गोपाल बाबूक दुइ कवितः ईर्ष्या आ लाटरी

कविता

– गोपाल मोहन मिश्र

१. ईर्ष्या

कियै हम अप्पन दुख सं बेसी,
दोसरक सुख सं दुखी होईत छी ।
कियै ईर्ष्याक आगि में तपि कै,
कुंदन तs नहि,
मात्र कोइला बनि सुलगैत छी ।
 
एतेक सुलगलहुं कि अप्पन खुशीक
चमक सेहो धुंधला लागय लागल,
नहि देखि सकलहुं अप्पन सुख
अप्पन आनंद,मात्र कुढ़ति रहलहुं,
कुढ़ति रहलहुं अप्पन ईर्ष्यालु विचार सं ।
 
कियै हम्मर पड़ोसी आगू बढ़ि गेल ?
आ हम सभ दिन देहरी पर ठाढ़ भेल
टकटकी लगेने रहलहुं,
कि कहिया ओ परास्त हैत ।
कहिया ओ जीवन सं हारि कs
हमरा लग वापिस आयत ।
ओहि दिन हम मनायब “दिवाली”,
ताबैत हम सुलगैत रहब,
अप्पन ईर्ष्याक आगि में ।
 

२. “लॉटरी”

ई जीवन कीs थिक
एकटा लॉटरी थिक !
मायक दुलार वा
प्रियतमाक प्यार
सभटा थिक लॉटरी ।
पढ़इत छैथ, लिखैत छैथ,
“बाबू” बनताह !
कुर्सी पर बैसि कs
कलम रगड़ताह !
किन्तु,नौकरी तs
आज़ुक सभ सं
पैघ “लॉटरी” ।
सिनेमाक टिकट कटबैत काल,
“धक्कम-धक्का”, “एड़म-एड़ा”,
मोन में तैयो लेने
“जीवन-मृत्यु” केर संकल्प,
कि आह “हाउस फुल”,
आब ईहो भs गेल “लॉटरी”