मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री सीता-हनुमान् संवाद

मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

श्री सीता-हनुमान्‌ संवाद

सोरठा :
कपि कय हृदय विचार देलनि मुद्रिका सोझाँ खसा।
जेना अशोक अंगार देला हरखि उठि हाथ लेली॥१२॥
भावार्थ:- तखन हनुमान्‌जी हदय मे विचारिकय (सीताजीक सामने) अँगूठी खसा देलनि, मानू अशोक अंगार दय देला (से बुझिकय) सीताजी हर्षित होइत उठिकय ओ हाथ मे लय लेलनि॥१२॥
चौपाई :
फेर देखली मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चित्त मुद्रिका केँ चिन्हली। हर्ष विषाद हृदय अकुलेली॥१॥
भावार्थ:- तखन ओ राम-नाम सँ अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर औंठी देखली। औंठी केँ चिन्हिकय सीताजी आश्चर्यचकित होइत ओकरा देखय लगलीह। हर्ष तथा विषाद सँ हृदय अकुला उठली॥१॥
जीति के सकय अजय रघुराइ। माया सँ ई रचल नहि जाइ॥
सीता मन बिचार करि नाना। मधुर वचन बजला हनुमाना॥२॥
भावार्थ:- (ओ सोचय लगलीह – ) श्री रघुनाथजी तँ सर्वथा अजेय छथि, हुनका के जीति सकैत अछि? आर माया सँ एहि (माया केर उपादान सँ सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) औंठी केँ बनाइलो नहि जा सकैत अछि। सीताजी मन मे अनेक प्रकार केर विचार कय रहल छलीह, ताहि समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बजलाह – ॥२॥
रामचंद्र गुण बर्णय लगला। सुनितहि सीता केर दुख भगला॥
लगली सुनय श्रवन मन तानि। शुरू-एखन तक कथा बखानि॥3॥
भावार्थ:- ओ श्री रामचंद्रजी केर गुणक वर्णन करय लगलाह, (जेकरा) सुनिते सीताजीक दुःख भागि गेलनि। ओ कान और मन (वैह कथा प्रति) तानिकय सुनय लगलीह। हनुमान्‌जी शुरू सँ लैत एखन धरि के सब कथा कहि सुनेलनि॥३॥
श्रवनामृत जे ई कथा सुनेलहुँ। कहू से प्रगट कियै नहि भेलहुँ॥
तयपर हनुमंत लऽग मे एलनि। विस्मित सिया मुंह फेरि लेलनि॥४॥
भावार्थ:- (सीताजी बजलीह – ) जे कानक लेल अमृत रूप ई सुंदर कथा कहलहुँ, से हे भाइ! प्रकट कियैक नहि होइत छी? तखन हनुमान्‌जी लऽग आबि गेलाह। हुनका देखिकय सीताजी विस्मय सँ मुंह फेरि बैसि गेलीह (हुनकर मन मे आश्चर्य भेलनि)॥४॥
रामदूत हम मातु जानकी। सत्य शपथ करुणानिधान की॥
ई मुद्रिका मातु हम आनल। देला राम जे अहीं ल निशानी॥५॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी कहलखिन – ) हे माता जानकी! हम श्री रामजी केर दूत थिकहुँ। करुणानिधान केर सच शपथ लैत कहि रहल छी, हे माता! ई औंठी हमहीं अनलहुँ अछि। श्री रामजी हमरा अहींक वास्ते ई निशानी देलनि अछि॥५॥
नर बानर केर संग कहु केना। कहल कथा भेल संगति जेना॥६॥
भावार्थ:- (सीताजी पूछलखिन – ) नर और वानर केर संग कहू केना भेल? तखन हनुमानजी जेना-जेना संग भेल से सब कथा कहलखिन॥६॥
दोहा :
कपिक वचन सप्रेम सुनी उपजल मन विश्वास॥
जानल मन क्रम वचन ई कृपासिंधु केर दास॥१३॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी केर प्रेमयुक्त वचन सुनिकय सीताजीक मन मे विश्वास उत्पन्न भऽ गेलनि, ओ जानि लेली जे ई मन, वचन और कर्म सँ कृपासागर श्री रघुनाथजी केर दास छथि॥१३॥
