मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद
लंकादहन
दोहा :
कपि केर ममता पूँछ पर सबकेँ कही बुझाय।
तेल बोरि पट बान्हिकय पावक दिहीन लगाय॥२४॥
भावार्थ:- हम सबकेँ बुझाकय कहैत छी जे बानरक ममता पूँछ पर होइत छैक। तेँ तेल मे कपड़ा बोरिकय ओ एकर पूँछ मे बान्हिकय फेर आगि लगा दे॥२४॥
चौपाई :
पूँछहीन बानर तहन जायत। फेरो शठ निज नाथकेँ लायत॥
जिनकर कयलक बहुत बड़ाइ। देखी हमहुँ तिनक प्रभुताइ॥१॥
भावार्थ:- जखन बिना पूँछ के ई बानर ओतय (अपन स्वामीक पास) जायत, तखन ई मूर्ख अपन मालिक केँ संगे लय आयत। जिनकर ई बहुते बड़ाइ कयलक अछि, हमहुँ कनी हुनकर प्रभुता (सामर्थ्य) तऽ देखी!॥१॥
वचन सुनैत कपि मन मुसुकेला। भेली सहाय शारद से बुझला॥
राक्षसगण सुनि रावण वचना। लागल रचय मूढ़ वैह रचना॥२॥
भावार्थ:- ई वचन सुनिते हनुमान्जी मन मे मुस्कुरेलाह (और मनहि मन बजला) हम बुझि गेलहुँ, सरस्वतीजी (एकरा एहेन बुद्धि दय मे) सहायक भेली अछि। रावण केर वचन सुनिकय मूर्ख राक्षस सब वैह (पूँछ मे आगि लगेबाक) तैयारी करय लागल॥२॥
बचल नगर नहि कपड़ा घी-तेल। बढल पूँछ तेहेन कपि के खेल॥
देखि तमाशा नग्रभरीक लोक। मारय लात हँसय बिना रोक॥३॥
भावार्थ:- (पूँछ केँ लपेटय मे एतेक कपड़ा और घी-तेल लागल जे) नगर मे कपड़ा, घी और तेल नहि रहि गेल। हनुमान्जी एहेन खेल कयलनि कि पूँछ बढ़ि गेल (लंबा भऽ गेल)। नगरवासी लोक तमाशा देखय एलाह। ओ हनुमान्जी केँ पैर सँ ठोकर मारैत छल आर बिना रुकने हुनकर हँसी करैत छल॥३॥
बजबय ढोल आ दैत थपाड़ी। नगर घुमाय फेर पूँछ पजाड़ी॥
पावक जरत देखि हनुमंता। धेला परम लघुरूप तुरंता॥४॥
भावार्थ:- ढोल बजबैत अछि, सब थोपड़ी पीटैत अछि। हनुमान्जी केँ नगर भरि घुमाकय, फेर पूँछ मे आगि लगा देलक। अग्नि केँ जरैत देखिकय हनुमान्जी तुरंते अत्यन्त छोट रूप धय लेलनि॥४॥
कूदि चढ़ल कपि कनक अटारी। भेली सभीत निशाचर नारी॥५॥
भावार्थ:- (बंधन सँ निकलिते) ओ कूदिकय सोनाक अटारी सब पर जा चढ़ला। हुनका देखिकय राक्षसगणक स्त्रि लोकनि भयभीत भऽ उठल॥५॥
दोहा :
हरि प्रेरित ताहि अवसर चलल मरुत उनचास।
अट्टहास गर्जला कपि बाढ़ि लगल आकाश॥२५॥
भावार्थ:- ओहि समय भगवान् केर प्रेरणा सँ उनचास पवन चलय लागल। हनुमान्जी अट्टहास कय केँ गर्जला और बढ़िकय आकाश सँ जा लगलाह॥२५॥
चौपाई :
देह विशाल हलुक फुर्तीला। महले महल कुदैत सजीला॥
जरइ नगर भरि लोक बेहाल। झपट लपट बहु कोटि कराल॥१॥
भावार्थ:- देह बड़ी विशाल छन्हि लेकिन अत्यन्त हल्का आ फुर्तीला छथि। ओ दौड़ि-दौड़िकय एक महल सँ दोसर महल पर चढि जाइत छथि। नगर जरि रहल अछि। लोक बेहाल अछि। आगिक करोड़ों लपट झपटा मारि रहल अछि॥१॥
बाप माय सब करे पुकार। एहि घड़ी के करत उबार॥
पहिने कहल कपि नहि छी ओ। बानर रूप धरल सुर कियो॥२॥
भावार्थ:- बाप रे! माय रे! एहि अवसर पर हमरा सब केँ के बचायत? (चारू दिश) यैह पुकार सुनाय पड़ि रहल अछि। हम तऽ पहिनहि कहने रही जे ई वानर नहि थिक, वानर रूप धएने कोनो देवता थिक!॥२॥
साधु अवग्या केर फल एहेन। जरय नगर अनाथक जेहेन॥
जारल नगर ओ पलक झपकिते। एक विभीषण घर बचबिते॥३॥
भावार्थ:- साधु केर अपमानक यैह फल छैक जे नगर अनाथ केर नगर जेकाँ जरि रहल अछि। हनुमान्जी क्षणहि भरि मे सम्पूर्ण नगर जरा देलनि। एकटा विभीषण घर टा बचि गेल॥३॥
तिनकर दूत अनल जे सिरिजा। जरल न से तेहि कारण गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारि। कूदि गेला पुनि सिंधु मझारि॥४॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथि -) हे पार्वती! जे अग्नि केँ बनौलनि, हनुमान्जी हुनकहि दूत छथि। यैह कारण ओ अग्नि सँ नहि जरला। हनुमान्जी उलटि-पलटिकय (एक दिश सँ दोसर दिश धरि) सारा लंका जरा देलनि। फेर ओ समुद्र मे कूदि गेलाह॥४॥