हनुमान जखन रावण सँ पहिल बेर भेटलाह त कि सब बात भेल छलः अत्यन्त पठनीय-मननीय लेख

आध्यात्मिक पाठ

– प्रवीण नारायण चौधरी

हनुमान-रावण संवाद

रामायण मे एक महत्वपूर्ण चरित्र रावण केर सेहो वर्णन कयल गेल अछि। जेना नायक राम छथि, खलनायक रावण थिक। सुकर्मे नाम कि कुकर्मे नाम – रावणक नाम कुकर्मीक रूप मे ख्याति पाबि गेल अछि। लेकिन अनेकों किंवदन्ति मे रावणक कुलीनता, विद्वता, प्रकाण्ड पान्डित्य, आदिक चर्चा सेहो भेटैत अछि। रामचरितमानस मे तुलसीदास जी सेहो रावणक पूर्व जन्म केर गाथा बहुत मार्मिक ढंग सँ वर्णन कएने छथि। राजा प्रतापभानु केर रूप मे प्रजाहित सँ लैत राजधर्म निर्वाहक केर रूप नाम अनुकूल महान चरित्रक परिचय करायल गेल अछि। लेकिन वैह राजा प्रतापभानु जखन अति-महात्वाकांक्षी बनि अपना केँ सर्वश्रेष्ठ बनेबाक युक्ति तकबाक क्रम मे एक कपटी गुरु एकतनु (जे यथार्थतः हुनकहि द्वारा युद्ध मे हारल एक दोसर राजा छल) केर चक्कर मे फँसि जाइछ, दुष्ट कालनेमि केँ रसोइया बनाकय यज्ञ समापन भोज मे ब्राह्मण भोजन करबैछ, अभक्ष माँस केर भोजन करेबाक उपक्रम कय बेचारा ब्राह्मणक कोपभाजन बनि शापित भऽ असुर कुल मे जन्म पाबि रावण बनि जाइछ। रावणक प्रारम्भिक चरित्र सँ सब कियो परिचित छीहे – आइ जे प्रसंग एतय राखि रहल छी से रावण केँ जखन हनुमान जी संग पहिल भेंट भेलैक तखन कि सब बात भेलैक, ताहि मे हमरा सभ लेल कि-कि शिक्षा अछि, से राखि रहल छी।
 
दृश्य – जखन हनुमान जी लंका पहुँचि जानकी जी केर खोज-खबरि पाबि हुनका संग आशीर्वाद लय अशोक वाटिका मे फलयुक्त गाछ सब सँ फल तोड़ि-तोड़ि खाय लगलाह त लंकाक बहुभट (अत्यधिक वीर पहलवान) रखबार सब हुनका मारय दौड़लनि, लेकिन हनुमान जी तेहेन बानर छलाह जे उल्टे गाछ उपाड़ि-उपाड़ि ओकरे सब केँ दौड़ा-दौड़ाकय मारब शुरू कय देलनि। बात दरबार धरि पहुँचल। रावण आरो कतेको वीर सेनानी सभ केँ पठौलनि एहि बानर केँ पकड़य लेल। मुदा तिनको सब केँ हनुमान जी वैह हाल केलखिन, गर्दन-मर्दन कय केँ सब केँ नीक जेकाँ मसैल देलखिन, ताहि पर रावण अपन पुत्र अच्छयकुमार केँ पठौलनि, तेकरो हनुमान जी मारि देलखिन। आब इन्द्रजीत मेघनाद केँ पठेलाक बाद ओ कनियेकाल मे हनुमान जीक वीरता केँ अनुमान लगा सीधे ब्रह्मास्त्र संधान कय देलनि, तखन ब्रह्मास्त्र केर महिमाक रक्षा हेतु हनुमान जी मुर्च्छित भऽ गेलाह। नागपाश मे बान्हि कय हुनका रावणक दरबार मे आनल गेल। ओतय बड़का तमाशा लागल अछि। आर, आब दरबार मे कौतुक केर विषय बनल हनुमान जी केँ देखि रावण कि बजैत अछि से देखू आर हनुमान जी हुनका केहेन जबाब दैत छथिन से देखू – सुन्दरता तुलसीदास जी केर रचित रचना मे सेहो अछि जे हमरा सभ सन पाठक केर मोन केँ भँवरा बना रामचरितमानसरूपी फूल केर रस पीबाक लेल बाध्य करैत अछि।
 
दोहा:
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥
 
हनुमान जी केँ देखिकय रावण दुर्वचन कहैत खूब हँसल। फेर पुत्र वध केर स्मरण केलक तखन ओकर हृदय मे विषाद उत्पन्न भऽ गेलैक।
 
चौपाई :
कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
 
रावणः (हनुमान जी सँ) रे बानर! तू के थिकें? केकरा बल पर तूँ वन केँ उजाड़िकय नष्ट कय देलें? कि तूँ कहियो हमर नाम आर यश कान सँ नहि सुनलें? रे शठ! हम तोरा बड़ा निःशंक देखि रहल छी? हमर राक्षस (प्रजा, रखबाला) सभ केँ कोन अपराध सँ मारलें? कहे शठ! तोरा अपन प्राण जेबाक डर नहि छौक की?
 
