न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥३॥
अहाँ नहि तऽ पृथ्वी (क्षिति) छी, नहिये पानि (जल), नहि आगि (पावक), नहिये हवा (समीर), नहिये आकाश (गगन)। मुक्ति पेबाक वास्ते अपना (स्व) केँ एहि सभक द्रष्टा (गबाह) टा बुझू आर स्वयं केँ चिद्रुप (चित्त रूप) टा मानू।
You are neither earth, nor water, nor fire, nor air, nor space. In order to attain liberation, know the Self as the witness of all these and as Consciousness itself.
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥४॥
जँ अहाँ अपना केँ अपन शरीर सँ विमुक्त (पृथक्) कय लैत छी आर केवल चित्त (आत्मज्ञान) मे विश्राम (स्थिर) करैत छी, तँ अहाँ तत्काल (एखन के एखन) आर भविष्यहु लेल सुखी, शान्त आ बन्धनमुक्त बनि जायब।
If you detach yourself from the body and rest in Consciousness, you will at once be happy, peaceful and free from bondage.
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असङ्गोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव॥५॥
नहि तऽ अहाँ विप्र (ब्राह्मण) आदि वर्ण केर छी नहिये अन्य कोनो जातिक या कोनो आश्रमक। अहाँ एहि ज्ञानेन्द्रिय द्वारा देखय-बुझय योग्य सेहो नहि छी बल्कि असङ्ग (सब सँ मुक्त, स्वतन्त्र, अनअटैच्ड), निराकार आर एहि सभक साक्षी थिकहुँ। सुखी होउ।
You do not belong to the Brahmana or any other caste or to any Ashrama. You are not perceived by the senses. Unattached, formless, and witness of all are you. Be happy.
धर्माधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा॥६॥
हे विभो (सर्वत्र विराजनिहार)! धर्म या अधर्म, सुख वा दुःख ई सब मोनक बात मात्र थिक, कथमपि अहाँक नहि। अहाँ नहिये कर्ता (करनिहार) छी, नहिये भोक्ता (भोगनिहार); निश्चित रूप सँ अहाँ सदिखन मुक्त छी।
Virtue and vice, pleasure and pain, are of the mind, not of you, O all-pervading one. You are neither doer nor enjoyer. Verily you are ever free.
एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥७॥
अहाँ केवल सभक द्रष्टा छी तथा यथार्थतः सर्वदा मुक्त सेहो छी। निश्चितप्राय अहाँक यैह टा बन्धन थिक जे अहाँ अपना केँ द्रष्टा नहि बुझि अन्य बात बुझैत छी।
You are the one seer of all and are really ever free. Verily this alone is your bondage that you see yourself not as the seer but as something else.
अहं कर्तेत्यहंमानमहाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव॥८॥
अपन अहं केर महान काला विषधर (साँप) केर कटला सँ ‘हम कर्ता छी’ से नहि बुझि ‘हम कर्ता नहि छी’ ताहि विश्वासक अमृत केँ पीबू आर सुखी भऽ जाउ।
एको विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव॥९॥
‘हम मात्र एक छी, विशुद्ध बोध टा छी’ एहि निश्चय-ज्ञानाग्नि सँ गहन-अज्ञान केर जंगल केँ जरा दियौक आ शोक सँ मुक्त भऽ जाउ, आ सुखी होउ।
Burn down the forest of ignorance with the fire of the conviction ‘I am the One, and Pure Consciousness’, and be free from grief and be happy.
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनन्दपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर॥१०॥
अहाँ ओ बोध, आनन्द-परमानन्द थिकहुँ जाहि मे आ जाहि पर ई ब्रह्माण्ड टिकल अछि, जेना कि कल्पना सँ रस्सी मे साँप अछि। सुखी भऽ जीवन मे बढैत चलू।
You are that Consciousness, Bliss – Supreme Bliss, in and upon which this universe appears superimposed, like a snake on a rope. Live happily.
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किंवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥११॥
ओ, जे स्वयं केँ मुक्त बुझैत अछि, से सच मे मुक्त अछि; तथा ओ, जे अपना केँ बंधन मे देखैत अछि, ओ सच्चे बन्धन मे पड़ल रहैछ। ‘जेना कियो सोचैत अछि, तेना ओ बनैत अछि’ – एहि संसार मे एकटा लोकप्रिय कहिनी छैक, आ से सच छैक।
He who considers himself free is free indeed, and he who considers himself bound remains bound. ‘As one thinks, so one becomes’ is a popular saying in this world, and it is quite true.