चौपाई :
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़। सजल नयन पुलकावलि बाढ़॥
विरह समुद्र डूबैत हनुमान। भेलहुँ मोरा जहाज समान॥१॥
भावार्थ:- भगवान केर जन (सेवक) जानिकय अत्यंत गाढ़ा प्रीति भऽ गेलनि। आँखि मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि गेलनि और शरीर अत्यंत पुलकित भऽ गेलनि। (सीताजी कहलखिन – ) हे तात हनुमान्‌! विरहसागर मे डूबैत हमरा लेल अहाँ जहाज समान भेलहुँ॥१॥
कहू कुशल आब जाय बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराइ। कपि केहि हेतु धेलनि निठुराइ॥२॥
भावार्थ:- हम बलिहारी जाइत छी, आब छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित खर (दुष्ट) केर शत्रु सुखधाम प्रभु केर कुशल-मंगल कहू। श्री रघुनाथजी तऽ कोमल हृदय और कृपालु छथि। फेर हे हनुमान्‌! ओ कोन कारणे एना निष्ठुरता धारण कय लेलनि अछि?॥२॥
सहज बाइन सेवक सुखदायक। कहियो कि यादि करथि रघुनायक॥
कहियो नयन मोरा शीतल तात। होयत दरस श्याम मृदु गात॥३॥
भावार्थ:- सेवक केँ सुख देनाय हुनकर स्वाभाविक बाइन छन्हि। से श्री रघुनाथजी कि कहियो हमरा यादो करैत छथि कि? हे तात! कि कहियो हुनकर कोमल साँवला अंग देखिकय हमर नेत्र शीतल होयत?॥३॥
बजलो न जाय नैन भरि गेलनि। आह नाथ मोरा साफ बिसरलनि॥
देखि परम विरहाकुल सीता। बजला कपि मृदु वचन विनीता॥४॥
भावार्थ:- (मुँह सँ) वचन नहि निकलैत छन्हि, नेत्र मे (विरह केर नोरक) जल भरि एलनि। (बड़ा दुःख सँ ओ बजलीह – ) हा नाथ! अहाँ हमरा साफे बिसरा देलहुँ! सीताजी केँ विरह सँ परम व्याकुल देखिकय हनुमान्‌जी कोमल और विनीत वचन बजलाह – ॥४॥
मातु कुशल प्रभु अनुज समेत। अहींक दुखे दुखी कृपानिकेत॥
जुनि जननी मन छोट करू एना। अहाँ सँ प्रेम राम केँ दूना॥५॥
भावार्थ:-हे माता! सुंदर कृपा केर धाम प्रभु भाइ लक्ष्मणजी सहित (शरीर सँ) कुशल छथि, मुदा अहींक दुःख सँ दुःखी छथि। हे माता! मन छोट नहि करू। श्री रामचंद्र जी केर हृदय मे अहाँ दुगुना प्रेम छन्हि॥५॥
दोहा :
रघुपति केर संदेश अब सुनु जननी धरि धीर।
से कहि कपि गदगद भेला भरल विलोचन नीर॥१४॥
भावार्थ:- हे माता! आब धीरज धय कय श्री रघुनाथजीक संदेश सुनू। से कहिकय हनुमान्‌जी प्रेम सँ गद्गद भऽ गेलाह। हुनकर नेत्र मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि एलनि॥१४॥
चौपाई :
कहलनि राम वियोग फेर सीता। हमरा भेल सकल विपरीता॥
नव तरु किसलय मानू कृसानू। कालनिशा सम निशि शशि भानू॥१॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी बजलाह – ) श्री रामचंद्रजी कहलनि जे हे सीते! अहाँक वियोग मे हमरा लेल सब पदार्थ प्रतिकूल भऽ गेल अछि। वृक्षक नव-नव कोमल पत्ता मानू अग्नि केर समान, रात्रि कालरात्रि केर समान, चंद्रमा सूर्य केर समान॥१॥
कमल वन लागय भाल वन जेहेन। मेघ तपत तेल बरखा तेहेन॥
