मैथिली सुन्दरकाण्डः श्रीरामजी द्वारा समुद्र सँ रास्ता देबाक लेल प्रार्थना – लक्ष्मणजी द्वारा रावण लेल शुक मार्फत सन्देश

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मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद

समुद्र पार करबाक लेल विचार, रावणदूत शुक केर एनाय और लक्ष्मणजी केर पत्र केँ लैत वापस जेनाय

सुनु कपीश लंकापति वीर। कुन विधि तरब जलधि गंभीर॥
संकुल मगर साँप मत्स जाति। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥३॥
भावार्थ:- हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनू, एहि गहींर समुद्र केँ कोन ढंग सँ पार कयल जाय? अनेक जाति केर मगरमच्छ, साँप और माछ सब सँ भरल रहल ई अत्यन्त अथाह समुद्र पार करय मे सब प्रकार सँ कठिन अछि॥३॥
कहे लंकेश सुनू रघुनायक। कोटि सिंधु शोषक तोर सायक॥
यद्यपि अहाँक नीति ई नाहिं। विनय करू सागर सँ जाहिं॥४॥
भावार्थ:- विभीषणजी कहलखिन – हे रघुनाथजी! सुनू, यद्यपि अहाँक एक बाण करोड़ों समुद्र केँ सोखयवला अछि (सोखि सकैत अछि), तथापि नीति एना कहल गेल अछि (उचित ई होयत) जे (पहिने) जाकय समुद्र सँ प्रार्थना कयल जाय॥४॥
दोहा :
प्रभु अहाँ के कुलगुरु जलधि कहत उपाय विचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरय सकल भालु कपि धारि॥५०॥
भावार्थ:- हे प्रभु! समुद्र अहाँक कुल मे बड़ (पूर्वज) छथि, ओ विचारिकय उपाय बतला देता। तखन रीछ और वानरों केर सारा सेना बिना कोनो परिश्रम के समुद्रक पार उतरि जायत॥५०॥
चौपाई :
सखा कहल अहाँ नीति उपाय। करब दैव जौँ होथि सहाय॥
मंत्र न ई लछुमन मन भायल। राम वचन सुनि अति दुख पायल॥१॥
भावार्थ:- (श्री रामजी कहलखिन -) हे सखा! अहाँ नीक उपाय बतेलहुँ। यैह कयल जाय, यदि दैव सहाय होइथ त। ई सलाह लक्ष्मणजीक मोन केँ नीक नहि लगलनि। रामजीक वचन सुनिकय त हुनका आरो बड़ दुःख भेलनि॥१॥
नाथ दैव केर कोन भरोसा। सोखू सिंधु करति मन रोसा॥
कायर मन केर एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥२॥
भावार्थ:- (लक्ष्मणजी कहलखिन -) हे नाथ! दैव केर कोन भरोसा! मोन मे क्रोध करू (लऽ आनू) और समुद्र केँ सुखा दियौक। ई दैव तऽ कायर केर मनक एक आधार (तसल्ली देबाक उपाय) छथि। आलसी लोक सब दैव-दैव पुकारल करैत अछि॥२॥
सुनथि बिहुँसि बजला रघुवीर। एहिना करब धरू मन धीर॥
से कहि प्रभु अनुज बुझाबथि। सिंधु समीप स्वयं जा पहुँचथि॥३॥
भावार्थ:- ई सुनिकय श्री रघुवीर हँसिकय बजलाह – तहिना करब, मोन मे धीरज राखू। एना कहिकय छोट भाइ केँ बुझाकय प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्रक नजदीक पहुँचलाह॥३॥
प्रथम प्रणाम कयल सिर नाइ। बैसला पुनि तट कुश बिछाइ॥
जखन विभीषण प्रभु लग एला। पाछू रावण दूत पठेला॥४॥
भावार्थ:- ओ पहिने माथ झुकाकय प्रणाम कयलनि। फेर किनार पर कुश बिछाकय बैसि गेलाह। एम्हर जहिना विभीषणजी प्रभुक पास आयल छलाह, तहिना रावण हुनका पाछाँ दूत पठेने छलय॥४॥
दोहा :
सकल चरित्र ओ देखलक धेने कपटि कपि देह।
प्रभु गुण हृदयँ सराहिते शरणागत पर नेह॥५१॥
भावार्थ:- कपट सँ बानर केर शरीर धारण कय ओ सब सबटा लीला देखलक। ओ अपना हृदय मे प्रभु केर गुण केर और शरणागत पर हुनकर स्नेह केर सराहना करय लागल॥५१॥
चौपाई :
प्रगट बखानय राम सुभाव। अति सप्रेम गबे बिसरि दुराव॥
