मैथिली सुन्दरकाण्डः श्री तुलसीदासजी रचित श्रीरामचरितमानस केर सुन्दरकाण्डक मैथिली अनुवाद
विभीषण केर भगवान् श्री रामजी केर शरण वास्ते प्रस्थान और शरण प्राप्ति
दोहा:
राम सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालवश तोर।
हम रघुवीर शरण चली देब दोष नहि मोर॥४१॥
हम रघुवीर शरण चली देब दोष नहि मोर॥४१॥
भावार्थ:- श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु छथि आर (हे रावण) तोहर सभा काल केर वश अछि। अतः हम आब श्री रघुवीर केर शरण जाइत छी, हमरा दोष नहि देब॥४१॥
चौपाई :
से कहि चलल विभीषण जखनहि। आयूहीन भेल सब तखनहि॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। करे कल्याण अखिल के हानी॥१॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। करे कल्याण अखिल के हानी॥१॥
भावार्थ:- एना कहिकय विभीषणजी जहिना चलला, तहिना सब आयुहीन भऽ गेल। (ओकरा सभक मृत्यु निश्चित भऽ गेलैक)। (शिवजी कहैत छथि -) हे भवानी! साधु केर अपमान तुरंतहि संपूर्ण कल्याण केर हानि (नाश) कय दैत अछि॥१॥
रावन जखने विभीषन त्यागल। भेल विभव बिनु तखने अभागल॥
चलल हरषि रघुनायक पाहीं। करैत मनोरथ बहु मन माहीं॥२॥
चलल हरषि रघुनायक पाहीं। करैत मनोरथ बहु मन माहीं॥२॥
भावार्थ:- रावण जाहि क्षण विभीषण केँ त्यागलक, वैह क्षण ओ अभागल वैभव (ऐश्वर्य) सँ हीन भऽ गेल। विभीषणजी हर्षित भऽ कय मन मे अनेकों मनोरथ करैते श्री रघुनाथजीक पास चललाह॥२॥
देखब जाय चरण जलजाता। अरुण मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद पड़ैत तरल ऋषिनारी। दंडक कानन पावनकारी॥३॥
जे पद पड़ैत तरल ऋषिनारी। दंडक कानन पावनकारी॥३॥
भावार्थ:- (ओ सोचैत जाइत छथि -) हम जाकय भगवान् केर कोमल और लाल वर्ण केर सुंदर चरण कमल केर दर्शन करब, जे सेवक सब केँ सुख दयवला छी, जाहि चरण केर स्पर्श पाबिकय ऋषि पत्नी अहल्या तरि गेलीह आर जे दंडकवन केँ पवित्र करयवला अछि॥३॥
जे पद जनकसुता हिय राखथि। कपट कुरंग संग जे धाबथि॥
हर हिय सर सरोज पद जिनका। अहोभाग्य हम देखब तिनका॥४॥
हर हिय सर सरोज पद जिनका। अहोभाग्य हम देखब तिनका॥४॥
भावार्थ:- जाहि चरण केँ जानकीजी हृदय मे धारण कय रखने छथि, जे कपटमृग केर संग पृथ्वी पर (ओकरा पकड़बाक लेल) दौड़ल छलाह आर जे चरणकमल साक्षात् शिवजी केर हृदय रूपी सरोवर मे विराजैत अछि, हमर अहोभाग्य अछि जे हुनके आइ हम देखब॥४॥
दोहा :
जेहि पैरक ओ पादुका भरत रखति मन लाए।
से पद आइ विलोकबय ई नयना आब जाए॥४२॥
से पद आइ विलोकबय ई नयना आब जाए॥४२॥
भावार्थ:- जाहि चरण पादुका (खराम) मे भरतजी अपन मन लगा रखने छथि, अहा! आइ हम वैह चरण केँ एखनहि जाय केँ एहि आँखि सँ देखब॥४२॥
चौपाई :
एहि विधि करैत सप्रेम विचार। अयला सपदि सिंधु एहि पार॥
कपि सब हुनका आबैत देखि। बुझे कोनो रिपु दूत विशेष॥१॥
कपि सब हुनका आबैत देखि। बुझे कोनो रिपु दूत विशेष॥१॥
