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कलियुग कि थीक: सत्य दर्शन

युगक सामान्य समझ

नीक समय जे बीत गेल से कहायल सत्ययुग, अंधकारक युग केँ कलियुग कहल जा रहल अछि। मान्यता अनुसार युग केर चर्चा अपना जगह पर अछिये। मान्यता बनैत छैक मानवक अपनहि अनुभूतिक आधार पर। परंपरागत रूप मे दर्शन मुताबिक परिकल्पना सँ सेहो एना विभिन्न युग केर स्मृति बनाओल जा रहलैक अछि। जेना-जेना समय बितैत छैक तेनाही विकासक नव अवधारणा सँ मानव सभ्यता परिचित होइत पुरान समय केँ आजुक समय सँ तूलना करैत नीक वा बेजाय केर दुइ पलड़ा पर तौलैत छैक।

भारतीय दर्शनशास्त्रक मुताबिक युग-परिकल्पना

kaliyugविश्व केर आयुक सम्बन्ध मे हिन्दू सिद्धान्त तीन प्रकारक समयविभाग उपस्थित करैत अछि। ओ थीक – युग, मन्वन्तर एवं कल्प। युग चारि अछि – कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि। ई प्राचीनोक्त स्वर्ण, रूपा, पीतल एवं लौह युग केर समानार्थक अछि। उपर्युक्त नाम जुआक पासा केर पक्ष केर आधार पर राखल गेल अछि। कृत सबसँ भाग्यवान् मानल जाइत अछि, जेकर पक्ष पर चारि बिन्दु अछि, त्रेता पर तीन, द्वापर पर दुइ आ कलि पर मात्र एक बिन्दु अछि। यैह सब सिद्धान्त युग केर गुण एवं आयु पर सेहो घटैत अछि।

युग केर व्याख्या

युग मे मनुष्य केर नीक गुणक ह्रास होइत अछि आ युगक आयु सेहो क्रमश: 4800 वर्ष, 3600 वर्ष, 2400 वर्ष व 1200 वर्ष होइछ। सभक योग केँ ‘महायुग’ कहल जाइछ, जे 12000 वर्ष केर होइछ। किन्तु ई वर्ष दैवी होइछ और एक दैवी वर्ष 360 मानवीय वर्ष केर तुल्य होइत अछि, अतएव एक महायुग 43,20,000 वर्षक होइत अछि। कलि केर मानवीय युगमान 4,32,000 वर्ष अछि।

मान्यता

  • आर्यभट्ट केर मत अनुसार महाभारत केर युद्ध 3109 ई. पू. मे भेल छल और ओकर अंत केर संग कलियुग आरंभ भऽ गेल।
  • किछु विद्वान् कलियुग केर आरंभ महाभारत युद्धक 625 वर्ष पहिले सँ मानैत छथि। तैयो सामान्यत: यैह विश्वास कैल जाइछ जे महाभारत युद्ध केर अंत, श्री कृष्ण केर स्वर्गारोहण और पांडव केर हिमालय मे गलबाक लेल गेनाय साथ कलि युग केर आरंभ भऽ गेल।
  • एहि युग केर प्रथम राजा परीक्षित भेला।

कलियुग केर प्रभाव

कलि (तिष्य) युग मे कृत (सत्ययुग) केर ठीक विपरीत गुण आबि जाइत अछि। वर्ण एवं आश्रम केर सांकर्य, वेद एवं नीक चरित्र केर ह्रास, सर्वप्रकार केर पापक उदय, मनुष्य मे नानाव्याधिय केर व्याप्ति, आयुक क्रमश: क्षीण एवं अनिश्चित होयब, बर्बर-अत्याचारी-अनाचारी द्वारा पृथ्वी पर अधिकार स्थापित, मनुष्य एवं जाति आदि केर एक-दोसर सँ संघर्ष आदि एहि युगक गुण थीक। एहि युग मे धर्म एकपाद, अधर्म चतुष्पाद होइत अछि, आयु सौ वर्ष केर। युग केर अन्त मे पापीक नाश हेतु भगवान् कल्कि-अवतार धारण करता।