रावणक एतेक बात सुनैत पूर्ण निःशंक श्रीरामदूत अतुलित बलधामा हनुमान जी जबाब दैत कहैत छथिनः
 
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥
 
दोहा :
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥
 
चौपाई :
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥
 
दोहा :
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥
 
चौपाई :
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥
 
दोहा :
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥
 
हनुमान जीः हे रावण! सुने, जेकर बल पाबिकय माया संपूर्ण ब्रह्मांड केर समूह सभक रचना करैत अछि, जेकर बल सँ हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि केर सृजन, पालन आर संहार करैत छथि, जेकर बल सँ सहस्रमुख (फण) वाला शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्मांड केँ सिर पर धारण करैत छथि, जे देवता लोकनिक रक्षा वास्ते नाना प्रकार केर देह धारण करैत छथि आर जे तोरा समान मूर्ख केँ शिक्षा देनिहार छथि, जे शिवजीक कठोर धनुष केँ तोड़ि देलनि आर ताहि प्रसंगक संगहि समस्त राजा लोकनिक समूह केर गर्व केँ चूर कय देलनि, जे खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि केँ मारि देलनि, जे सभ अतुलनीय बलवान्‌ छल, जिनकर लेशमात्र बल सँ तूँ समस्त चराचर जगत्‌ केँ जीति लेलें आर जिनकर प्रिय पत्नी केँ तूँ (चोरी सँ) हरण कय आनि लेने छँ, हम हुनकहि दूत छी।
 
हमरा तोहर प्रभुता (बल, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य आदि) केर विषय मे सेहो सब बात पता अछि। सहस्रबाहु सँ तोहर लड़ाई भेल छलौक आर बालि सँ युद्ध कय केँ तोँ यश प्राप्त कएने छेँ।
 
(रावण हनुमान जी द्वारा अपन युद्ध आ हारबाक अपयश पर यश केर व्यंग्य सुनिकय हँसैत अछि, आर हुनकर बात केँ टालमटोल करैत अपनहि जिद्द आ अहंकार मे मस्त रहबाक चरित्र देखबैत अछि ठहाका लगाकय… हनुमान जी ओकरा बुझबैत आगाँ कहैत छथिन) –
 
हे (राक्षस केर) स्वामी! हमरा भूख लागल छल, ताहि सँ हम फल खेलहुँ। बानर स्वभाव केर कारण गाछो तोड़लहुँ।
 
हे निशाचर केर मालिक! देह सब केँ परम प्रिय छैक। कुमार्ग पर चलयवला राक्षस जखन हमरा मारय लागल, तखन जे सब हमरा मारलक तेकरा सब केँ हमहुँ मारलहुँ। ताहि पर तोहर बेटा हमरा बान्हि देलक, मुदा अपन बन्हायल जेबाक लाज हमरा कनिकबो नहि अछि। हम तऽ अपन प्रभुजीक काज करय चाहैत छी।
 
हे रावण! हम हाथ जोड़िकय तोरा सँ विनती करैत छी, तूँ अभिमान छोड़िकय हमर सीख सुने। तूँ अपन पवित्र कुल केर विचार कय केँ देखे आर भ्रम केँ छोड़िकय भक्त भयहारी भगवान्‌ केँ भजे। जे देवता, राक्षस और समस्त चराचर केँ खा जाइत अछि, ओ काल सेहो जिनकर डर सँ अत्यंत भयभीत रहैत अछि, तिनका सँ कदापि वैर (शत्रुता) नहि करे आर हमर कहना अनुसार जानकी जी केँ दय दहुन। खर केर शत्रु श्री रघुनाथ जी शरणागत केर रक्षक और दया केर समुद्र छथि। शरण गेलापर प्रभुजी तोहर अपराध बिसरिकय अपना शरण मे राखि लेथुन। तोँ श्री राम जी केर चरण कमल केँ हृदय मे धारण करे आर लंका पर अचल राज्य करे। ऋषि पुलस्त्य जी केर यश निर्मल चंद्रमा समान छन्हि। ताहि चंद्रमा मे तूँ कलंक जुनि बने।
 