भावार्थ:- एहि तरहें प्रेमसहित विचार करैते ओ शीघ्रहि समुद्रक एहि पार (जेम्हर श्री रामचंद्रजीक सेना छल) आबि गेला। वानर सब विभीषण केँ अबैत देखलक त ओ सब बुझलक जे शत्रु केर कोनो खास दूत छी॥१॥
हुनका रोकि कपीश लग एला। समाचार सब हुनका सुनेला॥
कहला सुग्रीव सुनू रघुराइ। आयल भेटय दसानन भाइ॥२॥
भावार्थ:- हुनका (पहरा पर) रोकिकय ओ सुग्रीव केर पास एला आर हुनका सब समाचार कहि सुनेला। सुग्रीव तखन (श्री रामजी के पास आबिकय) कहला – हे रघुनाथजी! सुनू, रावण केर भाइ (अहाँ सँ) भेटय आयल अछि॥२॥
प्रभु पुछथि कहू केहेन बुझाय। कहत कपीश नरराज सुनाय॥
जानि नै जाय निशाचर माया। कामरूप कुन कारण आया॥३॥
जानि नै जाय निशाचर माया। कामरूप कुन कारण आया॥३॥
भावार्थ:- प्रभु श्री रामजी कहलखिन – हे मित्र! अहाँ कि बुझि रहल छी (अहाँक राय कि अछि)? वानरराज सुग्रीव कहलखिन – हे महाराज! सुनू, राक्षस सभक माया जानय मे नहि अबैत अछि। ई इच्छानुसार रूप बदलयवला (छली) नहि जानि कोन कारण आयल अछि॥३॥
भेद लेबय जेना ई शठ आयल। राखी बान्हि मोरा से भायल॥
सखा नीति अहाँ नीकि विचारल। हम शरणागतक डर उबारल॥४॥
सखा नीति अहाँ नीकि विचारल। हम शरणागतक डर उबारल॥४॥
भावार्थ:- (बुझि पड़ैत अछि) ई मूर्ख हमरा लोकनिक भेद लेबय आयल अछि, ताहि लेल हमरा त यैह नीक लगैत अछि जे एकरा बान्हिकय राखल जाय। (श्री रामजी कहलखिन -) हे मित्र! अहाँ नीति तऽ नीक विचारलहुँ, परंतु हमर प्रण त अछि शरणागत केँ डर सँ उबारि देनाय!॥४॥
सुनि प्रभु वचन हरष हनुमाना। शरणागत वत्सल भगवाना॥५॥
भावार्थ:- प्रभु केर वचन सुनिकय हनुमान्जी हर्षित भेलाह (और मनहि मन कहय लगलाह कि) भगवान् केना शरणागतवत्सल (शरण मे आयल रहल पर पिता केर भाँति प्रेम करयवला) छथि॥५॥
दोहा :
शरणागत केँ जे तेजय निज अनहित अनुमानि।
से नर पाँमर पापमय देखितो ओकरा हानि॥४३॥
से नर पाँमर पापमय देखितो ओकरा हानि॥४३॥
भावार्थ:- (श्री रामजी फेर बजलाह -) जे मनुष्य अपन अहित के अनुमान कय केँ शरण मे आयल रहल केँ त्याग कय दैत अछि, ओ पामर (क्षुद्र) थिक, पापमय थिक, ओकरा देखनहियो सँ हानि टा (पाप टा लगैत) छैक॥४३॥
चौपाई :
कोटि विप्र वध लागल जेकरो। आयल शरण तेजू नहि तेकरो॥
सन्मुख होय जीव मोरा जखने। जन्म कोटि अघ नाशय तखने॥१॥
सन्मुख होय जीव मोरा जखने। जन्म कोटि अघ नाशय तखने॥१॥
भावार्थ:- जेकरा करोड़ों ब्राह्मणहु केर हत्याक पाप लागल हो, शरण मे अयला पर हम ओकरो नहि त्यागैत छी। जीव जखनहि हमर सोझाँ (सम्मुख) होइत अछि, तखनहि ओकर करोड़ों जन्मक पाप नष्ट भऽ जाइत छैक॥१॥
पापवंत केर सहज सुभाउ। भजनु मोर ओहि भाव न काहु॥
जौँ ओ दुष्ट हृदय केर होयत। हमरा सन्मुख आबि कि सकत॥२॥
जौँ ओ दुष्ट हृदय केर होयत। हमरा सन्मुख आबि कि सकत॥२॥