युगक एहि कालिक कल्पनाक संग एकटा नैतिक कल्पना सेहो अछि, जे ऐतरेय ब्राह्मण तथा महाभारत मे पायल जाइत अछि –

कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृत: सम्पद्यते चरन्।।

(सुतनिहार लेल कलि, अंगड़ाई लेनिहार लेल द्वापर, उठनिहार लेल त्रेता और चलनिहार लेल कृत (सत्ययुग) होइत अछि।)

कलियुग केर उत्पत्ति

कल्किपुराण (प्रथम अध्याय) मे कलियुग केर उत्पत्तिक वर्णन निम्नांकित अछि –

संसार केँ बनेनिहार लोकपितामह ब्रह्मा प्रलय केर अन्त मे घोर मलिन पापयुक्त एक व्यक्ति केर अपन पृष्ठ भाग सँ प्रकट केलनि। ओ अधर्म नाम सँ प्रसिद्ध भेल, ओकर वंशानुकीर्तन, श्रवण और स्मरण सँ मनुष्य सब पाप सँ मुक्त भऽ जाइत अछि। अधर्म केर सुन्दर विडालाक्षी (बिलारि समान आँखिवाली) भार्या मिथ्या नाम केर छली। ओकर परमकोपन पुत्र दम्भ नामक भेल। ओ अपन बहिन माया संग लोभ नामक पुत्र और निकृति नामक पुत्री केँ उत्पन्न केलक। ओहि दुनू सँ क्रोध नामक पुत्र उत्पन्न भेल। ओ अपन हिंसा नामक बहिन सँ कलि महाराज केँ उत्पन्न केलक। वैह दाहिना हाथ सँ जिह्वा और वाम हस्त सँ उपस्थ (शिश्न) पकड़ने, अंजन केर समान वर्णवाला, काकोदर, कराल मुखवाला और भयानक छल। ओकरा सँ सड़ल दुर्गन्ध अबैत छल आ ओ द्यूत, मद्य, स्त्री तथा सुवर्ण केर सेवन करनिहार छल। ओ अपन दुरुक्ति नामक बहिन सँ भय नामक पुत्र और मृत्यु नामक पुत्री उत्पन्न केलक। ओहि दुनूक पुत्र निरय भेल। ओ अपन यातना नामक बहिन सँ सहस्रो रूप वाला लोभ नामक पुत्र उत्पन्न केलक। एहि तरहें कलि केर वंश मे असंख्य धर्मनिन्दक सन्तान उत्पन्न होइत गेल।

कलिधर्म वर्णन-1

गरुड़पुराण में कलिधर्म केर वर्णन एहि तरहक अछि –

जाहि मे सदा अनृत, तन्द्रा, निंद्रा, हिंसा, विवाद, शोक, मोह, भय और दैन्य बनल रहैत अछि, ओकरा कलि कहल गेल अछि। जाहि मे लोक कामी और सदा कटु बाजयवला होयत। जनपद दस्यु सँ आक्रान्त और वेद पाखण्ड सँ दूषित होयत। राजा सब प्रजा केर भक्षण करत। ब्राह्मण शिश्नोदरपरायण होयत। विद्यार्थी व्रतहीन और अपवित्र होयत। गृहस्थ भिक्षा माँगत। तपस्वी ग्राम मे निवास करनिहार, धन जोड़निहार, शौर्यहीन, मायावी, दु:साहसी भृत्य (नौकर) अपन स्वामी केँ छोड़ि देत। तापस सम्पूर्ण व्रत केँ छोड़ि देत। शूद्र दान ग्रहण करत और तपस्वी वेश सँ जीविका चलायत। प्रजा उद्विग्न, शोभाहीन और पिशाच सदृश होयत। बिना स्नान केने लोक भोजन, अग्नि, देवता तथा अतिथि केर पूजन करत। कलि केँ प्राप्त भेला पर पितरक लेल पिण्डोदक आदिक क्रिया न होयत। सम्पूर्ण प्रजा स्त्री मे आसक्त और शूद्रप्राय होयत। स्त्रियो अधिक सन्तानवाली और अल्प भाग्यवाली होयत। खुला सिर वाली (स्वच्छन्द) और अपन सत्पतिक आज्ञा केँ उल्लघंन करनिहारि होयत। पाखण्ड सँ आहत लोक विष्णु केर पूजा नहि करत, किन्तु दोष सँ परिपूर्ण कलि मे एक गुण होयत – कृष्ण केर कीर्तन मात्र सँ मनुष्य बन्धनमुक्त भऽ परम गति केँ प्राप्त करत। जे फल कृतयुग मे ध्यान सँ, त्रेता मे यज्ञ सँ और द्वापर मे पंचचर्या सँ प्राप्त होइत अछि, ओ कलियुग मे हरि-कीर्तन सँ सुलभ होयत। ताहि हेतु हरि नित्य ध्येय और पूज्य छथि।

