कथा
– राजेन्द्र झा, वडोदरा, गुजरात
मैथिली कथाः शीर्षक – कर्मयोगी
राति के दस बाजि गेल रहनि किशुनजी के गाम पहुँचवा में । दुपहरिया के करीब दूइए बजे ट्रेन सँ पटना पहुंच गेल रहथि किशुन । आ तकरा बाद तीन-तीन टा बस बदलैत – बदलैत अप्पन गाम पहुंचल रहथि । मोन खिन्न भ’ गेल रहनि – क़तबो विकास भ’ जाए ..पटना- दरभंगा केरि नीक सड़क बनि जाए, अप्पन गाम…ओहिना-के-ओहिना !
माए त’ कानए लागल रहथिन्ह अप्पन बौअन के देखि कए.. दहो-बहो नोर .. । आइ एक बरखक बाद किशुन के देखने रहथिन्ह हुनक माए ।पप्पा के आवाज सुनि, सोनू निन्न सँ जागि गेल रहए आ दौड़ि कए पप्पा के पैर कें बाँधि लेलक अपन दुनू हाथ सँ …पप्पा के कोरा पर चढ़ैक लेल…। सोनू – पाँच वर्षक बालक .. किशुनजी केँ हृदयक टुकड़ा ।
दलान पर जाक’ बाबूजी केँ गोर लागि लेने रहथि किशुन । बाबूजी इशारा सँ चौकी पर बैसए कहलथिन्ह, मुदा किशुन ठाढ़े रहलाह । बेचैन होमए लागल रहथि किशुन -कनिञा केँ देखैक लेल। कनिञा अखन धरि सोझां नहिं आयल रहथिन्ह । माए बुझि गेल रहथिन्ह – ‘ बौआ ! जाउ.. मुँह – हाथ धो लिअ’ .. खेनाय परसि दैत छी .. थाकल हैब .. जल्दीए खा क’ सुति रहु .. . ।
सोनू पप्पाक कोरा छोड़ैक लेल तैयार नहिं रहए। खेनाय काल में सेहो कोरा पर बैसले रहल । दादी कतबो कहथिन्ह कि, ‘ बौआ! आइ पप्पा थाकल छथि, आइ दाय लग सुति रहू ।’ … मुदा सोनू पप्पा केँ छोड़ैक लेल तैयार नहिं । आधा घंटा धरि पप्पाक पालथी में ओंघायल रहल, आ फेर सुति रहल । दादी ल’ गेलथिन्ह अपना लग .. अपन कोठरी में ।
किशुन अप्पन कनिञा केरि बाट तकैत रहलाह बहुत देर धरि। भनसाघर सँ टन-टुन्न, खट – ख़ुट्ट के आवाज अबैत रहलैक .. मुदा सुधा..। सुधा अखन धरि प्रकट नहिं भेल छलीह अप्पन पतिक सोझां । किशुन आब अधीर होमए लागल छलाह.. तामसो होमए लगलनि – ई की बात भेलैक ?.. एक सालक बाद आयल छी आ सुधा अखन धरि … । एक घंटाक अंतराल व इंतज़ार के बाद प्रवेश कएने छलीह सुधा अप्पन कोठरी में ।
किशुन ब्रीफ़केस खोलि सबटा सनेस देलनि अपन कनिञा के .. सबहक लेल सनेश.. बाबूजी, माए , बौआ.. सबहक लेल .. । किशुन अप्पन कनिञा के आइए राति में सबटा बात… एक बरिसक जमा कएल बात, उत्साह सँ सुनबैत रहथि – ‘सेठ हुनका बहुत मानै छन्हि .. आब हुनका सुपरवाईजर बना देने छन्हि .. कोनो आदमी केरि प्रवेश नहिं छैक सेठक घर में, मुदा सेठानी हुनका घर में आब’ दैत छन्हि .. कहैत छन्हि जे, ‘ आप ब्राह्मण हैं ..आप लकी हैं हमारे लिए … ‘।
किशुन – अप्पन माए-बाबूक लेल ‘बौअन’, अपन सात सालक सोनू बेटाक लेल ‘पप्पा’ आ सुधाक लेल ‘देवता समान पति ‘। आ, सुधा तीस सालक गृहिणी- गाम में रहि क’ पत्नी धर्म के निर्वाह करैत अपन सास – ससुर के सेवा में तत्परि !