भावार्थ:- पापी केर यैह सहज स्वभाव होइत छैक जे हमर भजन ओकरा कहियो नहि सोहेतय। यदि ओ (रावण के भाइ) निश्चय सँ दुष्ट हृदय केर होयत त कि ओ हमरा सम्मुख आबि सकैत छल?॥२॥
निर्मल मन जन से मोरा पाबय। मोर कपट छल छिद्र नै भाबय॥
भेद लेबय पठबे दसशीशा। तखनों न किछु भय हानि कपीशा॥३॥
भेद लेबय पठबे दसशीशा। तखनों न किछु भय हानि कपीशा॥३॥
भावार्थ:- जे मनुष्य निर्मल मन केर होइत अछि, वैह टा हमरा प्राप्त करैत अछि। हमरा कपट और छल-छिद्र नहि सोहाइछ। यदि ओकरा रावण भेदे लय लेल पठेलक अछि, तैयो हे सुग्रीव! अपना सब केँ कनिकबो भय या हानि नहि अछि॥३॥
जग भरि सखा निशाचर जतेक। लछुमन हनथि निमिष मे ततेक॥
जौँ सभीत आबय ओ शरण मे। राखब ओकर प्राण आ कि नै॥४॥
जौँ सभीत आबय ओ शरण मे। राखब ओकर प्राण आ कि नै॥४॥
भावार्थ:- कियैक त हे सखे! जगत मे जतेको राक्षस सब अछि, लक्ष्मण क्षणहि भरि मे ओकरा सब केँ मारि सकैत छथि और यदि ओ भयभीत भऽ कय हमर शरण आयल अछि त हम त ओकरा प्राणहि जेकाँ राखब॥४॥
दोहा :
दुनू हाल हुनका आनू हँसि कहे कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चलू अंगद हनू समेत॥४४॥
जय कृपाल कहि कपि चलू अंगद हनू समेत॥४४॥
भावार्थ:- कृपा केर धाम श्री रामजी हँसिकय कहलखिन – दुनू स्थिति मे हुनका लय आनू। तखन अंगद आर हनुमान् सहित सुग्रीवजी ‘कपालु श्री रामजी की जय हो’ कहिते विदाह भेला॥४४॥
चौपाई :
सादर हुनका आगू करि बानर। चलल जतय रघुपति करुणाकर॥
दूरहि से देखला दुओ भ्राता। नयनानंद दान केर दाता॥१॥
दूरहि से देखला दुओ भ्राता। नयनानंद दान केर दाता॥१॥
भावार्थ:- विभीषणजी केँ आदर सहित आगू कय केँ वानर फेर ओतय चलल, जतय करुणा केर खान श्री रघुनाथजी रहथि। नेत्र केँ आनंद केर दान दयवला (अत्यंत सुखद) दुनू भाइ केँ विभीषणजी दूरहि सँ देखलनि॥१॥
बहुरि राम छविधाम विलोकथि। रहथि ठठा एकटक पल रोकथि॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। श्यामल गात प्रणत भय मोचन॥२॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। श्यामल गात प्रणत भय मोचन॥२॥
भावार्थ:- फेर शोभा केर धाम श्री रामजी केँ देखिकय ओ पलक (झपकनाय) रोकिकय ठठाकय (स्तब्ध होइत) एकटक देखिते रहि गेलाह। भगवान् केर विशाल भुजा छन्हि, लाल कमल केर समान नेत्र छन्हि और शरणागत केर भयक नाश करयवला साँवला शरीर छन्हि॥२॥
सिंह कन्ध विशाल हिया सोहय। आनन अमित मदन मन मोहय॥
नयन नीर पुलकित अति गात। मन धय धीर कहल मृदु बात॥३॥
नयन नीर पुलकित अति गात। मन धय धीर कहल मृदु बात॥३॥
भावार्थ:- सिंह समान कंधा छन्हि, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ा छाती) अत्यंत शोभा दय रहल अछि। असंख्य कामदेव केर मन केँ मोहित करयवला मुख (अनुहार) छन्हि। भगवान् केर स्वरूप केँ देखिकय विभीषणजी केर आँखि मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि आयल और शरीर अत्यंत पुलकित भऽ गेल। फेर मन मे धीरज धय कय ओ कोमल वचन कहला॥३॥
