मैथिली सुन्दरकाण्डः दूत शुक द्वारा रावण केँ समझेनाय तथा लक्ष्मणजीक सन्देश देनाय

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मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

दूत शुक द्वारा रावण केँ समझेनाय तथा लक्ष्मणजीक सन्देश देनाय

दोहा :
कि भेल भेंट कि फिरि गेला श्रवण सुयश सुनि मोर।
कहे न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥५३॥
भावार्थ:- हुनका सँ तोहर भेंटो भेलौक या ओ सब हमर सुयश सुनिकय लौटि गेलाह? शत्रु सेनाक तेज आर बल बतबैत कियैक नहि छँ? तोहर चित्त बहुते चकित (चौंकल सन) भऽ रहल छौक॥५३॥
चौपाई :
नाथ कृपा कय पुछलहुँ जहिना। मानू कहल क्रोध तजि तहिना॥
मिलल जाय जेना अनुज अहाँके। जाइते राम तिलक जे लगाके॥१॥
भावार्थ:- (दूत कहलक -) हे नाथ! अहाँ जहना कृपा कयकेँ पुछलहुँ अछि, तहिना क्रोध छोड़िकय हमर कहब मानू (हमर बात पर विश्वास करू)। जखनहि अहाँक छोट भाइ श्री रामजी सँ जाय केँ मिलला, तखन हुनका जाइत देरी श्री रामजी हुनका राजतिलक लगा देलनि॥१॥
रावण दूत मोरा सुनि काना। कपि सब बाँधि देल दुःख नाना॥
श्रवण नासिका काटय लागलक। राम शपथ देलापर छोड़लक॥२॥
भावार्थ:- हम रावण केर दूत छी, ई कान सँ सुनिकय बानर हमरा सब केँ बान्हिकय बहुत कष्ट देलक, एतय धरि जे ओ हमरा सभक नाक-कान काटय लागल। श्री रामजी केर शपथ देले पर कहू जे ओ सब हमरा छोड़लक॥२॥
पुछलहुँ नाथ राम केर सेना। बदन कोटि शत वर्णत केना॥
नाना वरण भालु कपि धारी। विकट मुंह विशाल भयकारी॥३॥
भावार्थ:- हे नाथ! अहाँ श्री रामजी केर सेना पुछलहुँ, से ओ त सौ करोड़ मुंह सँ सेहो वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। अनेको रंग केर भालु और वानर केर सेना अछि, जे भयंकर मुंह वला, विशाल शरीर वला और भयानक अछि॥३॥
जे पुर दाह हतल सुत तोर। सकल कपि मे से बलि थोर॥
अमित नाम भट कठिन कराल। अमित नाग बल विपुल विशाल॥४॥
भावार्थ:- जे नगर केँ जरेलक और अहाँक पुत्र अक्षय कुमार केँ मारलक, ओकर बल त सब बानर मे थोड़बाक मात्र छैक। असंख्य नाम वला बड़ा ही कठोर और भयंकर योद्धा अछि। ओहि मे असंख्य हाथीक बल अछि आर ओ बड़ा विशाल अछि॥४॥
दोहा :
द्विविद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केसरि निशठ शठ जामवंत बलराशि॥५४॥
भावार्थ:- द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्‌ ई सब बल केर राशि छथि॥५४॥
चौपाई :
ई कपि सब सुग्रीव समाना। एहि सन कोटि गनय के नाना॥
राम कृपा अतुलित बल सभके। तृन समान त्रिलोक गनय जे॥१॥
भावार्थ:- ई सब वानर बल मे सुग्रीव केर समान अछि आर हिनका सब जेहेन (एक-दू नहि) करोड़ों छैक, ओतेक बहुते केँ के गानि सकैत अछि। श्री रामजी केर कृपा सँ सब मे अतुलनीय बल छैक। ओ तीनू लोक केँ तृण (तिनका) समान (तुच्छ) बुझैत अछि॥१॥
ई हम सुनल श्रवण दसकंधर। पद्म अठारह प्रमुखे बन्दर॥
नाथ सैन्यबल कुन कपि नाहिं। जे न अहाँकेँ जीतत रण माहिं॥२॥
भावार्थ:- हे दशग्रीव! हम कान सँ एना सुनलहुँ अछि जे अठारह पद्म त अकेले वानरक प्रमुख (सेनापति) छथि। हे नाथ! ओहि सेना मे एहेन कोनो बानर नहि अछि जे अहाँ केँ रण मे नहि जीति सकय॥२॥