जे हित रहथि करथि से पीड़ा। साँप फोंफ सन त्रिविध समीरा॥२॥
भावार्थ:- आर कमलक वन भालक वन केर समान भऽ गेल अछि। मेघ मानू खौलैत तेल बरखा रहल अछि। जे करयवला रहथि, वैह सब आब पीड़ा देनिहार लगैत छथि। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप केर फोंफ समान (जहरीला और गरम) भऽ गेल अछि॥२॥
कहि देला सँ दुख किछु घटत। कहि केकरा कियो नहि बुझत॥
तत्व प्रेमक मोरा आ तोरा। जानय प्रिये एक मन मोरा॥३॥
भावार्थ:- मन केर दुःख कहि देला सँ सेहो किछु घटि जाइत छैक। मुदा कहू केकरा? ई दुःख कियो बुझिते नहि अछि। हे प्रिये! हमर-अहाँक प्रेम केर तत्त्व (रहस्य) एकटा हमरहि मन टा जनैत अछि॥३॥
से मन सदा रहत अहाँ पास। जानु प्रीति रसु एतबहि रास॥
प्रभु संदेश सुनथि वैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहि केही॥४॥
भावार्थ:- आर ओ मन सदिखन अहाँक पास रहैत अछि। बस, हमर प्रेम केर सार एतबे रास बात मे बुझि जाउ। प्रभु केर संदेश सुनिते जानकीजी प्रेम मे मग्न भऽ गेलीह। हुनका शरीर केर कोनो सुधि नहि रहलनि॥४॥
कहय कपि कनि धीर धरू माता। सुमिरू राम सेवक सुखदाता॥
बस सोचू रघुपति प्रभुताइ। सुनि मोरा वचन तजू कतराइ॥५॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी कहलखिन – हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू और सेवक सबकेँ सुख देनिहार श्री रामजी केर स्मरण करू। श्री रघुनाथजी केर प्रभुता केर बारे मात्र मन मे सोचू और हमर वचन सुनिकय एहि कतरेबाक (डरेबाक) काज छोड़ि दियौक॥५॥
दोहा :
निशिचर सबटा पतंग जेना रघुपति बाण कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरू जरल निशाचर जानु॥१५॥
भावार्थ:- राक्षस सभक समूह पतंग (गुड्डी) केर समान और श्री रघुनाथजी केर बाण अग्नि केर समान अछि। हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू और राक्षस सभ केँ जरले बुझू॥१५॥
चौपाई :
यदि रघुवीर अहाँक सुधि बुझितथि। ओ कनियो देरी नहि करितथि॥
राम बाण रवि उदय जानकी। राक्षस शक्ति अन्हार रहत की॥१॥
भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी जँ अहाँक समाचार पहिने पाबि गेल रहितथि त ओ कनिकबो देरी नहि करितथि। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य केर उदय भेला पर राक्षस लोकनिक शक्ति (सेना) केर अन्हार कतहु टिकि सकत?॥१॥
एखनहि मातु हम लय चलि जाय। प्रभु आज्ञा नहि राम दोहाय॥
किछुए दिन जननी धरू धीर। कपिन्ह सहित औता रघुवीर॥२॥
भावार्थ:- हे माता! हम त एखनहिं अहाँ केँ एतय सँ लय चलि जायब, मुदा श्री रामचंद्रजी केर शपथ, हमरा प्रभु (हुनकर) आज्ञा नहि अछि। (अतः) हे माता! किछु दिन आरो धीरज धरू। श्री रामचंद्रजी वानरसेना सहित एतय औता॥२॥
निशिचर मारि अहाँ केँ लय जेता। तिन लोक नारदादि यश गेता॥
छथि सुत कपि सब अहींक समान। राक्षसगण अति भट बलवान॥३॥
भावार्थ:- और राक्षस सभकेँ मारिकय अहाँ केँ लय जेता। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनू लोक मे हुनकर यश गेता। (सीताजी कहलखिन -) हे पुत्र! सब वानर अहींक समान (छोट-छोट) हेता, राक्षस सब त बड़ा बलवान आ योद्धा सब अछि॥३॥