नाथ दसानन केर हम भ्राता। निशिचर वंश जन्म सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देह। यथा उलूकहि तम पर नेह॥४॥
सहज पापप्रिय तामस देह। यथा उलूकहि तम पर नेह॥४॥
भावार्थ:- हे नाथ! हम दशमुख रावण केर भाइ छी। हे देवता सभक रक्षक! हमर जन्म राक्षस कुल मे भेल अछि। हमर तामसी शरीर अछि, स्वभावहि सँ हमरा पाप प्रिय अछि, जेना उल्लू केँ अन्हार सँ सहज स्नेह होइत छैक॥४॥
दोहा :
श्रवण सुयश सुनि एलहूँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरण शरण सुखद रघुवीर॥४५॥
त्राहि त्राहि आरति हरण शरण सुखद रघुवीर॥४५॥
भावार्थ:- हम कान सँ अपनेक सुयश सुनिकय आयल छी जे प्रभु भव (जन्म-मरण) केर भय केँ नाश करयवला छथि। हे दुखियाक दुःख दूर करनिहार आर शरणागत केँ सुख देनिहार श्री रघुवीर! हमर रक्षा करू, रक्षा करू॥४५॥
चौपाई :
एते कहि करैत दंडवत देख। तुरत उठथि प्रभु हरखि विशेष॥
दीन वचन सुनि प्रभु मन भायल। भुज विशाल गहि हृदय लगायल॥१॥
दीन वचन सुनि प्रभु मन भायल। भुज विशाल गहि हृदय लगायल॥१॥
भावार्थ:- प्रभु हुनका एना कहिकय दंडवत् करैत देखलथि त ओ अत्यन्त हर्षित भऽ कय तुरन्त उठला। विभीषणजी केर दीन वचन सुनला पर प्रभु केर मन केँ बहुत भावलनि। ओ अपन विशाल भुजा सँ पकड़िकय हुनका हृदय सँ लगा लेलनि॥१॥
अनुज सहित मिलि पास बैसाकय। बजला वचन भक्त भय हरिकय॥
कहु लंकेश सहित परिवार। कुशल कुठाम अछि बास तोहार॥२॥
कहु लंकेश सहित परिवार। कुशल कुठाम अछि बास तोहार॥२॥
भावार्थ:- छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित गला मिलिकय हुनका अपना पास बैसाकय श्री रामजी भक्त सभक भय के हरण करयवला वचन बजलाह – हे लंकेश! परिवार सहित अपन कुशल कहू। अहाँक निवास बड खराब जगह पर अछि॥२॥
खल मंडली बसी दिन राति। सखा धर्म निबहइ कुन भाँति॥
हम जानी तोहर सब रीति। अति छी निपुण न भाव अनीति॥३॥
हम जानी तोहर सब रीति। अति छी निपुण न भाव अनीति॥३॥
भावार्थ:- दिन-राति दुष्ट सभक मंडली मे रहैत छी। (एहेन दशा मे) हे सखे! अहाँक धर्म कोन तरहें निबहैत अछि? हम अहाँक सब रीति (आचार-व्यवहार) जनैत छी। अहाँ अत्यन्त नीतिनिपुण छी, अहाँ केँ अनीति नहि सोहाइत अछि॥३॥
बरु भले बास नरक केर ताता। दुष्ट संग जनि देथि विधाता॥
आब पद देखि कुशल रघुराया। जौँ अपने करि जानि जन दाया॥४॥
आब पद देखि कुशल रघुराया। जौँ अपने करि जानि जन दाया॥४॥
भावार्थ:- हे तात! नरक मे रहनाय बरु नीक छैक, मुदा विधाता दुष्ट केर संग (कदापि) नहि देथि। (विभीषण जी कहलखिन – ) हे रघुनाथजी! आब अहाँ चरणक दर्शन कय कुशल सँ छी, जे अपने अपन सेवक जानिकय हमरा ऊपर दया कयलहुँ अछि॥४॥
दोहा :
ता धरि कुशल न जीव कतहु सपनेहुँ मन विश्राम।
जा धरि भजत न राम कहुँ शोक धाम तजि काम॥४६॥
जा धरि भजत न राम कहुँ शोक धाम तजि काम॥४६॥