परम क्रोध मीरय सब हाथ। आज्ञा टा नै देथि रघुनाथ॥
सोखब सिंधु सहित मत्स-साँप। नहि त पाटब पाथर झाँप॥३॥
भावार्थ:- सभक सभ एकदम क्रोध सँ हाथ मिरैत अछि। बस श्री रघुनाथजी ओकरा आज्ञा नहि दैत छथि। हम सब माछ और साँप सहित समुद्र केँ सोखि लेब। नहि तऽ बड़का-बड़का पाथर (पर्वत) सँ ओकरा पाटिकर पूरे झाँपि देब॥३॥
मर्दि गर्द मिलबी दसशीशा। एहने वचन कहत सब खीशा॥
गर्जय तर्जय सहज अशंका। मानू ग्रसय चाहत हो लंका॥४॥
भावार्थ:- और रावण केँ मसलिकय गर्दा (धूला) मे मिला देबैक। सब बानर एहने-एहने वचन कहि रहल अछि। सब सहजे निडर अछि, एहि तरहें गरजैत-डपटैत अछि मानू लंका केँ गिरय (निगलय) चाहैत हो॥४॥
दोहा :
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कते जीति सकत संग्राम॥५५॥
भावार्थ:- सब बानर-भालू सहजहि शूरवीर अछि आर फेर ओकरा सभक सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी छथि। हे रावण! ओ सब संग्राम में करोड़ों काल केँ जीति सकैत अछि॥५५॥
चौपाई :
राम तेज बल बुधि विपुलाइ। शेष सहस शत सकथि न गाइ॥
सके सर एक सोखि शत सागर। तोर भ्राते पुछलनि नीति नागर॥१॥
भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी केर तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि केर अधिकता केँ लाखो शेषजी सेहो नहि गाबि सकैत छथि। ओ एक्के बाण सँ सैकड़ों समुद्र केँ सोखि सकैत छथि, मुदा नीति निपुण श्री रामजी (नीति केर रक्षा लेल) अहाँक भाइ सँ उपाय पुछलनि॥१॥
हुनक वचन सुनि सागर पाहि। माँगथि पंथ कृपा मन माहि॥
सुनैत वचन बिहुँसल दसशीशा। जेँ यैह मति सहाय कृत कीशा॥२॥
भावार्थ:- हुनक (अहाँक भाइ केर) वचन सुनिकय ओ (श्री रामजी) समुद्र सँ बाट माँगि रहल छथि, हुनकर मन मे कृपा सेहो छन्हि (ताहि सँ ओ ओकरा सोखैत नहि छथि)। दूत केर ई वचन सुनिते देरी रावण खूब हँसल (और बाजल -) जेँ एहेन बुद्धि छैक, तेँ त बानर सब केँ सहायक बनेलक अछि!॥२॥
सहज भीरु केर वचन दृढ़ाइ। सागर सँ ठानल मचलाइ॥
मूढ़ मृषक कि करें बड़ाइ। रिपु बल बुद्धि थाह हम पाइ॥३॥
भावार्थ:- स्वाभाविके डरपोक विभीषण केर वचन केँ प्रमाण मानि ओ समुद्र सँ मचलाइ (बालहठ) ठानलक अछि। अरे मूर्ख! झूठे बड़ाई कियैक करैत छँ? बस, हम शत्रु (राम) केर बल और बुद्धि केर थाह पाबि लेलहुँ॥३॥
सचिव सभीत विभीषण जेकर। विजय विभूति कतय जग तेकर॥
सुनि खल वचन दूत रिस बाढ़ल। समय विचारि पत्रिका काढ़ल॥४॥
भावार्थ:- जेकर विभीषण जेहेन डरपोक मंत्री छैक, ओकरा जगत मे विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कतय! दुष्ट रावण केर वचन सुनिकय दूत केर क्रोध बढि आयल। ओ मौका बुझिकय पत्रिका निकाललक॥४॥
रामानुज देलनि ई पाँती। नाथ वचाइ जुड़ाबू छाती॥
बिहुँसि बाम कर लेलक रावण। सचिव कहि शठ लागल वाचन॥५॥
भावार्थ:- (और कहलकैक -) श्री रामजी केर छोट भाइ लक्ष्मण ई पत्र देलनि अछि। हे नाथ! एकरा वाचन करबाकय छाती ठंढा कयल जाउ। रावण हँसिकय ओ बायाँ हाथ सँ लेलक आर मंत्री केँ बजवाकय ओ मूर्ख ओकरा वाचन करय लागल॥५॥