मोरा हृदय परम संदेह। सुनि कपि प्रगट केलनि निज देह॥
कनक भूधराकार शरीर। समर भयंकर अतिबल वीर॥४॥
भावार्थ:- अतः हमरा हृदय मे बड़ा भारी संदेह होइत अछि (जे अहीं जेहेन वानर राक्षस सबकेँ कोना जीतत!)। ई सुनिकय हनुमान्‌जी अपन शरीर प्रकट कयलाह। सोनाक पर्वत (सुमेरु) केर आकारक (अत्यंत विशाल) शरीर छल, जे युद्ध मे शत्रु सभक हृदय मे भय उत्पन्न करयवला, अत्यंत बलवान्‌ और वीर छल॥४॥
सीता मन भरोस तखन भेलनि। पुनि लघु रूप पवनसुत धेलनि॥५॥
भावार्थ:- तखन (हुनका देखिकय) सीताजीक मन मे विश्वास भेलनि। हनुमान्‌जी फेरो छोट रूप धारण कय लेलाह॥५॥
दोहा :
सुनु माता शाखामृग नहि बल बुद्धि विशाल।
प्रभु प्रताप सँ गरुड़ो केँ खाय परम लघु ब्याल॥१६॥
भावार्थ:- हे माता! सुनू, वानर (शाखामृग) मे बहुत बल-बुद्धि नहि होइछ, मुदा प्रभु केर प्रताप सँ बहुते छोट साँप सेहो गरुड़ केँ खा सकैत अछि। (अत्यंत निर्बल सेहो महान्‌ बलवान्‌ केँ मारि सकैत अछि)॥१६॥
चौपाई :
मन संतोष सुनथि कपि वाणी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आशीष देली राम प्रिय जानि। होउ तात बल शील निधान॥१॥
भावार्थ:- भक्ति, प्रताप, तेज और बल सँ सानल हनुमान्‌जीक वाणी सुनिकय सीताजीक मोन मे संतोष भेलनि। ओ श्री रामजीक प्रिय जानिकय हनुमान्‌जी केँ आशीर्वाद देली जे हे तात! अहाँ बल और शील केर निधान होउ॥१॥
अजर अमर गुणनिधि सुत होउ। करहु बहुत रघुनायक छोहु॥
करहु कृपा प्रभु से सुनि कान। निर्भर प्रेम मगन हनुमान॥२॥
भावार्थ:- हे पुत्र! अहाँ अजर (बुढ़ापा सँ रहित), अमर और गुण केर खजाना होउ। श्री रघुनाथजी अहाँ पर बहुत कृपा करथि। ‘प्रभु कृपा करथि’ एना कान सँ सुनिते हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम मे मग्न भऽ गेलाह॥२॥
बेर बेर पद माथ नवेलनि। जोड़ि हाथ ई वचन ओ बजलनि॥
आब कृतकृत्य भेलउँ हम माता। आशीष अहाँक अमोघ विख्याता॥३॥
भावार्थ:- हनुमान्‌जी बेर-बेर सीताजीक चरण मे माथ नवेलनि आर फेर हाथ जोड़िकय कहलखिन – हे माता! आब हम कृतार्थ भऽ गेलहुँ। अहाँक आशीर्वाद अमोघ (अचूक) अछि, ई बात प्रसिद्ध छैक॥३॥
सुनू मातु मोरा लागल बड भूख। लागल देखि सुंदर फल रूख॥
सुनु सुत करय विपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥४॥
भावार्थ:- हे माता! सुनू, सुंदर फल लागल गाछ केँ देखिकय हमरा बड़ी जोर भूख लागि गेल अछि। (सीताजी कहलखिन -) हे बेटा! सुनू, बड़ा भारी योद्धा राक्षस एहि वन केर रखवारी करैत अछि॥४॥
तिनिकर भय माता मोरा नाहिं। जौं अहाँ सुख मानहु मन माहिं॥५॥
भावार्थ:- (हनुमान्‌जी कहलखिन -) हे माता! यदि अहाँ मन मे सुख मानब (प्रसन्न भऽ) आज्ञा दी तऽ हमरा ओकर भय तऽ बिल्कुले नहि अछि॥५॥

हनुमान्‌जी द्वारा अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षय कुमार वध और मेघनादक हनुमान्‌जी केँ नागपाश मे बान्हिकय सभा मे लऽ गेनाय