भावार्थ:- ता धरि जीव केर कुशल नहि और न स्वप्नहुँ मे ओकर मन केँ शांति होइछ, जा धरि ओ शोक केर घर काम (विषय-कामना) केँ छोड़िकय श्री रामजी केँ नहि भजैत अछि॥४६॥
चौपाई :
ता धरि हृदय बसत खल नाना। लोभ मोह मत्सर मद माना॥
जा धरि हिय न बसथि रघुनाथा। धरे चाप सायक कटि भाथा॥१॥
जा धरि हिय न बसथि रघुनाथा। धरे चाप सायक कटि भाथा॥१॥
भावार्थ:- लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तखनहि धरि हृदय मे बसैत अछि, जाबत धरि कि धनुष-बाण और डाँर्ह मे तरकस धारण कएने श्री रघुनाथजी हृदय मे नहि बसैत छथि॥१॥
ममता तरुण तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
ता धरि बसत जीव मन माहीं। जा धरि प्रभु प्रताप रवि नाहीं॥२॥
ता धरि बसत जीव मन माहीं। जा धरि प्रभु प्रताप रवि नाहीं॥२॥
भावार्थ:- ममता पूर्ण अन्हरिया राति छी, जे राग-द्वेष रूपी उल्लू सब केँ सुख दयवाली थिक। वैह (ममता रूपी रात्रि) ता धरि तक जीव केर मन मे बसैत अछि, जा धरि तक प्रभु (अहाँ) केर प्रताप रूपी सूर्य उदय नहि होइत छैक॥२॥
आब हम कुशल मिटल भय भार। देखि राम पद कमल तोहार॥
अहाँके कृपाल जै पर अनुकूल। तेकरा न ब्यापे त्रिविध भव शूल॥३॥
अहाँके कृपाल जै पर अनुकूल। तेकरा न ब्यापे त्रिविध भव शूल॥३॥
भावार्थ:- हे श्री रामजी! अहाँक चरणारविन्द केर दर्शन कय आब हम कुशल सँ छी, हमर भारी भय मेटा गेल। हे कृपालु! अहाँ जेकरा ऊपर अनुकूल होइत छी, ओकरा तीनू प्रकार केर भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहि व्यापैत छैक॥३॥
हम निशिचर अति अधम सुभाउ। शुभ आचरण कयल नहि काहु॥
जाहि रूप मुनि ध्यान न आबे। से प्रभु हर्षि हृदय मोरे लगाबे॥४॥
जाहि रूप मुनि ध्यान न आबे। से प्रभु हर्षि हृदय मोरे लगाबे॥४॥
भावार्थ:- हम अत्यंत नीच स्वभाव केर राक्षस छी। हम कहियो शुभ आचरण नहि कयलहुँ। जिनकर रूप मुनियो सभक ध्यान मे नहि अबैछ, से प्रभु स्वयं हर्षित भऽ कय हमरा हृदय सँ लगा लेलनि॥४॥
दोहा :
अहोभाग्य मोर अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखल नयन विरंचि शिव सेब्य युगल पद कंज॥४७॥
देखल नयन विरंचि शिव सेब्य युगल पद कंज॥४७॥
भावार्थ:- हे कृपा और सुख केर पुंज श्री रामजी! हमर अत्यंत असीम सौभाग्य अछि, जे हम ब्रह्मा और शिवजी केर द्वारा सेवित युगल चरण कमल केँ अपन नेत्र सँ देखलहुँ॥४७॥
चौपाई :
सुनू सखा निज कही सुभाउ। जाने भुसुंडि शंभु गिरिजाउ॥
जौँ नर होय चराचर द्रोही। आबय सभय शरण धरि मोही॥१॥
जौँ नर होय चराचर द्रोही। आबय सभय शरण धरि मोही॥१॥
भावार्थ:- (श्री रामजी कहलखिन -) हे सखा! सुनू, हम अहाँ केँ अपन स्वभाव कहैत छी, जेकरा काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी सेहो जनैत छथि। कोनो मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत् केर द्रोही हो, यदि ओहो भयभीत भऽ कय हमर शरण धरि तक आबि जाय,॥१॥