दोहा :
बातहि मनहि रिझाय शठ जुनि कर निज कुल खीस।
राम विरोध न उबारि सके शरण विष्णु अज ईश॥५६ (क)॥
भावार्थ:- (पत्रिका मे लिखल छलैक -) अरे मूर्ख! केवल बातहि सँ मोन केँ रिझाकय अपन कुल केँ नष्ट-भ्रष्ट नहि करे। श्री रामजी सँ विरोध कयकेँ तूँ विष्णु, ब्रह्मा और महेश केर शरण गेलापर सेहो नहि बचमें॥५६ (क)॥
की तजि मान अनुज जेकाँ प्रभु पद पंकज भृंग।
हुए कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥५६ (ख)॥
भावार्थ:- या त अभिमान छोड़िकय अपन छोट भाइ विभीषण केर भाँति प्रभु केर चरण कमल केर भ्रमर बनि जो। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी केर बाण रूपी अग्नि (सर अनल) मे परिवार सहित फतिंगा बनि जो (दुनू मे सँ जे नीक लागउ से कर)॥५६ (ख)॥
चौपाई :
सुनैत सभय मन मुख मुसुकाइ। कहत दसानन सबके सुनाइ॥
भूमि पड़ल धरि गहय अकाश। लघु तापस करे बाग विलास॥१॥
भावार्थ:- पत्रिका सुनितहि रावण मोनेमन भयभीत भऽ गेल, मुदा मुंह सँ (ऊपर सँ) हँसैत ओ सब केँ सुनाकय कहय लागल – जेना कियो पृथ्वी पर पड़ल रहैत हाथ सँ आकाश केँ पकड़बाक चेष्टा करैत अछि, तहिना ई छोट तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करैत अछि (डींग हँकैत अछि)॥१॥
कह शुक नाथ सत्य सब वाणी। बुझू छोड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनू वचन मोरा परिहरि क्रोधा। नाथ राम सँ तजू विरोधा॥२॥
भावार्थ:- शुक (दूत) कहलकैक – हे नाथ! अभिमानी स्वभाव केँ छोड़िकय (एहि पत्र मे लिखल) सब बात केँ सत्य बुझू। क्रोध छोड़िकय हमर वचन सुनू। हे नाथ! श्री रामजी सँ वैरी त्यागि दिअ॥२॥
अति कोमल रघुवीर सुभाउ। यद्यपि अखिल लोक कर राउ॥
मिलत कृपा अहाँ पर प्रभु करता। हिय अपराध न एकहु धरता॥३॥
भावार्थ:- यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोक केर स्वामी छथि, लेकिन हुनकर स्वभाव बहुते कोमल अछि। मिलैत देरी प्रभु अहाँ पर कृपा करता आर अहाँक एकहु अपराध ओ हृदय मे नहि रखता॥३॥
जनकसुता रघुनाथ केँ दयदी। एतबा कहल मोर प्रभु कयदी॥
जखनहि ओ कहि देबय वैदेही। चरण प्रहार कयल शठ ओही॥४॥
भावार्थ:- जानकीजी श्री रघुनाथजी केँ दय दिऔन। हे प्रभु! एतेक कहब हमर करू। जखन ओ (दूत) जानकीजी केँ देबय लेल कहलक, तखन दुष्ट रावण ओकरा लात मारलक॥४॥
नाइ चरण सिर चलल ओ तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रणाम निज कथ सुनेलक। राम कृपाँ आपन गति पेलक॥५॥
भावार्थ:- ओहो (विभीषणहि जेकाँ) चरण मे सिर नमाकय ओतय चलल, जतय कृपासागर श्री रघुनाथजी छलाह। प्रणाम कय केँ ओ अपन कथा सुनेलक और श्री रामजी केर कृपा सँ अपना गति (मुनि केर स्वरूप) पाबि गेल॥५॥
ऋषि अगस्त केर शाप भवानी। राक्छस भेल रहल मुनि ज्ञानी॥
बंदि राम पद बेरम्बेरा। मुनि निज आश्रम केर पगधारा॥६॥
भावार्थ:- (शिवजी कहैत छथि -) हे भवानी! ओ ज्ञानी मुनि छल, अगस्त्य ऋषि केर शाप सँ राक्षस भऽ गेल छल। बेर-बेर श्री रामजी केर चरण केर वंदना कय केँ ओ मुनि अपन आश्रम केँ चलि गेलाह॥६॥