मोहमाया – गुजरात सँ मैथिली लेखक श्री राजेन्द्र झा द्वारा प्रेषित मैथिली कथा

मोहमाया – मैथिली कथा
 
– राजेन्द्र झा, वडोदरा (गुजरात)
 
संदीप आई गाम आबि रहल छथि.. अपन गाम … पूरा एक बरखक बाद । दरभंगा स्टेशन सँ गाम पहुँचए में करीब दू घंटाक समय लगैत छैक – माने कि सात बजे साँझ केँ शंभु कका के ‘बौआ’ गाम पहुँच जेथिन। शंभु कका माने शंभु बाबू … शंभु कका माने ‘शंभुनाथ झा’ … आ पूरा गामक लेल ‘शंभु कक्का’ … ।
 
मुदा भोरे सँ औना रहल छथि शंभु कका – कि बौआ कखन पहुंचताह अपन गाम .. अप्पन अँगना । सात बजलै.. सांझक आठ सेहो बाजि गेलैक.. आब साढ़े आठ बजतैक..। मुदा बौआ .. । साईकिल टनटनवैत किशुन जाईत देखाए पड़लनि तs पाछाँ सँ सोर पाड़लनि- ‘ यौ बौआ! के छी?.. किशुन! एमहर आबs .. सुनs .. ओकरा कि कहै छै .. हाँ रेलवे इंक्वायरी .. कनेक पूछहक कि स्वतंत्रता-सेनानी-एक्सप्रेस लेट छैक ? किशुन बिना रूकने बाजि गेल – ‘ कका ! ट्रेन समय पर छल ..हमर भैया त’ ओही ट्रेन सँ घंटा भरि पहिने पहुँच गेलाह.. संदीप अखन धरि नहिं पहुंचल कि ..? अबिते हैत … ।’
 
किशुन त’ चलि गेल , मुदा शंभु कका आरो बेचैन .. बौआ कतए रहि गेलाह ?.. मोन में नाना प्रकारक विचार .. बेसी अधलाहे । कनेक काल त’ दलाने पर चिन्ता व आशंका सँ अपन डेग के घिसियबइत रहलाह .. मुदा जखन बर्दाश्त नहिं होमए लगलनि त’ अँगना दिश विदा भेलाह । काकी किछु पुछितथिन, ताहि सँ पहिने फुसिए बाजि गेलाह – ‘ ट्रेन लेट छैक .. बौआ एक दू घंटा में आबि जेताह’ ।
 
एक- दू घंटा … ! काकी किछु नहिं बजलीह .. मुदा मूंह मलिन.. । भोरे सँ दौड़ि रहल छथि .. आ कका के दौड़ा रहल छथि दोकान पर … कखनो कोनो समानक लेल , कखनो कोनो …बारंबार .. बौआ के बथुआ साग नीक लगै छन्हि.. बौआ के गुड़खीर नीक लगै छन्हि.. बौआ के ठकुआ नीक … । भोरे सँ आई मिझाएल नहिं छन्हि काकी केरि चूल्हा.. । बौआ के मूंह देखैक लेल बेचैन छथि काकी … एकहु मिनट आब पहाड़ जकाँ … आ ट्रेन लेट … एक – दू घंटा.. । हे भगवती ! … ।
 
रातिक एक- एक मिनट बित रहल छल पहाड़ जकाँ । भोरे चारि बजे धरि कका जगैत रहलाह , आ तकरा बाद औंघरा गेलाह बिछान पर .. आँखि मुंदि चिन्तित आ व्याकुल, मुदा निन्न पर केकर ज़ोर! मुदा काकी .. ओसारा पर बैसले रहि गेलीह.. आँगन दिस पैर लटकौने .. बौआ के बाट तकैत ।
 
भोरे सात बजे बौआ गोड़ लगलखिन्ह अपना माए के .. एक हाथ में बड़का ब्रीफ़केस आ पीठ पर बैग लटकौने । काकी किछु नहिं पूछलथिन । बौआ एक मिनट धरि ठाढ़ रहलाह आ काकी दिश बिनू तकने बजलाह – ‘ दरभंगा त’ हम समये पर आबि गेल रही .. सोहन स्टेशन पर आबि गेल रहए आ ज़बरदस्ती ल’ गेल अपन डेरा पर.. आ तकरा बाद रोशन , सूरज , राकेश , चुनचुनवा, महेशिया .. सब ओतय पहुँच गेल .. किन्नहु नहिं मानलक.. रोकि लेलक कि खेनाई खा क’ जईहेँ .. ज़बरदस्ती खोआ- पिया देलक सब .. थाकल रही त’ निन्न.. ।.. पप्पू के त’ हम फ़ोन क’ देने रहिऐक कि आँगन पर समाद द’ दिहेँ कि….. पप्पूआ समाद नहिं देलकौ कि ?
 
