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अनुपम प्रसाद – आध्यात्मिक चेतनाक मूल स्रोत श्रेष्ठजन केँ विशेष स्मरण करैत श्रीराम केर सनेश

आध्यात्म

– प्रवीण नारायण चौधरी

एक अनुपम प्रसाद (स्वाध्याय संस्मरण)
 
अपन श्रेष्ठजन केँ गुरु मानि प्रणाम करैत छी। सब सँ पहिल प्रणाम अपन जननीक चरण मे जे एहि धराधाम मे अनलीह! दोसर प्रणाम पिता सहित समस्त परिजन आ विशेष रूप सँ बाबी, काकी, भौजी, दीदी, बाबा, काका, भैया, मामा, मामी, पीसा, पीसी, मौसा, मौसी… आर समस्त छोट व समतुरिया, अजनबी, नव परिचित, पुरान परिचित, अपरिचित – जीव-जन्तु, सजीव, निर्जीव – समस्त आवोहवा, वातावरण सब केँ हम प्रणाम करैत छी। ई प्रणाम सदिखन करैत छी। एकहु क्षण बिना प्रणाम कएने हमर जीवन नहि रहय, ई भाव रखैत छी। आर प्रणाम करबाक एकमात्र कारण अछि जे अहाँ सब हमरा संग देलहुँ, हमरा किछु न किछु सिखेलहुँ, जीवन जियय लेल खर्च देलहुँ, ऊर्जा देलहुँ, जोश देलहुँ, होश देलहुँ… धन्य अहाँ जे हम!!
 
आइ मौसम बड़ा बेजोड़ अछि। भोरहि सँ बरखा भऽ रहल अछि। २ दिन पहिने धरि जाहि तरहक प्रतिकूल मौसम छल, बेतहाशा गर्मी पड़ि रहल छल, मेघ घुमड़ि-घुमड़ि वापस चलि जाइत छल, किसान दुःखी छल, धरती तप्त छल, ई सब देखि हमहुँ बहुत व्याकुल छलहुँ। लेकिन आजुक सुखद मौसम आ विशेष रूप सँ बरखा देखि मन, हृदय, आत्मा, रोम-रोम पुलकित अछि। ईश्वर कतेक दयालू छथि से सुखक क्षण मे बेसी मोन पड़ि जाइत अछि। ओना त कहबी ई छैक जे –
 
दुःख मे सुमिरन सब करे, सुख मे करे न कोइ
जो सुख मे सुमिरन करे, दुःख काहे का होइ
 
त आइ एहि सारतत्त्व मुताबिक सुख मे सुमिरन केर बेर बुझि स्मरण मे आबि रहल छथि माँ केर स्तुति गान संगहि हमर कय गोट बाबी (दादी) लोकनिक विशेष पूजा आ स्तुति गान।
 
सब सँ पहिने माँ प्रति दिन भोरे जे घर-अंगनाक काज करिते-करिते गाबय तेकर १ विशेष पंक्ति ‘राधा-कृष्ण’ पर केन्द्रित स्वाध्यायक क्रम मे मोन पड़ल –
 
चित मुरली चित चन्द्रिका चित गोपियन के साथ…..
 
माँ केँ पुछल जे तोरा पूरा याद छौक त फेर सँ कहे…! ओ पुनः सुनौलक। पुछलियैक जे ई वास्तव मे किनकर लिखल छन्हि, कतय सँ तूँ सिखलिहीन, किछु याद छौक… त ओ नवाणीवाली बाबी (लालबच्चा काकाक माय) केँ मोन पाड़ैत कहलक जे ओ बाबी विशेष रूप सँ ‘प्रेमसागर’ नामक पुस्तक अपनो पढथि आ हमरा सब पुतोहु सब केँ सेहो पढि-पढि दुपहरियाक समय सुनायल करथि। एहि क्रम मे ओ कहथि जे भोरे-भोर ई स्तुति गान कयला सँ हमरा सब गृहस्थ नारी समाजक कल्याण होइत अछि। एहि क्रम मे सीखने रही।
 
एम्हर गुगल देव सँ ई बात पुछलहुँ। तखन एकर यथार्थ रूप एना भेटलः ई ‘रामस्तुति’ थिक। निश्चित रूप सँ तुलसीदास द्वारा लिखल गेल अछि। हमरा बुझने एहि मे रामचरितमानस केर बहुल्य चौपाई केँ समेटिकय ‘स्तुति’ रूप मे गायल जाइछ। एकर सुन्दरता स्वतः मनन करय योग्य अछि –
 
