपल गेल बिया (बीज), भग्नपात्र मे स्थित दूध (दुग्ध) आ भस्म मे हवन कयल गेल घृत निष्फल होइत अछि, तहिना मूर्ख केँ देल गेल दान निष्फल भेल करैत अछि। कियैक कि मूर्ख दान करबाक पात्र नहि छी, तेँ ओकरा देल गेल दान निष्फल कहल गेल अछि। ताहि लेल देश, काल आ पात्र केँ बिना विचार कएने दान कयला सँ नीक नहि करब होइछ; कियैक तँ एहेन देश, काल, पात्र केर विचार सँ रहित भऽ कय दान कयला सँ स्वजाति आ स्वदेश केँ कोनो टा लाभ नहि पहुँचैत अछि आर नहिये अपनो कोनो धर्मोन्नति होइत अछि। एहेन दान सर्वथा निष्फल टा होइत अछि। भारतवासी जा धरि सात्त्विक दान करबाक अभ्यास नहि करता, ताबत धरि भारतक उन्नति होयब बहुतहि कठिन अछि, अपितु एहि लेल आशा सेहो नहि कयल जा सकैत अछि। आइयो आन देशक अपेक्षा भारतवर्ष मे बहुते बेसी दान कयल जाइत अछि, मुदा तामसिक दान केर मात्रा बहुत अधिक बढि गेल अछि, यैह कारण भारत दिन-दिन दुःखी होइत गिरैत जा रहल अछि। एहि लेल भारतहितैषी लोकनिक एहि समय देश, काल आर पात्र केर विचार कय केँ मात्र दान करब मुख्य कर्तव्य थिक।
(स्वाध्याय केर ई लेख सब हमरा-अहाँ केँ अपन जीवन लेल सद्मार्ग देखबैत अछि। ई पढि-बुझि अपन-अपन जीवन मे सब कियो अनुकरण करबाक चेष्टा जरूर करब।)
 
हरिः हरः!!