राम नाम केर बिना वाणी शोभा नहि पबैछ, मद-मोह केँ छोड़िकय, विचारिकय देखे। हे देवतागणक शत्रु! सब गहना सँ सजलो कोनो सुंदरी स्त्री बिना कपड़ा केँ शोभा नहि पबैत अछि। रामविमुख पुरुष केर संपत्ति और प्रभुता रहलो-सहलो चलि जाइत छैक आर ओकर पेनाइयो बिन पेबा समान होइत छैक। जाहि नदीक मूल मे कोनो जलस्रोत नहि छैक, अर्थात् जे मात्र मौसमी बर्खाक जलक आसरा पर अछि, से बर्खा बीति गेला पर तुरंत सूखि जाइत अछि।
 
हे रावण! सुने, हम प्रतिज्ञा कय केँ कहैत छियौक जे रामविमुख केर रक्षा करयवला कियो नहि छौक। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा सेहो श्री राम जी केर संग द्रोह करयवला तोरा नहि बचा सकैत छथि। मोहे जेकर मूल अछि एहेन (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देयवला तमरूप अभिमान केँ त्याग कय दे आर रघुकुल केर स्वामी, कृपा केर समुद्र भगवान्‌ श्री रामचंद्र जी केर भजन करे।
 
तुलसीदास जी कहैत छथि –
 
चौपाई :
जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥
 
यद्यपि हनुमान जी द्वारा भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति सँ सानल बहुत रास हित केर वाणी कहल गेल, मुदा तखनहुँ ओहि अभिमानी रावण केँ व्यंग्य सुझाइत रहलैक आर पुनः ओ ठहाका सँ हँसैत हनुमान जी सँ कहैत अछि – हमरा त ई बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु भेटल! रे दुष्ट! तोहर मृत्यु निकट आबि गेलौक अछि। अधम! हमरा शिक्षा दय लेल चललें हँ…!
 
हनुमानः एकर ठीक उल्टा हेतौक, तोहर मृत्यु तोरा पास आबि गेल छौक, हमर नहि। ई तोहर मतिभ्रम थिकौक, बुद्धि केर फेर थिकौक। हम प्रत्यक्ष जानि रहलहुँ अछि।
 
हनुमान जी केर वचन सुनिकय रावण बड़ा तामश करैत अछि आर कहैत अछि –
 
रावणः अरे! एहि मूर्ख केर प्राण शीघ्रहि कियैक नहि लैत छँ कियो…!
 
एतेक सुनैत देरी राक्षस सब हनुमान जी केँ मार-मार करैत दौड़ैत अछि। ताहि समय मंत्री लोकनिक संग विभीषण जी ओतय आबि जाइत छथि। ओ विनम्रता सँ सिर झुकाकय रावण सँ कहैत छथि जे “दूत केँ नहि मारबाक चाही, ई नीति केर विरुद्ध बात भेल। हे गोसाईं! कोनो दोसर दंड देल जाय।” हुनकर एहि सलाह केँ दोसरो लोक सब स्वीकार केलक। सब कहलक जे हँ, ई उत्तम सलाह भेल। एतेक सुनिकय रावण हँसिकय बाजल – ठीक छैक, तऽ एहि बंदर केँ अंग-भंग कय केँ वापस पठो।
 
निष्कर्षः जखन अहंकार हमरा सब पर हावी रहैत अछि त नीतियुक्त वचन बुझय सँ चुकि जाइत छी। अपनहि ज्ञान केँ सर्वोपरि मानि अपनहुँ सँ नीक ज्ञान लेबय सँ वंचित रहि जाइत छी। हालांकि विभीषण केर नीतियुक्त वचन ऊपर प्रसंग मे रावण मानि लैत अछि, मुदा ताहि सँ पहिनहि हनुमान जी द्वारा देल गेल परम शक्तिशाली सन्देश लय सँ रावण चूकि गेल। ओकरा अपन कुल केर मर्यादा आ राज्य भोगबाक फलादेश तक हनुमान जी कयलखिन, परञ्च माता जानकी प्रति ओकर मोन मे जे पाप बैसल छल ओ नहि निकैल सकल। एहि तरहें रामायण केर ई हनुमान-रावण संवाद केँ एतहि विराम दैत छी।
 
हरिः हरः!!