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य ओहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥२॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥२॥
भावार्थ:- और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्यागि दिए त हम ओकरा बहुत जल्दी साधु समान कय दैत छी। माता,पिता, भाइ, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र आ परिवार॥२॥
सब केर ममता ताग बटोरी। मोरे पद मने बान्हि बाँटि डोरी॥
समदरसी इच्छा किछु नाहिं। हर्ष शोक भय नहि मन माहिं॥३॥
समदरसी इच्छा किछु नाहिं। हर्ष शोक भय नहि मन माहिं॥३॥
भावार्थ:- एहि सब के ममत्व रूपी ताग केँ बाँटिकय (बटोरिकय) और ओहि सभटाक डोरी बनाकय ओकरा द्वारा जे अपन मन केँ हमर चरण मे बान्हि दैत अछि, (सारा सांसारिक संबंधक केन्द्र हमरा बना लैत अछि),जे समदर्शी अछि, जेकरा कोनो इच्छा नहि छैक आर जेकरा मन मे हर्ष, शोक आर भय नहि छैक॥३॥
एहेन सजन मोरे हिय बसे केना। लोभी हृदय बसय धन जेना॥
तोहर जेहेन संत प्रिय मोरा। धरी देह नहि आन निहोरा॥४॥
तोहर जेहेन संत प्रिय मोरा। धरी देह नहि आन निहोरा॥४॥
भावार्थ:- एहेन सज्जन हमर हृदय मे केना बसैत छथि, जेना लोभीक हृदय मे धन बसल करैत अछि। अहाँ समान संत टा हमरा प्रिय छथि। हम और केकरो निहोरा सँ (कृतज्ञतावश) देह धारण नहि करैत छी॥४॥
दोहा :
सगुण उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
से नर प्राण समान मोरा जिनका द्विज पद प्रेम॥४८॥
से नर प्राण समान मोरा जिनका द्विज पद प्रेम॥४८॥
भावार्थ:- जे सगुण (साकार) भगवान् केर उपासक छथि, दोसरक हित मे लागल रहैत छथि, नीति और नियम मे दृढ़ छथि और जिनका ब्राह्मण केर चरण मे प्रेम छन्हि, से मनुष्य हमरा प्राणक समान छथि॥४८॥
चौपाई :
सुनु लंकेश सकल गुण तोरे। तै सँ अहाँ अतिशय प्रिय मोरे॥
राम वचन सुनि बानरी सेना। सकल कहय जय कृपा निधाना॥१॥
राम वचन सुनि बानरी सेना। सकल कहय जय कृपा निधाना॥१॥
भावार्थ:- हे लंकापति! सुनू, अहाँक अंदर उपर्युक्त सब गुण अछि। एहि सँ अहाँ हमरा अत्यन्त प्रिय छी। श्री रामजी के वचन सुनिकय सब वानर केर समूह कहय लागल – कृपा केर समूह श्री रामजी केर जय हो॥१॥
सुनैत विभीषण प्रभु के वाणी। नहि अघाय श्रवणामृत जानी॥
पद अंबुज गहय बेरम्बेरा। हृदय समाय नहि प्रेम अपारा॥२॥
पद अंबुज गहय बेरम्बेरा। हृदय समाय नहि प्रेम अपारा॥२॥
भावार्थ:- प्रभु केर वाणी सुनैत छथि और ओकरा कानक लिए अमृत जानिकय विभीषणजी अघाइत नहि छथि। ओ बेर-बेर श्री रामजीक चरण कमल केँ पकड़ैत छथि, अपार प्रेम अछि, हृदय मे समाएत नहि अछि॥२॥
सुनू देव सचराचर स्वामी। प्रणतपाल हिय अंतर्यामी॥
हिया किछु पहिने वासना रहल। प्रभु पद प्रीति सरित से बहल॥३॥
हिया किछु पहिने वासना रहल। प्रभु पद प्रीति सरित से बहल॥३॥