राम स्तुति
 
मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मणि हरहु विषम भव भीर॥
 
कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥
 
प्रणत पाल रघुवंश मणि करुणा सिंध खरारि।
गये शरण प्रभु राखिहैं सब अपराध बिसार॥
 
श्रवण सुजसु सुनि आयउँ, प्रभु भंजन भवभीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन, सरन सुखद रघुबीर॥
 
अर्थ न धर्म न काम रूचि, गति न चहौं निर्वान।
जनम-जनम सिया रामपद, यह वरदान न आन॥
 
बार बार वर मांगहुँ हरषि देहु श्री रंग ।
पद सरोज अन पायनी भक्ति सदा सत संग॥
 
बरनी उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥
 
एकु मंद मैं मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥
 
विनती करि मुनि नाथसिर, कह करजोरि बहोरि।
चरनसरोरुह नाथ जनि, कबहु तजै मति मोर॥
 
नहि विद्या नहि बाहुबल नहि खर्चन को दाम।
मो सम पतित अपंग को, तुम पति राखो राम॥
 
एक छत्र एक मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ ॥
 
कोटि कल्प काशी बसे मथुरा कल्प हजार।
एक निमिस सरयू बसे तुले न तुलसी दास ।।
 
राम नगरिया राम की बसे गंग के तीर ।
अटलराज महाराज की चौकी हनुमत वीर॥
 
कहा कहो छवि आपकी, भले बिराजे नाथ ।
तुलसी मस्तक तब नवै, धनुष बाण लो हाथ॥
 
कित मुरली कित चन्द्रिका कित गोपियन को साथ।
अपने जन के कारणे श्री कृष्ण भये रघुनाथ ॥
 
अवध धाम धामापति अवतारण पति राम।
सकल सिद्ध पति जानकी दासन पति हनुमान॥
 
करगहि धनुष चढाइयो चकित भये सब मुख।
मगन भई श्री जानकी देखि राम जी को रूप॥
 
राम बाम दिशि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सुफल कल्याणमय सुर तरु तुलसी तोर॥
 
नील सरोरहु नीलमणि नील नीर घनश्याम।
लाजहिं तनु शोभा निरखि कोटि कोटि सतकाम॥
 
अस प्रभु दीनबन्धु हरि कारण रहित दयाल।
तुलसीदास ताहि भजु छाँडि कपट जंजाल॥
 
राम झरोंखे बैठ के सबका मुजरा लेत।
जिसकी जैसी चाकरी वैसा ही फल देत॥
 
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गये सबके दाता राम॥
 
बिनु सत्संग न हरिकथा ते बिन मोह न जाय।
मोह गये बिनु राम पद, होवहिं न दृढ़ अनुराग॥
 
एक घडी आधी घडी, आधी से पुनि आध।
तुलसी सगंत साधु की हरे कोटि अपराध॥
 
सियावर रामचंद्र की जय
रमापति रामचंद्र की जय
पवनसुत हनुमान की जय
उमापति महादेव की जय
ब्रिन्दावन कृष्णचंद्र की जय
बोलो भाइ सब संतन की जय
 
बस, आइ एतहि विराम दय रहल छी। लेकिन ओहि बाबी-बाबा, काकी-काका, मामी-मामा व समस्त परिजन व हम-अहाँ सभक लेल देल गेल एक परम अमृत तुल्य महा औषधि प्रसाद रूप मे सेहो दय रहल छी जे सब कियो अपन-अपन जीवन मे जरूर उपयोग मे आनब।
 
स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी केर कहल अछि –
 
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥
 
मद, मोह तथा नाना प्रकार केर छल-कपट त्यागि दियए त हम ओकरा बहुत जल्दी साधु केर समान कय दैत छी। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार एहि सभक ममत्व रूपी ताग केँ बाँटिकय आर ओहि सभक एक डोरी बनाकय ओकरा द्वारा जे अपन मोन केँ हमर चरण मे बान्हि दैत अछि (समस्त सांसारिक सम्बन्धक केन्द्र हमरहि बना लैत अछि) – जे समदर्शी अछि, जेकरा कोनो इच्छा नहि छैक आर जेकरा मोन मे हर्ष, शोक व भय नहि छैक – एहेन सज्जन हमर हृदय मे केना बसैत अछि, जेना लोभीक हृदय मे धन बसैत छैक। अहाँ (विभीषण सँ) संत टा हमरा प्रिय अछि। हम आर केकरो निहोरा सँ (कृतज्ञतावश) देह धारण नहि करैत छी।
 
एहि प्रसादरूपी सन्देश केँ हमरा लोकनि आत्मसात कय अपन जीवन केर परीक्षण अवधि केँ नीक सँ उत्तीर्ण करबाक चेष्टा कय सकैत छी। ॐ तत्सत्!
 
हरिः हरः!!

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