किशुन आठ साल पहिने गाम सँ निकलि गेल रहथि नौकरी करैक लेल भावनगर – गुजरातक एक सुन्दर शहर । गामक रविन्द्र कका किशुन के समझौने रहथिन्ह जे ‘नौकरी आ पैसा त’ गुजरात में छैक .. चल’ हमरा साथ .. भावनगर .. ओतए अपन सेठ के कहि क’ धरा देब’ नौकरी ..’ । पहिने रविन्द्र काका के बात पर ध्यान नहिं देथि किशुन । मुदा ओहि बेर फेर सँ बाबूजीक सोझाँ रविन्द्र कका बुझौने रहथिन्ह कि, ‘विवाह कएना तीन साल भ’ गेल’ ..बच्चा सेहो भ’ गेल छह आ बाबूजी के सेहो आब खेत पथारी नहिं देखल होइत छनि .. गाम बैसब’ त’ काज कोना चलत’.. ।’
भावनगर जाय लेल तैयार भ’ गेल रहथि किशुन । मुदा अप्पन कनिञा के नहिं छोड़य चाहैत रहथि गाम पर । मुदा सुधा संग जाए लेल तैयार किन्नहु नहिं भेलीह .. हुनक उत्तर एकहिं टा – ‘ ई उचित नहिं होयत .. माँ बाबूजी बूढ़ छथि.. हिनका दुनू के छोड़ि कए अहां संग चलि जाएब से सर्वथा अनुचित …लोग की कहत ..।‘ किशुन अनुत्तरित – गर्व भेल रहनि अप्पन कनियां पर ।
उहए सुधा के आई एक वरखक बाद देखि रहल छलाह किशुन । बहुत देर धरि बजिते रहलाह .. भावनगरक क़िस्सा …सेठ, सेठानी, ओकर फ़ैक्टरी – बंगला- कार- कुत्ताक क़िस्सा… गुजराती लोकक क़िस्सा .. गुजराती खान-पान, मेला-ठेला, पहनावा व संस्कृतिक क़िस्सा .. नवका दोस्त-महिमक क़िस्सा । ..
आ, सुधा .. सुधाक जवाब बस ‘हाँ- हूँ ‘ में रहनि.. । अचानक सुधाक हाथ स्पर्श… किशुनजी बाजि उठलाह – ‘ सुधा! अहांकें बुखार अछि की? हमरा बुझाइए..’ । ‘ नहिं , चुलहीक आगि सँ हाथ गरम .. ‘- सुधा अनायास बाजल छलीह । मुदा किशुनजी केँ आभास भ’ रहल छलनि जे बग़ल में केयो बीमार शरीर … ।
भोरे छ: बजे निन्न सँ जागि गेल रहथि किशुन बाबूजी कें पूजा आ मंत्रोच्चारण सुनि । कोठरी सँ बहरेलाह त’ जोर- जोर सँ खांसी करैक आवाज आबए लगलनि। माए हुनका देखतहि कहलथिन्ह- ‘ बौअन! ल’ जाहुन बौआसिन केँ अपना संग भावनगर .. नहिं त’ एतए जान चलि जेतनि.. अहिना दिन-दिन भरि खाँसी करै छथुन्ह.. ।’
काल्हि राति कनिञा के चेहरा देखने रहथिन्ह बैटरी वला लालटेनक मद्धिम प्रकाश में । अखन देखलनि त’ अवाक – जीर्ण शरीर .. पिअर-छाँह चेहरा.. कारी-स्याह मांसक वृतक बीच धँसल आँखि .. आ बेदम खाँसी .. । किशुन किछु पुछथि , ताहि सँ पहिने माए कहए लगलथिन्ह- ‘ अहिना खाँसी होइत रहै छन्हि .. हरेक दस दिन पर बुखार होई छन्हि.. ‘अशोक वैद्य’ सँ देखौने रहिएनि , कोनो टेबलेट लिखि देने रहथिन्ह .. मुदा बुखार ओहिना हरेक दस दिन पर .. कहै छियनि जे बौअन लग चलि जाऊ .. कहियौन जे ल’ जेताह, मुदा नहिं .. किन्नहु नहिं.. कहलियनि जे अप्पन भाई के कहियौन जे दडिभंगा ल’ जाक’ बडका डॉक्टर के देखा देता.. सेहो नहिं .. । बौअन ! न हमरा समाँग अछि न पैसा .. हमर बात ई नहिं मानैत छथि .. हमरा अजश लगौतीह…’ ।
सुधा बीचहिं में बाजल रहथि- ‘ जुनि कहथुन माँ .. हमरा किछु नहिं होइए.. हम ठीक छी । अप्पन दुख किएक नहिं कहै छथिन्ह अप्पन बेटा केँ ..’ ।