भावार्थ:- (विभीषणजी कहलखिन -) हे देव! हे चराचर जगत् के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सभक हृदय के भीतर के जननिहार! सुनू, हमर हृदय मे पहिने किछु वासना छल। से प्रभु केर चरण केर प्रीति रूपी नदी मे बहि गेल॥३॥
आब कृपाल निज भक्ति पावनी। दिअ सदा शिव मन के भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा। माँगल तुरत सिंधु कर नीरा॥४॥
एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा। माँगल तुरत सिंधु कर नीरा॥४॥
भावार्थ:- आब त हे कृपालु! शिवजी केर मन केँ सदैव प्रिय लागयवला अपन पवित्र भक्ति हमरा दिअ। ‘एवमस्तु’ (अहिना हो) कहिकय रणधीर प्रभु श्री रामजी तुरंते समुद्रक जल माँगलनि॥४॥
यद्यपि सखा तोर इच्छा नाहीं। मोरे दरशु अमोघ जग माहीं॥
से कहि राम तिलक ओहि ढारा। सुमन वृष्टि नभ भेल अपारा॥५॥
से कहि राम तिलक ओहि ढारा। सुमन वृष्टि नभ भेल अपारा॥५॥
भावार्थ:- (और कहला -) हे सखा! यद्यपि अहाँक इच्छा नहि अछि मुदा जगत् मे हमर दर्शन अमोघ अछि (ओ निष्फल नहि जाइछ)। एना कहिकय श्री रामजी हुनका राजतिलक लगा देलनि। आकाश सँ पुष्प केर अपार वृष्टि भेल॥५॥
दोहा :
रावण क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरैत विभीषण राखलनि देलनि राज अखंड॥४९ (क)॥
जरैत विभीषण राखलनि देलनि राज अखंड॥४९ (क)॥
भावार्थ:- श्री रामजी द्वारा रावण केर क्रोध रूपी अग्नि मे, जे अपन (विभीषण केर) श्वाँस (वचन) रूपी पवन सँ प्रचंड भऽ रहल छल, से जरैत विभीषण केँ बचा लेल गेल आर हुनका अखंड राज्य देल गेल॥४९ (क)॥
जे संपति शिव रावणे दय देलनि दस माथ।
सैह संपदा विभीषणे सकुचि देलनि रघुनाथ॥४९ (ख)॥
सैह संपदा विभीषणे सकुचि देलनि रघुनाथ॥४९ (ख)॥
भावार्थ:- शिवजी जे संपत्ति रावण केँ दसो सिर केर बलि देला पर देने रहथि, वैह संपत्ति श्री रघुनाथजी विभीषण केँ बहुते सकुचाइते (लजाइते) देलनि॥४९ (ख)॥
चौपाई :
एहेन प्रभु छोड़ि भजय जे आन। से नर पशु बिनु पूँछ बिषान॥
निज जन जानि हुनका अपनेला। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भयला॥१॥
निज जन जानि हुनका अपनेला। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भयला॥१॥
भावार्थ:- एहेन परम कृपालु प्रभु केँ छोड़िकय जे मनुष्य दोसर केँ भजैत अछि, ओ बिना सींग-पूँछ केर पशु थिक। अपन सेवक जानिकय विभीषण केँ श्री रामजी द्वारा अपना लेल गेल। प्रभु केर स्वभाव वानरकुल केर मन केँ बहुत भायल॥१॥
पुनि सर्वज्ञ सर्व हिया वासी। सर्वरूप सब रहित उदासी॥
बजला वचन नीति प्रतिपालक। कारण मनुज दनुज कुल घालक॥२॥
बजला वचन नीति प्रतिपालक। कारण मनुज दनुज कुल घालक॥२॥
भावार्थ:- फेर सब किछु जननिहार, सभक हृदय मे बसनिहार, सर्वरूप (सब रूप मे प्रकट), सब सँ रहित, उदासीन, कारण सँ (भक्त सब पर कृपया करबाक लेल) मनुष्य बनल रहि तथा राक्षसक कुल केँ नाश करनिहार श्री रामजी नीति केर रक्षा करयवला वचन बजलाह – ॥२॥