काकी मौने रहलीह .. एक्को शब्द नहिं । किछु बजनाई उचित नहिं बुझला गेलनि । बौआ के मुँह दिस तकैत रहलीह.. फुलल-फुलल आंखि , जेना राति भरिक जगरना हो.. बिनू झारल ओझरायल केश.. मोचरायल शर्ट – पैन्ट । बौआ के तो ओ माए छथिन.. किछु बुझना में भांगटि नहिं रहनि .. खेनाई! पिनाई! … ।
 
बौआ दू मिनट ओहिना ठाढ रहलाह.. माएँ सँ आँखि चौरबैत । आ तकरा बाद तेज़ी सँ विदा भेलाह कोठरी दिस। जाईत- जाईत बजलाह कि ‘ माँ ! हमरा नीन लागल अछि.. एक – दू घंटा सुतलाक बादे स्नान करब । कका परदा के ओट स’ सब किछु देख लेने छलाह । अपन स्थान पर यथावत बैसले रहलाह । पूरा डेढ़ बरिस के बाद बौआ के देखिने छलाह कका ।एक मोन भेबो केलनि जे – चल जाई बौआ लग आ पकड़ि ली हुनका भरि पाँजि .. । बौआ अखन धरि गोड़ो नहिं लागल रहथिन कका के । जे आँखि पथरायल छल बौआ के देखैक लेल , ताहि आँखि सँ एक बूँद नोर धोती पर खसि पड़ल रहए .. अनायास ।
 
बौआ अर्थात संदीप कुमार झा, इंडियन एयर फ़ोर्स में कार्यरत । तीन बहिन पर एक बेटा .. सबसँ छोट.. ताहि लेल सबसँ दुलारू । तीनू बेटी के शिक्षा आ विवाह – पहिने खेत भरना भेल … आ तकरा बाद खेत बिकाए लागल । बेटा के मैट्रिक करबैत – करबैत प्रायः खेत – पथारी समाप्ते छलैन्ह । मुदा जॉन – मज़दूर अखनो कका के ‘गिरहत’ कहै छैन्ह । काकी बीमार रह’ लगलखिन्ह त’ स्थिति बद सँ बदतर होमय लगलनि । करतथि कि – बौआ गेला आगाँ पढैक लेल मामा लग पटना आ कका वर्षकृत्य उठौलाह.. पूजा-पाठ करा क’ पेट पोसैक लेल। आई कतौ कोनो पूजा होई छैक आस- पास के गाम – इलाक़ा में त’ कका पुरहिति में पहिल पसिन्न लोक के । कहुना पेट चलैत रहलैन कका के किएक कि पूजेगरी के दक्षिणा देवै में लोग अखनो कंजूस ! पूजा – पाठ मे तामझाम-आडंबर खूब बढलैए .. मुदा दान दक्षिणा के ‘रेट’ मे ओहन कोनो बढ़ोतरी नहिं । … .मुदा आब गामक लोक कहैत छन्हि कि ‘ कका! आब कोन .. आब त’ बेटा सरकारी नौकरी करैए .. दिन घूरि गेल अहाकेँ .. बेटी बला सभ त’ लाईन लगा देत आब…।
 
बौआ बारह बजे दिन में सुति क’ उठलाह आ कका के गोड़ लागि बस एतबे पुछलखिन्ह- ‘ बाबूजी! ठीके छी ने? मोन में आशंका रहनि कि बाबूजी काल्हि केरि बात नहिं पुछथि, ताहि लेल तुरंते विदा भ’ गेलाह स्नान करैक लेल । एक घंटा के बाद कका संगे भोजन पर बैसलाह आ ओतबे बजति रहलाह जतबे कि कका पुछलखिन । काकी दिश तकबाक अखनो हिम्मति नहिं। कका तरकारी में नेबो गारथि .. भरि मुँह कौर लथि आ आँखि के कोन सँ बौआ के निहारथि … ।गरम- गरम तरूआ खसैक पात पर .. आ बौआ चुपचाप खेने जाथि ।
 