कलिधर्म वर्णन-2

भागवतपुराण मे कलिधर्म केर वर्णन निम्नलिखित प्रकारक अछि –

कलियुग मे धर्म केँ तप, शौच, दया, सत्य यैह चारि पैर मे केवल चारिम पैर (सत्य) शेष रहि जायत। ओहो अधार्मिक केर प्रयास सँ क्षीण होइत, अन्त मे नष्ट भऽ जायत। ओहि मे प्रजा लोभी, दुराचारी, निर्दयी, व्यर्थ वैर करयवला, दुर्भगा, भूरितर्ष (अत्यन्त तृषित) तथा शूद्र-दासप्रधान होयत। जाहि मे माया, अनृत, तन्द्रा, निंद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय, दैन्य अधिक होयत, ओ तामसप्रधान कलियुग कहायत। ओहिमे मनुष्य क्षुद्रभाग्य, अधिक खायवला, कामी, वित्तहीन और स्त्रिगण स्वैरिणी और असती होयत। जनपद दस्यु सँ पीड़ित, वेद पाखण्ड सँ दूषित, राजा प्रजाभक्षी, द्विज शिश्नोदरपरायण, विद्यार्थी अव्रत और अपवित्र, कुटुम्बी विभाजीवी, तपस्वी ग्रामवासी और संन्यासी अर्थलोलुप होयत। स्त्री ह्रस्वकावा, अतिभोजी, बहुत सन्तान वाली, निर्लज्ज, सदा कटु बाजयवाली, चौर्य, माया और अतिसाहस सँ परिपूर्ण होयत। क्षुद्र, किराट और कूटकारी व्यापार करत। लोक बिना आपदाक सेहो साधु पुरुष सँ निन्दित व्यवसाय करत।

समाज में म्लेच्छता

भृत्य द्रव्यरहित उत्तम स्वामी केँ सेहो छोड़ि देत। लोक दूध नहि देनिहारि गाय केँ छोड़ि देत। कलि मे मनुष्य माता-पिता, भाइ, मित्र, जाति केँ छोड़िकय केवल स्त्री टा सँ प्रेम करत, साला संग संवाद मे आनन्द लेत, दीन और स्त्रैण होयत। शूद्र दान लेत और तपस्वी वेश मे जीविका चलायत। अधार्मिक लोक उच्च आसन पर बैसिकय धर्मक उपदेश करत। कलि मे प्रजा नित्य उद्विग्न मनवाली, दुर्भिक्ष और कर सँ पीड़ित, अन्न रहित भूतल मे अनावृष्टि केर भय सँ आतुर, वस्त्र, अन्न, पान, शयन, व्यवसाय, स्नान, भूषण सँ हीन; पिशाचक समान देखायवला होयत। लोक कलि मे आधा कौड़ीक लिए सेहो विग्रह करैत मित्र केँ छोड़ि देत, प्रियजनक त्याग करत और अपन प्राणक सेहो हनन करत। मनुष्य अपना सँ बड़ और माता-पिता, पुत्र और कुलीन भार्याक रक्षा नहि करत। लोक क्षुद्र और शिश्नोदर परायण होयत। पाखण्ड सँ छिन्न-भिन्न बुद्धिवाला लोक जगत केर परम गुरु, जिनक चरण पर तीनू लोक केर स्वामी आनत रहैछ, ओहि भगवान् अच्युत केर पूजा प्राय: नहि करत।

