स्वाध्याय
श्री कृष्ण केर कनबाक रहस्य
(संकलन स्रोतः कल्याण, अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी, मूल संवादः कालाचाँद गीता)
एक बेर श्रीकृष्ण केँ कनैत देखिकय एक गोपी कनबाक कारण पुछलखिन। हुनका उत्तर मे श्रीकृष्ण कहैत छथिन –
‘सुनू सखि! जतय प्रेम अछि, ओतय निश्चय टा आँखि मे नोरक धारा बहैत रहत। प्रेमीक हृदय पसीझिकय नोर बनि निरन्तर बहैत रहैत अछि आर वैह अश्रु-जल, प्रेमजल मे प्रेमक गाछ अंकुरित भऽ कय निरन्तर बढैत रहैत अछि।’
लोकक कानबाक पाछू ‘प्रेम’ केर संयोग, हृदयक पसीझला सँ नोर बनब आर वैह नोर केँ प्रेमजल (अश्रुजल) केर संज्ञा दैत एहि जलक सींचन सँ प्रेमक बिया केर अंकुरित होयब आर गाछ केर बढैत रहबाक बात कतेक पैघ भाव केँ दरसबैत अछि ई हमहुँ-अहाँ बुझि सकैत छी। यैह स्थिति लगभग हमरो सभ मे होइत अछि, जँ अनावश्यक आ अकारण नहि कनैत होयब तऽ, स्वांग रचेबाक लेल काननायक दुरुपयोग नहि करैत होयब तऽ… बिल्कुल प्रेमहि केर कारण अश्रुधारा हर मनुष्य आ जीव मे अबैत अछि। एहि पर बेर-बेर मनन करू।
आगू श्रीकृष्ण ओहि गोपी सँ कहैत छथि –
‘सखि! हम स्वयं प्रेमीक प्रेम मे निरन्तर कनैत रहैत छी। हमर आँखि सँ निरन्तर अश्रुधारा चलैत रहैत अछि। हमर इच्छा नहि छल जे ई सब हम अहाँ सँ कही, मुदा अहाँक बेर-बेर पुछलापर जे हम कियैक कनैत छी, ताहि सँ हम अहाँ केँ ई कहि रहल छी। हम अपन प्रेमीक प्रेम मे कनैत छी, जे हमर प्रेमी अछि, ओ निरन्तर कनैत अछि आर हमहुँ ओकरा लेल निरन्तर कनिते रहैत छी। सखि! जाहि दिन हमरे जेकाँ प्रेमक समुद्र मे अहाँ डूबि जायब, जाहि दिन अहाँक हृदय मे प्रेमक समुद्र – वैह प्रेमक समुद्र जे हमर हृदय मे नित्य-निरन्तर लहराइत रहैत अछि, से लहराय लागत, ओहि दिन अहूँ बिल्कुल हमरहि जेकाँ, केवल कनिते टा रहब।’
एतय श्रीकृष्णक बड पैघ सन्देश अछि। हुनकर प्रेमी सगर संसार अछि। हुनका सँ अनन्य प्रेम मे अपन दुःख-पीड़ा आ कतेको एहेन जे श्रीकृष्णक संग-सहयोग वास्ते विनती करैत कनैत अछि आर एहि ठाम हुनका द्वारा प्रकट भाव मे यैह कहल गेल अछि जे प्रेमक अश्रु जे भक्त-प्रेमी बहबैछ तेकर प्रत्युत्तर मे भगवान् सेहो अश्रु बहाकय प्रेम आदान-प्रदान करैत छथि। वाह! कि दृश्य अछि। देखू! देखू!!
आगू रहस्य केँ आरो स्पष्ट उजागर करैत श्रीकृष्ण कहैत छथि –
‘सखि! ओहि नोरक धारा सँ जगत् पवित्र होइत अछि। ओ नोर नहि, ओ त गंगा-जमुनाक धारा थिक। ओहि मे डुबकी लगेला पर फेर त्रिताप (पापक ताप) शेष नहि रहि जाइछ। सखि! हम देखैत छी, हमर गोपी, हमर प्राणक समान प्रिय गोपी कानि रहल छथि, हमर प्रियतमा कानि रहल छथि, बस एतेक देखिते हमहुँ कानय लगैत छी। हमर हृदय सेहो कानय लगैत अछि। हे हमर प्रिया! प्राणो सँ बढिकय प्रिय गोपी जाहि तरहें एकान्त मे बैसिकय कनैत छथि, तेनाही हमहूँ एकान्त मे बैसिकय कनैत छी। आर, कानि-कानिकय प्राण केँ शीतल करैत छी। यैह थिक हमर कनबाक रहस्य।’
भक्तवत्सल भगवान् की जय!! श्रीकृष्णः शरणं मम!!
एतेक बात सब बुझितो जँ प्रवीण अहाँ भटकैत छी संसार मे, आ कनैत छी सांसारिक उपलब्धि लेल… तँ अहाँ सँ पैघ बेवकूफ दोसर कियो नहि!
हरिः हरः!!