श्री तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्ड केर मैथिली अनुवाद
अनुवादकः प्रवीण नारायण चौधरी
प्रेरकः मैथिलीक वरिष्ठ साहित्यकार ‘लेखक रमेश’
शेष सम्पूर्ण कृपा श्री सीताराम व श्री गौरीशंकर संग स्वयं पवनसुत हनुमानजी छथि। महाकवि तुलसीदास प्रति पूर्ण श्रद्धा आ समर्पण संग हुनक गुण-धर्मक अंश मात्र भेटि जाय अपने पाठक लोकनि केँ, यैह सोचि ई ‘मैथिली सुन्दरकाण्ड’ राखि रहल छी। एहि सँ पूर्व श्री हनुमानचालीसा सेहो पोस्ट कय चुकल छी, अपने लोकनिक समर्थन – स्वीकार्यता प्रति हृदय सँ आभारी छी।
हरिः हरः!!
पंचम सोपान-मंगलाचरण
श्लोक :
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्॥१॥
भावार्थ : शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणहुँ सँ परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति दयवला, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी सँ निरंतर सेवित, वेदान्त द्वारा जानय योग्य, सर्वव्यापक, देवता लोकनि मे सबसँ पैघ, माया सँ मनुष्य रूप मे देखायवला, समस्त पाप केँ हरयवला, करुणा केर खान, रघुकुल मे श्रेष्ठ तथा राजा लोकनिक शिरोमणि राम कहेनिहार जगदीश्वर केर हम वंदना करैत छी॥१॥
शान्त शाश्वत अप्रमेय निष्पाप निर्वाण शान्तिप्रदायक
ब्रह्मा शम्भु फणीन्द्र मनीश वेदान्तवेद्य सर्वव्यापक।
जगदीश्वर सुरगुरु स्वयं हरिक माया मनुष्यरूप राम
करुणाकर रघुवर भूपालहु केर चुडामणि केँ प्रणाम॥१॥
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥२॥
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥२॥
भावार्थ : हे रघुनाथजी! हम सत्य कहैत छी आर फेर अहाँ तँ सभक अंतरात्मे थिकहुँ (सब किछु जनैत छी) जे हमर हृदय मे दोसर कोनो इच्छा नहि अछि। हे रघुकुलश्रेष्ठ! हमरा अपन निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दिअ और हमर मन केँ काम आदि दोष सँ रहित कय दिअ॥२॥
हे रघुपति! हमर हृदय मे आन कोनो इच्छा नहि
सत्य कहैछी स्वयं अहाँसँ सभक अन्तरात्मा छी अपने।
हे रघुकुलश्रेष्ठ! दिअ मात्र अपन निर्भरा भक्ति
करू मन हमर कामादि दोष रहित शक्ति॥२॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥३॥
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥३॥
भावार्थ : अतुल बल केर धाम, सोनाक पर्वत (सुमेरु) समान कान्तियुक्त शरीरवाला, दैत्य रूपी वन (केँ ध्वंस करयवला) केर लेल अग्नि रूप, ज्ञानियो मे अग्रगण्य, संपूर्ण गुण केर निधान, वानर केर स्वामी, श्री रघुनाथजी केर प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्जी केँ हम प्रणाम करैत छी॥३॥
अतुलितबल केर धाम छी स्वर्णपर्वत के समान
दनुजवन केर नाशक अग्नि ज्ञानी मे अग्रगण्य
सर्वगुणक छी अहाँ निधान हे वानराणामधीश
रघुपति केर प्रियभक्त पवनपुत्र केँ प्रणाम॥३॥