अपन ब्रीफ़केस खोलि बौआ देलनि माए के हाथ मे दू टा साड़ी, एकटा हॉर्लिक्स के बरका डिब्बा, दू डिब्बा पॉन्ड्स फ़ेस-पाउडर , एकटा डाबर च्यवनप्राश.. एकटा सौंसे जड़ी कएल हरिअर सिल्क साड़ी आ दोसर लाल बाँधनी-साड़ी । आ कका लेल एकटा डिज़ाइनर कुर्ता , एकटा मोदी कुर्ता, एकटा करिया बंडी , एकटा उजरा खादी बंडी ।… आ पॉलीथीन के झोरा ल’ क’ विदा भेलाह अप्पन काका-काकी- देयाद सबहक अँगना दिस.. । बौआ पहिल बेर आएल छथि गाम नौकरी भेलाक बाद .. सभ लेल किछु-न- किछु सनेस अनने छथि ।… खवासनी बुढ़िया बाजि गेल रहए काकी दिस ताकि क’ – ‘ मलकाईन बीमार रहै छथि त’ केओ चाहो लेल नहिं पुछै छै .. आ देखियौ .. आब ई बौआ .. भ’ गेल सबहक बौआ.. ‘ ।
 
बौआ दस बजे राति तक घुमैत रहलाह – दोस्त- महिम , संगी- साथी , दलाने- दलाने..सब पितियौत भाई- बहिन सँ खूबरास गप्प । राति के खेनाई में काकी के एतेक दिनक सबटा तैयारी के समावेश रहनि । बौआ ख़ाईत रहलाह आ काकी लालटेन के मद्धम प्रकाश पर बौआ केरि चमकैत मुँह देखि प्रसन्न होइत रहलीह ।
 
सभ काज सँ निवृत भ’ काकी जखन कोठरी मे प्रवेश कयलीह त’ देखै छथि कि शंभु बाबू डिज़ाइनर कुर्ता पहिरने, मोदी कुर्ता आ बंडी के उनटा-पुनटा क’ देखै छलथिन । काकी के देखि कनेक झेंप गेला …कनेक लजाइयो गेलाह… । काकी के हँसी लागि गेलनि – हंसिते बजलीह-‘ अहां त’ बच्चा जेकां करै छी .. ।’
 
“आहि -रौ- बा ! बेटा शौक़ स’ अनलकए .. आब त’ बेटा कमाइए .. आब दूनू गेटों खूब शौख मनोरथ करब … शरीर बूढ भेला स’ शौख मनोरथ थोरबेक बूढ होई छै .. “ – बजिते- बजिते करिया बंडी पहिर क’ देखलनि । .. तकरा बाद उजरा बंडी ।काकी चुटकी ल’ लेलनि-‘ अहां त’ एकदम छौंड़ा लगै छी … ।’
 
सत्ते ?
 
‘हाँ सत्ते ! विवाहो मे अहां एहन सुन्दर नहिं लागल रही ।’ चलू मानल अहांक बात । आब हमरो एकटा बात मानि लिअ’ अहाँ .. आ बौआ के आनल ललका-साड़ी पहिरि क’ देखा दिअ’ हमरा ।
 
शंभु बाबू के बात काकी के मानए परलनि आ शंभु बाबू त’ .. बस देखिते रहि गेलाह । मोन मे अएलनि कि बौआक माए एतेक दुखित रहितो कतेक सुन्दर छथि । शायद विवाहक बाद पहिल बेर लाल साड़ी में देखने रहथिन अपन कनिञा के .. लाल बाँधनी साड़ी में काकी अद्भुत सुन्नरि.. । कनेक काल देखिते रहि गेलाह आ बाजि उठलाह कका- ‘ अहां बड्ड सुन्दर लागि रहल छी ।’ काकी लजा गेल रहथि .. चेहरा सुर्ख़ लाल .. । बजलीह- ‘ बौआ के साड़ी किनअ नहिं अबै छन्हि .. हमर आब उमिर अछि लाल रंग पहिर’ केरि ?… । मुदा दूनू प्राणी खूब प्रसन्न रहथि । कका त’ दुबारा डिज़ाइनर कुर्ता के नीक जकाँ देखलनि.. हलका बैंगनी रंगक कुर्ता पर कॉलर -गरदनि-बाँहि पर डिज़ाइनर काज.. । फेर सँ पहिर कए अाएना लग जा कए अपना के निहारैत रहलाह .. खूब
 