सुधा पतिदेव दिशि ताकि बाजए लगलीह- ‘ माँ के घुटना में बहुत दर्द रहैत छन्हि .. उठलो-बैसल नहिं होई छन्हि .. राति- राति भरि पीड़ा सँ कराहैत रहै छथि .. अशोक वैद्य कोन दवाई दैत छन्हि, पता नहिं .. आ बाबूजी .. हुनका आँखि सँ किछु सुझाइते नहिं छन्हि .. राति में त’ एकदमे नहिं .. राति में असगरे बाहर जाईं छथि.. डर होइए जे खसताह – पड़ताह …।’
किशुन चुपचाप सुनिते रहलाह । धम्म सँ बैस रहलाह ओसाराक चबूतरा पर । कनेक काल धरि मौन रहलाह आ तकरा बात तेज़ी सँ निकलि गेलाह घर सँ । अशोक वैद्य के घर दिशि ।
अशोक वैद्य सबटा फरिछा क’ कहलथिन्ह – ‘ देखू बौआ ! हम अंग्रेज़ी डॉक्टर त’ छी नहिं .. मुदा अनुभव के आधार पर कहैत छी जे अहां कनिञा केँ कोनो नीक डॉक्टर सँ इलाज कराऊ .. हुनक लक्षण कोनो गंभीर बीमारी के इंगित करैत अछि .. जहाँ तक अहाँक माताराम के सवाल अछि , हमर अनुभव कहैए जे आब हुनक घुटना में कोनो शक्ति नहिं छन्हि .. घुटना में ऑपरेशन कराब’ पड़तैन्ह… घुटना बदलाबक अलावा कोनो दोसर उपाय नहिं.. । आ, पिताजी .. हुनका लेल कोनो चिन्ता नहिं .. मोतियाबिंद छन्हि .. ऑपरेशन सँ ठीक भ’ जेताह ।’
किशुनजी धाराप्रवाह बजैत अशोक वैद्य कें देखि मोने-मोन बजलाह – ‘ ई त’ अपना के डॉक्टर बुझैत अछि !’
अशोक वैद्य भाव पढि लेने रहथिन्ह। किशुनजी केँ कहलथिन्ह- ‘ बौआ! हम डॉक्टर नहिं छी । बाप वैद्य रहथि त’ हमहुं देशी विद्या कनेक सिखने रही .. बाद में गामक लोक हमरो डॉक्टर बना देलक .. आब ज़माना अंग्रेज़ी दवाई केरि छैक, ताहि लेल अनुभव सँ अंग्रेज़ी दवाई सेहो लिखै छियैक .. बोतल-पानि सेहो चढ़ा दै छियैक मरीज़ केँ.. ।… अहां हमर बात मानी त’ ठीक .. बाक़ी अहांक मर्ज़ी । हाँ ! अहांक पिता कें मोतियाबिंद के ऑपरेशन हम करवा देने रहितिअनि नि: शुल्क कैंप में .. मुदा , लागल जे जकर बेटा शहर में कमाइत छैक, तकर पिताक ऑपरेशन नि: शुल्क कैंप में .. गामक लोक की कहतैक…’ ।
किशुन दोसरे दिन भोरे सुधा केँ ल’ गेलथिन्ह दरभंगा डॉक्टर सँ देखबैक लेल । अप्पन संगी विनीत सँ डाक्टर के बारे में पता लगा लेने रहथि । डॉक्टर के क्लीनिक में सबटा सुविधा रहैक , ताहि लेल भोर सँ साँझ जाँच-पर- जाँच होइत रहलै । ओहि जीर्ण शरीर सँ बहुत रास खुन निकालल गेलै.. पेशाब जाँच .. पैखाना जाँच .. एक्सरे , सोनोग्राफ़ी .. किदन.. कहांदन .. । आ, साँझ में निर्देश देल गेलनि जे, ’कल ख़ाली पेट आना है एंडोस्कोपी के लिए ‘।
चारि दिन सँ भोरे निकलि जाइत छथि किशुनजी आ सुधा । रोज हुनका कहल जाइत छन्हि, अस्पतालक काउंटर पर रूपया जमा करैक लेल । तरह-तरह के जाँच होइत छन्हि । भोर सँ साँझ अस्पताल में बैसौने रहैत छन्हि । हिनक जमा कराओल पैसा पर स्पेशलिस्ट डॉक्टर बजाएल जाइत अछि आ सबसँ राय-मशवरा – आ तकरा बाद विश्लेषण कएल जा रहल अछि।
सेठ सँ निहोरा क’ कए मात्र पन्द्रह दिनक छुट्टी पर आयल छथि किशुन । सुधाक इलाजक तमाशा देखि किशुन केँ लगलनि जे माए आ बाबूजी के सेहो साथ ल’ लिएनि…मौक़ा देखि, माए के हड्डीवला डॉक्टर आ बाबूजी केँ आँखि वला डॉक्टर सँ सेहो देखा देबनि ।