द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) व्रात्य (सावित्री पतित) और राजा आदि शूद्रप्राय होयत। सिन्धु नदीक तट, चन्द्रभागा (चिनाब नदी) केर घाटी कांची और कश्मीर मण्डल मे शूद्र, व्रात्य, म्लेच्छ तथा ब्रह्मचर्य सँ रहित लोक शासन करत। ई सब राजा समसामयिक और म्लेच्छप्राय होयत। ई बहुत कम दान देनिहार और तीव्र क्रोधवला, स्त्री, बालक, गौ, ब्राह्मण केँ मारनिहार और दोसराक स्त्री तथा धन केर अपरहरण करनिहार होयत। ई उदित होइते अस्त तथा अल्प शक्ति और अल्पायु होयत। असंस्कृत, क्रियाहीन, रजस्तमोगुण सँ घिरल, राजा रूपी ई म्लेच्छ प्रजा केँ खा जायत। एकरा अधीन जनपद सेहो एकरहि समान आचारवाला होयत और ओ राजा द्वारा तथा स्वयं परस्पर पीड़ित होइत क्षय केँ प्राप्त होयत।

धर्म केर क्षीणता

कलिधर्म केर प्रभाव सँ प्रतिदिन धर्म, सत्य, शौच, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मृति कलिकाल द्वारा क्षीण होयत। कलि मे मनुष्य धन केर कारण मात्र जन्म सँ गुणी मानल जायत। धर्म-न्याय-व्यवस्था मे बल टा कारण होयत। दाम्पत्य सम्बन्घ मे केवल अभिरुचि होयत और व्यवहार मे माया। स्त्रीत्व और पुंस्त्व में रति और विप्रत्व मे सूत्र कारण होयत। आश्रम केवल चिह्न सँ जानल जायत और ओ परस्पर आपत्ति करनिहार होयत। अवृत्ति मे न्याय-दौर्बल्य और पाण्डित्य मे वचनक चपलता होयत। असाधुत्व मे दरिद्रता और साधुत्व मे दम्भ प्रधान होयत। विवाह मे केवल स्वीकृति और अलंकार मे केवल स्नान शेष रहि जायत। दूर घूमनाय टा तीर्थ और केश धारण करब सौन्दर्य बुझल जायत। स्वार्थ मे केवल पेट भरनाय, दक्षता मे कुटुम्ब पालन, यश मे अर्थसंग्रह होयत। एहि तरहें दुष्ट प्रजा द्वारा पृथ्वी केँ आक्रान्त भेला पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मे जे बलशाली होयत, वैह राजा बनत।

पाकृतिक आपदा व अल्पायु

लोभी, निर्घृण, डाकू, अधर्मी राजा द्वारा धन और स्त्री सँ रहित होइत प्रजा पहाड़ आर जंगल मे चलि जायत। दुर्भिक्ष और कर सँ पीड़ित, शाक, मूल, आमिष, क्षौद्र, फल, पुष्प भोजन करयवाली प्रजा वृष्टि केर अभाव मे नष्ट भऽ जायत। बात, तप, प्रवृत्ति, हिम, क्षुधा, प्यास, व्याधि, चिन्ता आदि सँ प्रजा सन्तप्त होयत। कलि मे परमायु तीस बीस वर्ष केर होयत। कलि केर दोष सँ मनुष्य केर शरीर क्षीण होयत। मनुष्य केर वर्णाश्रम और वेदपथ नष्ट होयत। धर्म मे पाखण्ड केर प्रचुरता होयत और राजा मे दस्यु केर, वर्ण मे शूद्र केर, गौ मे बकरी केर, आश्रम मे गार्हस्थ्य केर, बन्धु मे यौन सम्बन्ध केर, औषधि मे अनुपाय केर, वृक्ष मे शमी केर, मेघ मे विद्युत केर, घर मे शून्यता केर प्रधानता होयत। एहि तरहें खरधर्मी मनुष्य केर बीच गतप्राय कलियुग मे धर्म केर रक्षा करबाक लेल अपन सत्त्व सँ भगवान् अवतार लेता।”

(Source: Bharatkosh)

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