प्रसन्न रहथि .. एकरा पहिरब अहि दशमी मे … । सूतैक लेल सनिहा गेला मसहरी मे । मुदा नीन कहाँ ?.. मसहरी से बाहरि निकलि कए फेर स’ सबटा कपड़ा के उलटि- पुलटि कए देखलनि .. नीक जकाँ .. डिज़ाइनर कुर्ता के दुबारा चोपैत क’ राखि देलथिन एक कोना मे .. टिनही बक्सा के उपर .. सम्हारि कए.. । ललका साड़ी दिश तकैत रहला..घंटो धरि ।
 
काकी भोरे सँ लागल छलीह खेनाई बनबैक तैयारी में । कका मल्लाह के कहि देने रहथिन , ताहि लेल काकी सरसों- मसल्ला महिन पिसैक लेल खवासनी के डटैत रहथिन.. कका टटका तिलकोरा पात आ कदिमा -फूल ताकि कए अनने रहथि । बौआ के साते बजे भोर में पैंट- शर्ट पहिर तैयारि देखि काकी पुछलथिन- ‘बौआ! एतेक भोरे तैयार .. ? बौआ के उत्तर संक्षिप्त छलनि-‘ दसे दिनक छुट्टी पर आयल छी आ भेंट सबसँ करबाक अछि .. अखनहिं निकलब हम.. ‘।
 
बिनु किछु खेने पीने.. भोरे सँ भनसा में लागल छी कि हमर बौआ के जे नीक लगतनि से …’ ‘ माए! कहुना बुझल कर .. खेनाई-पेनाई में समय बर्बाद करब त’ ककरों सँ भेंटगाँठ नहिं हैत.. हम अखनहिं विदा भ’ रहल छी.. चाहो पिव लेब कतहु रस्ता में ..’ ।
 
बौआ विदा भ’ गेल रहथि । काकी चूल्हा मिझा देने रहथिन । आई लकड़ी सबटा भीजल रहैक, ताहि लेल आँच पजरै में दिक्कति भेल रहैक .. मुदा पजरल रहै बड़ सुन्दर .. काकी एक लोटा पानि ढारि देने रहथिन ज़िद्दी लकड़ीक उपर । तीन दिनक बाद बौआ लौटल रहथि गाम पर .. राति के नौ बजे । काकी बस एकबे पुछलथिन – ‘ सब कुशल ने.. सब केयो ? खेनाई बनल अछि .. परसि दिअ’ कि? बौआ आई माएक हाथक बनल खेनाई खेलनि- गरमा गरम रोटी – चारि टा रोटी तरकारी संगे आ दू टा रोटी दूध में गुड़ि कए .. ज़बरदस्ती.. । आ तकरा बाद अपन पहुनाई के क़िस्सा सविस्तार बतौलनि माए के । खूब प्रसन्न रहथि .. बिहुंसैत रहथि बौआ । आ अपना कोठरी में सुतै लेल जाईत- जाईत कहि देलनि अपना माए के – ‘ काल्हि भोरहिं हम निकलि जाएब पटनाक लेल .. एकदम भोरे ..’ । काकी एतबे बाजल रहथि .. ठीक सँ अहांक मुँहों नहिं देखलहुं आ अहां जा रहल छी .. एकहु दू दिन आरो रूकितहुं ।.. नोर नुकवैत एकटा नेहोरा .. अन्तिम प्रयास कएलनि काकी । बौआ के ज़बाव रहनि- ‘ मामा- मामी के घर मे दु- तीन दिन रहब ज़रूरी अछि .. बहुत कएने छथि हमरा .. माए – बाप सँ बढि कए …हम आई जे छी हुनके सबहक बदौलति.. मामा त’ मामे .. मामीओ तहिना मानै छथि हमरा.. एहन आवेश कि .. ओतए दू तीन दिन नहिं रहब त’ मामा- मामी के बड़ तकलीफ़ हेतनि .. मोन टुटि जेतनि .., । बौआ के दलील कए आगाँ एकदमे धारासायी.. अवाक .. अनुत्तरित । काकी के पहिल बेर अपन भाई- भौजी पर ईर्ष्या केरि भाव अएलनि मोन में … ।
 