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असङ्गो निस्पृहः शान्तो भ्रमात् संसारवानिव॥१२॥
आत्मा साक्षी, सर्वत्र विराजमान, पूर्ण, एक, मुक्त, चित्त, क्रियाहीन, असङ्ग, निःस्पृह, तथा शान्त अछि। भ्रमवश ई एहि संसार केर थिक एना बुझि पड़ैत अछि। (बेर-बेर जन्म आ मृत्यु केर चक्र मे पड़ला सँ)
The Self is witness, all-pervading, perfect, One, free, Consciousness, actionless, unattached, desireless, and quiet. Through illusion It appears as if It is of the world (i.e. subject to the ever-repeating cycle of birth and death).
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्॥१३॥
अपरिवर्तनीय, चेतन ओ अद्वैत आत्मा केर चिंतन करू तथा ‘हम’ केर भ्रम रूपी आभास-भाव सँ बाहर आ भीतर दुनू तरहें मुक्त होउ।
Having given up external and internal self-modifications and the illusion ‘I am the reflected’ (individual) self meditate on the Atman as immutable, Consciousness, and non-dual.
देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखड्गेन तन्निकृत्य सुखी भव॥१४॥
हे पुत्र! बहुत समय सँ अहाँ ‘हम शरीर छी’ एहि भाव बंधन मे बन्हा गेल छी, स्वयं केँ अनुभव कय, ज्ञान रूपी तलवार सँ एहि बंधन केँ काटिकय सुखी भऽ जाउ।
My child, you have long been caught in the noose of body-consciousness. Sever it with the sword of the knowledge ‘I am Consciousness’, and be happy.
निःसङ्गो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरञ्जनः।
अयमेव हि तेबन्धः समाधिमनुतिष्ठसि ॥१-१५॥
अहाँ असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त छी। ध्यान (योग) द्वारा अहाँ मस्तिस्क केँ शांत रखबाक चेष्टा (प्रयत्न) कय रहल छी, ई बुझब निश्चित अहाँक बंधन थिक।
You are unattached, actionless, self-effulgent, and without blemish. This indeed is your bondage that you practise meditation.
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः ।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम् ॥१-१६॥
ई विश्व अहीं सँ व्याप्त भेल अछि, वास्तव मे अहीं एकरा व्याप्त कयने छी। अहाँ शुद्ध और ज्ञानस्वरुप छी, छोटपन केर भावना सँ ग्रस्त नहि होउ।
You pervade this universe and this universe exists in you. You are really Pure Consciousness by nature. Do not be small-minded.
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः ।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन: ॥१-१७॥
अहाँ निरपेक्ष, विकाररहित, निराकार (निर्भर), शीतलता केर धाम, अगाध बुद्धिमान छी, शांत भऽ केवल चैतन्य केर इच्छावला बनि जाउ।
You are unconditioned, immutable, formless, of cool disposition, of unfathomable intelligence, and unperturbed. Desire Consciousness alone.
साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं ।
एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव: ॥१-१८॥
आकार केँ असत्य जानिकय निराकार केँ टा चिर स्थायी मानू, एहि तत्त्व केँ बुझि लेलाक बाद पुनः जन्म लेनाय संभव नहि अछि।
Know that which has form to be unreal and the formless to be permanent. Through this spiritual instruction you will escape the possibility of rebirth.
यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।
तथैवास्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः॥
जेना एकटा ऐना (दर्पण) मध्य देखा रहल कोनो रूपक अस्तित्व ओकर भीतर आ बाहर दुनू ठाम समान छैक, तहिना परमेश्वर (परमात्मा) एहि शरीर केर भीतर अथवा बाहर समान अस्तित्व मे रहैत छथि।
Just as a mirror exists within and and without the image reflected in it, so the Supreme Self exists inside and outside this body.
एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥
ठीक जेना सर्वव्यापी व्योम (अन्तरिक्ष) कोनो घैल केर अन्दर अथवा बाहर दुनू ठाम एके समान रहैत छैक तहिना नित्य-निरंतर ब्रह्म सर्वभूत (सब किछु) मे व्याप्त रहैत छथि।
Just as the same all-pervading space is inside and outside a jar, so the eternal, all-pervasive Brahman exists in all things.
अष्टावक्र गीता – प्रथम अध्याय निरन्तरता मे….
हरिः हरः!!
नोटः मैथिली जिन्दाबाद पर चेप्टर-वाइज समग्रता मे पढि सकब।