मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री रामजीक वानर सेना संग चलिकय समुद्र तट पर पहुँचब

मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

श्री रामजीक वानर सेना संग चलिकय समुद्र तट पर पहुँचब

दोहा :
कपिपति बेगि बजेला आयल मुख्यक झुंड।
नाना वर्ण अतुल बल बानर भालु बहुत॥३४॥
भावार्थ:- वानरराज सुग्रीव शीघ्रहि वानर सभकेँ बजौलनि, सेनापति लोकनिक समूह आ गए। वानर-भालु केर झुंड अनेको रंग केर अछि और सब मे अतुलनीय बल छैक॥३४॥
चौपाई :
प्रभु पद पंकज नावय शीशा। गर्जय भालु महाबल कीसा॥
देखल राम सकल कपि सेना। चितहि कृपा करि राजिव नैना॥१॥
भावार्थ:- ओ सब प्रभु केर चरण कमल मे माथ झुकबैत अछि। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरैज रहल अछि। श्री रामजी वानरक समस्त सेना देखलनि। तखन कमल नेत्र सँ कृपापूर्वक ओकरा सब पर अपन दृष्टि डाललनि॥१॥
राम कृपा बल पाय कपिंदा। भेल पंखयुक्त मानू गिरिंदा॥
हरषि राम फेर कयल प्रस्थाना। सगुन भेल सुंदर शुभ नाना॥२॥
भावार्थ:- राम कृपा केर बल पाबिकय श्रेष्ठ वानर मानू पंखवाला बड़का पर्वत भऽ गेल। तखन श्री रामजी हर्षित होइत प्रस्थान (कूच) कयलनि। अनेको सुंदर और शुभ शकुन होबय लागल॥२॥
जिनक सकल मंगलमय कीर्ति। तिनक प्रस्थान सगुन यैह नीति॥
प्रभु प्रस्थान जनली वैदेही। फरकि बाम अंग जानु कहि देही॥३॥
भावार्थ:- जिनकर कीर्ति सब मंगल सँ पूर्ण अछि, तिनकर प्रस्थानक समय शकुन होयब, यैह नीति छैक (लीला केर मर्यादा छैक)। प्रभु केर प्रस्थान जानकीजी सेहो जानि गेलीह। हुनकर बाम अंग फड़कि-फड़किकय मानू कहि दैत छल (कि श्री रामजी आबि रहल छथि)॥३॥
जैह जैह सगुन जानकी होहि। असगुन भेल रावन केँ सोहि॥
चलल सेना नहि वर्णन पार। गर्जय बानर भालु अपार॥४॥
भावार्थ:- जानकीजी केँ जे-जे शकुन होइत छलन्हि, वैह-वैह रावण केर लेल अपशकुन भेल। सेना चलल, ओकर वर्णन करब केकरा सँ पार लागत! असंख्य वानर और भालू गर्जना कय रहल अछि॥४॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चलय गगन धरि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करही। डगमगाय दिग्गज चिक्करही॥५॥
भावार्थ:- नख (नह) जिनकर शस्त्र छन्हि, जे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलयवला रीछ-वानर पर्वत और वृक्ष सब केँ धारण कएने कियो आकाश मार्ग सँ त कियो पृथ्वी पर चलल जा रहला अछि। ओ सब सिंह केर समान गर्जना कय रहल छथि। (हुनक चलला आ गर्जना सँ) दिशा सभक हाथी विचलित भऽ कय चिकैर रहला अछि॥५॥
छंद :
चिक्करय दिग्गज डोल माटि गिरि कम्प सागर खलबली।
मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टली॥
कटकटहि मर्कट विकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोशलनाथ गुण गण गावहीं॥१॥
भावार्थ:- दिशा सभक हाथी चिंग्घाड़य (चिकरय) लागल, पृथ्वी डोलय लगली, पर्वत काँपय लागल और समुद्र खलबला उठल। गंधर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन मे हर्षित भेल जे (आब) हमरा सभक दुःख टलि गेल। कतेको करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहला अछि आर करोड़ों दौड़ि रहला अछि। ‘प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचंद्रजी की जय हो’ एना पुकारैते ओ लोकनि हुनक गुणसमूह सब गाबि रहल छथि॥१॥
सहि सके न भार उदार अहिपति बेर बेर ओ मोहिते।
गहि दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर से केना सोहिते॥
रघुवीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहाओनी।
जेना कमठ खर्पर सर्पराज से लिखथि अविचल पावनी॥२॥
भावार्थ:- उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्‌) सर्पराज शेषजी सेहो सेनाक बोझ नहि सहि सकैथि, ओ बेर-बेर मोहित भऽ जाइथ (घबड़ा जाइथ) आर बेर-बेर कच्छप केर कठोर पीठ केँ दाँत सँ पकड़ैत छलाह। एना करैत (अर्थात्‌ बेर-बेर दाँत गड़ाकय कच्छप केर पीठ पर लकीर सन् खींचैते) ओ केना शोभा दय रहल छल मानू श्री रामचंद्रजी केर सुंदर प्रस्थान यात्रा केँ परम सुहाओन जानिकय ओकर अचल पवित्र कथा केँ सर्पराज शेषजी कच्छप केर पीठ पर लिखि रहल होइथ॥२॥
दोहा :
एहि विधि जाय कृपानिधि पुगला सागर तीर।
जहँ तहँ लागल खाय फल भालु बिपुल कपि वीर॥३५॥
भावार्थ:- एहि प्रकारे कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर पहुँचि गेलाह। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाय लागल॥३५॥