बाबूजी केँ डॉक्टर तुरंत ऑपरेशन लेल कहि देलकनि । किशुनजी दडभंगा में एकटा कमरा किराया पर ल’ क’ बाबूजी के मोतियाबिंदक ऑपरेशन करौलनि । ऑपरेशनक दोसरे दिन बाबूजी के डिस्चार्ज क’ देल गेल रहनि – आँखि पर करिया चश्माक संग ।
किशुनजी अही बीच सुधा के क्लिनिक में डॉक्टरक भरोसा पर छोड़ि.. आ बाबूजी कें किराया वला कोठरी में राखि , माए के ऑर्थोपेडिशियन( हड्डी रोग विशेषज्ञ ) सँ देखा देलथिन्ह। अशोक वैद्य ठीके कहने रहथिन्ह। ऑपरेशनक सिवाय कोनो रास्ता नहिं । आ सेहो बिनु बिलंब कएने । माए त’ तैयार नहिं छलीह, मुदा सुधा के जोर पर माए के घुटनाक ऑपरेशन सेहो संपन्न भेल ।
दस दिन बीति गेल रहए । बाबूजीक आँखि में रोशनी पर्याप्त आबि चुकल रहनि । माए के स्टीच सेहो कटि गेल छन्हि आ फिजियोथ्रापी वाला डॉक्टर दू-तीन टा घुटना संबंधी व्यायाम सीखा देने छन्हि । सुधा के अखन धरि जाँच आ विश्लेषण चलिए रहल छन्हि । डॉक्टर सभ अखन धरि अहि निष्कर्ष पर नहिं पहुंचल अछि कि हुनक केस पल्मोनोलॉजी केरि छैक कि गैस्ट्रोएंटरोलॉजी ..यूरोलॉजी ..गायनोकोलॉजी… ।
किशुनजी गाम वापस आबि गेल रहथि । कनियांक प्रति अखनो अपराध बोध…. हुनका दिश तकबाक हिम्मत नहिं होइत छन्हि । दयाभावक सिवाय कोनोटा भाव उत्पन्न नहिं होइत छन्हि । कुलदेवता कहुना रक्षा… ।
काल्हि के ट्रेन-टिकट छन्हि किशुनजी केँ, वापस जयवाक- पटना सँ । हाथ में मात्र एक हज़ार टका बांचल छन्हि । अस्सी हज़ार अनने रहथि गाम पर । मोन रहनि जे पछवरिया धर के मरम्मत करा देबैक .. दस हज़ार टका तेल-सिन्दुर लेल सुधा केँ हाथ में देबनि , आ पाँच-पाँच हज़ार माँ -बाबूजी केँ… । की-की सोचि क’ आयल रहथि गाम – पत्नी – बच्चा संग रहब.. हँसब .. माए-बाबूजी सँ खूब रास गप्प करब .. घूमब.. जायेब कुशेश्वरस्थान .. । आ एत’ अस्पतालक चक्करि काटि…। हे बाबा बैद्यनाथ !
बीस हज़ार टका तनख़्वाह भेटैत छन्हि । जखन अवसर भेटैत छन्हि, ओवरटाइम करै छथि आ किशुनजी महिना में करीब तीस हज़ार टका कमा लैत छथि । ओहि में सँ पाँच हज़ार टका नियमित रूप सँ गाम पठवै छथि ।…एक वरिस पेट काटि क’ अस्सी हज़ार रूपया गाम अनने रहथि , आ एत’ सबटा रूपैया…! पछवरिया घरक ओसारा पर बैसल सुधाक दिश ताकि रहल छलाह किशुन । एकटक । ओ निर्णय ल’ लेने छलाह जे ओ काल्हि नहिं जेताह .. शायद कहियो नहिं।
सुधा कें वापस भावनगर नहिं जएवाक निर्णय सँ आश्चर्य भेलनि .. तामस सेहो । बजलीह – ‘ अहि तरहक निर्णय किएक ? ‘
कारण आ दलील सेहो सुधा के बुझल छलनि। पतिदेव के बुझवैत कहलथिन्ह- ‘अहांक निर्णय उचित नहिं अछि ..पैसाक काज पैसे करैत छैक .. अत’ गाम में आब ज़रूरत पड़ला पर केयो ककरो पाँच-टा रूपया सँ मदति नहिं करै छैक । आइ अहाँक कमाएल पैसा छल , जाहि सँ बाबूजी आंखि में रोशनी छन्हि .. आ माँ चलि रहल छथि बिनु पीड़ा के ..।
‘और अहाँ? ‘
‘। हम ठीक भ’ जाएब । चिन्ता जुनि करू । अहां ओतए कर्मयोगी बनि कष्ट काटि रहल छी .. हमरो कष्ट काटि क’ में पत्नी-धर्मक पालन आ निर्वाह करए दिअ’ .. ‘ । स्वर में दृढता ..आँखि में नोर .. । सुधा आगू किछु नहिं बजलीह ।
भोरे-भोर किशुनजी विदा भ’ गेल रहथि .. अप्पन सुधा , सोनू , माए- बाप आ पछवरिया घर के ओहिना छोड़ि कए …।