बौआ चलि गेल रहथि अपन कोठरी में । कका आँखि बंद कएने छलाह .. बलजोरी । काकी सेहो वामा- दहिना करौट बदलैत छलीह । कका पूछिए लेलनि- ‘ बौआ काल्हिए चलि जेताह कि? ठीक सँ गप्पो नहिं भेल आ ओ.. ‘ । काकी बीते में रोकि देने रहथिन – ‘ बहुत दूर बौआ के पठौने रहएनि पढैक लेल … आब ओ हमरा सब सँ बहुत दूर चलि गेलाह .. जुनि विचारू किछु .. सुति जाउ .. ।’
 
राति के ग्यारह बजे राति कए बौआ दरबजा लग आबि आवाज देलनि – ‘ माए ! सुति रहलेँ ? कोठरी में प्रवेश कए बौआ दू मिनट धरि चुप्पे रहलाह आर तकरा बाद एकहिं साँस में बाजि गेलाह – ‘ छुट्टी त’ अहि बेर बहुत कम दिन भेटल रहए , मुदा यात्रा बहुत सुन्दर रहल .. सबसँ भेंट भए गेल .. सब लेल कपड़ा वा सनेस अनने रही.. पूरा दु महिना केरि दरमाहा अहि में चलि गेल .. सुधा बहिन के ननदि सँ सेहो भेंट भेल .. हुनका सेहो एकटा साड़ी द’ देलएनि .. ओ सब हाई- फ़ाई लोक छथि, ताहि लेल मामी वला साड़ी हुनका द’ देलयनि .. ‘ ।
 
काकी बुझि गेल रहथि बौआक मोनक बात । तुरंत बजलीह – ‘ हमर वला साड़ी ल’ जाउ मामी लेल.. हम ओनाहु लाल साड़ी थोरबेक पहिरब .. अहि वयस में हमरा शोभा देत? .. आ बौआ , हम त’ जीवन भरि सुती साड़ी पहिरलहुं .. दू- तीन सौ टका वाला .. ‘ । काकी ओ ललका बाँधनी साड़ी बौआ के द’ देने रहथिन । बौआ सेहो हँसैत बजलाह – ‘ हाँ माए .. ई साड़ी त’ मामीए केरि शोभा देतनि .. ओ झक- झक गोरि… ।’
 
बौआ के नजरि गएलनि डिज़ाइनर कुर्ता पर .. नीक जकाँ चोपैत कए राखल डिज़ाइनर कुर्ता । वो बजलाह – ‘ माए , ई कुर्ता मामा के द’ दिअनि कि ? बाबूजी लेल अगिला बेर हल्लुक रंग केरि कुर्ता लएने अएबनि ।’ बौआ ओ कुर्ता के सेहो काँख तर दबने कोठरी सँ बाहर भ’ गेलाह ।
 
भोरे-भोर काकी पूछलथिन – ‘ बौआ ! कखन विदा होयब .. बाबूजी बस स्टैंड धरि छोड़ि देताह । बौआ समान पैक करैत जवाब देलथिन – बाबूजी के परेशान होयबाक कोनो ज़रूरत नहिं छनि .. सुरेश अबिते हैत , मोटरसाईकिल लए कए .. छोडि देत दरभंगा धरि … ।
 
काकी के गोड़ लागि लेलनि बौआ .. विदा होमय लेल तैयार रहथि । कका कतहु नहिं देखाए पड़लथिन – ‘ माए ! हमरा देरी भ’ रहल अछि .. कतए चलि गेलाह बाबूजी ! ..’अबिते हेताह .. पोखरि दिस गेल रहथि ।’
 
दू मिनट धरि ठाढ रहलाह बौआ कका केरि इंतज़ार में । आ फेरो सँ काकी के गोड़ लागि कहलनि- ‘ आब हम नहिं रूकि सकै छी .. बहुत लेट भ’ रहल अछि .. ।’
 
शंभु कका दूरे सँ देखलथिन मोटरसाईकिल के धुआँ उड़वैत … जाईत ।