रिपु केर दूत कपि सब जानल। सकल बाँधि कपीश लग आनल॥१॥
भावार्थ:- फेर ओ प्रकट रूप मे सेहो अत्यंत प्रेम केर संग श्री रामजीक स्वभावक बड़ाई करय लागल, ओ सब दुराव (कपट वेश) बिसरा गेलैक। सब वानर बुझि गेल जे ई शत्रु केर दूत छी और ओ सब ओकरा सबकेँ बाँधिकय सुग्रीवक पास लय अनलक॥१॥
कहे सुग्रीव सुनह सब बानर। अंग भंग कय पठबह निशिचर॥
सुनि सुग्रीव वचन कपि दौड़ल। बाँधि कटक चहुँ दिश फिरायल॥२॥
भावार्थ:- सुग्रीव कहलखिन – सब बानर लोकनि! सुने, राक्षस सब केँ अंग-भंग कय केँ पठा दे। सुग्रीव केर वचन सुनिकय बानर दौड़ल। दूत केँ बाँधिकय ओकरा सेनाक चारू बगल घुमेलक॥२॥
बहु प्रकार मारन कपि लागल। दीन पुकारत तदपि न त्यागल॥
जे हमार काटे नाक कान। शपथ कोसलाधीश न आन॥३॥
भावार्थ:- बानर ओकरा सब केँ अनेकों प्रकार सँ मारय लागल। ओ दीन बनिकय पुकार करय लागल – तैयो बानर सब ओकरा नहि छोड़लक। (तखन दूत आरो बेसी जोर सँ पुकार करैत कहलक – ) जे हमरा सभक नाक-कान काटत ओकरा कोशलाधीश श्रीराम जी केर शप्पत छैक॥३॥
सुनि लछुमन सब लग बजेला। दया लागि हँसि तुरत छोड़ेला॥
रावण केँ दीहनि ई पाँती। लछुमन वचन बाचे कुलघाती॥४॥
भावार्थ:- ई सुनिकय लक्ष्मणजी सब गोटा केँ नजदीक बजौलनि। हुनका बड़ा दया लगलनि, ताहि सँ हँसिकय ओ राक्षस केँ तुरन्ते छोड़ा देलनि। (आर ओकरा सब सँ कहला – ) रावण केर हाथ मे ई चिट्ठी दिहें (आर कहिहें – ) रे कुलघातक! लक्ष्मण केर संदेशा मानि ले॥४॥
दोहा :
कहे मुखागर मूढ़ सँ मोर संदेशु उदार।
सीता दय मिलय नहि त आयल कालु तोहार॥५२॥
भावार्थ:- फेर ओहि मूर्ख सँ मुंहजबानी ई हमर उदार (कृपा सँ भरल) संदेश कहिहें जे सीताजी केँ दय हुनका सँ (श्री रामजी सँ) मिलय, नहि त तोहर काल आबि गेल (बुझे)॥५२॥
चौपाई :
तुरत नाइ लछुमन पद माथा। चलल दूत वरणैत गुण गाथा॥
कहैत राम यश लंका आयल। रावण चरण शीश ओ नवायल॥१॥
भावार्थ:- लक्ष्मणजी केर चरण मे मस्तक नवाकय, श्री रामजी केर गुण सभक कथा वर्णन करैते दूत तुरंते चलि देलक। श्री रामजी केर यश कहैते ओ लंका मे आयल आर ओ रावणक चरण मे सिर नवेलक॥१॥
बिहुँसि दसानन पूछलक बात। कहे न सुक अपन कुशलात॥
पुनि कहे खबरि विभीषन केर। जेकरा मृत्यु आबि अति नेर॥२॥
भावार्थ:- दशमुख रावण हँसैत बात पुछलक – अरे शुक! अपन कुशल कियैक नहि कहैत छँ? फेर ओहि विभीषणक समाचार सुना, मृत्यु जेकर अत्यन्त नजदीक आबि गेल छैक॥२॥
करैत राज लंका शठ त्यागल। होयत जौ केर कीट अभागल॥
पुनि कहु भालु बानरक सेना। कठिन काल प्रेरित आबे एना॥३॥
भावार्थ:- मूर्ख राज्य करैत लंका केँ त्यागि देलक। अभागल आब जौ केर कीड़ा (घुन) बनत (जौ केर संग जेना घुन सेहो पिसा जाइत छैक, तहिना ओहो नर-वानरक संग मारल जायत), फेर भालु और बानरक सेनाक हाल कहे, जे कठिन काल केर प्रेरणा सँ एतय चलि आयल अछि॥३॥
जिनकर जीवन केर रखवारा। भेल मृदुल चित सिंधु बेचारा॥
कहु तपसी केर बात बहुरि। जिनकर हृदय मे त्रास अत मोरि॥४॥
भावार्थ:- और जिनकर जीवनक रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बनि गेल अछि (अर्थात्‌) ओकरा और राक्षस सभक बीच मे यदि समुद्र नहि होइतैक त एखन धरि राक्षस सब ओकरा सब केँ मारिकय खा गेल रहैत। फेर ओहि तपस्वी सभक बात बताउ जिनकर हृदय मे हमर बड़ा बेसी भय अछि॥४॥