श्रीमद्देवीभागवतसुभाषितसुधा – ज्ञान प्राप्तिक संछिप्त आ अत्यन्त महत्वपूर्ण आधार

श्रीमद्देवीभागवतसुभाषितसुधा
 
येन केनाप्युपायेन कालातिवाहनं स्मृतम्।
व्यसनैरिह मूर्खाणां बुधानां शास्त्रचिन्तनैः॥
 
जाहि कोनो प्रकार सँ समय त बीतिते रहैत छैक, मुदा मूर्खक समय व्यर्थ दुर्व्यसन मे बीतैत छैक आर विद्वान् केर समय शास्त्रचिन्तन मे जाइत छैक। (१/१/१२)
 
मूर्खेण सह संयोगो विषादपि सुदुर्जरः।
विज्ञेन सह संयोगः सुधारससमः स्मृतः॥
 
मूर्खक संग स्थापित कयल गेल सम्पर्क बिखो सँ बेसी अनिष्टकर होइत छैक, एकर विपरीत विद्वानक सम्पर्क पीयूषरस केर तुल्य मानल गेल अछि। (१/६/५)
 
न गृहं बन्धनागारं बन्धने न च कारणम्।
मनसा यो विनिर्मुक्तो गृहस्थोऽपि विमुच्यते॥
 
गृह बन्धनागार नहि थिक आर न बन्धनक कारणे थिक। जे मोन सँ बन्धनमुक्त अछि, ओ गृहस्थ-आश्रम मे रहितो मुक्त भऽ जाइत अछि। (१/१४/५५)
 
कामः क्रोधः प्रमादश्च शत्रवो विविधाः स्मृताः।
बन्धुः सन्तोष एवास्य नान्योऽस्ति भुवनत्रये॥
 
काम, क्रोध, प्रमाद आदि अनेक प्रकार केर शत्रु कहल गेल अछि; मुदा व्यक्तिक सच्चा बन्धु तऽ एकमात्र सन्तोष टा थिक; तीनू लोक मे दोसर कियो नहि अछि। (१/१७/४७)
 
भ्रमन्सर्वेषु तीर्थेषु स्नात्वा स्नात्वा पुनः पुनः।
निर्मलं न मनो यावत्तावत्सर्वं निरर्थकम्॥
 
सब तीर्थ मे घूमैते ओतय बेर-बेर स्नान कइयो केँ जँ मोन निर्मल नहि भेल तऽ ओ सबटा व्यर्थ भऽ जाइत अछि। (१/१८/३८)
 
शत्रुर्मित्रमुदासीनो भेदाः सर्वे मनोगताः।
एतात्मत्वे कथं भेदः सम्भवेद् द्वैतदर्शनात्॥
 
शत्रुता, मित्रता या उदासीनताक सब भेदभाव मोन मे टा रहैत छैक। एकात्मभाव भेलापर भेदभाव नहि रहैछ; ई तऽ द्वैतभाव टा सँ उत्पन्न होइत छैक। (१/१८/४१)
 
प्रयत्नश्चोद्यमे कार्यो यदा सिद्धिं न याति चेत्।
तदा दैवं स्थितं चेति चित्तमालम्बयेद् बुधः॥
 
प्रयत्नपूर्वक उद्यम तऽ करबाके टा चाही, जँ सफलता नहि भेटल तँ बुद्धिमान् मनुष्य मोन मे विश्वास कय ली जे दैव एतय प्रबल छथि। (२/८/३९-४०)
 
धर्मेण हन्यते व्याधिर्येनायुः शाश्वतं भवेत्॥
 
धर्माचरण सँ व्याधि नष्ट होइत छैक आर ओहि सँ आयु स्थिर होइत छैक। (२/१०/३७)
 
मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन॥
 
जतय दान, मान तथा परिग्रह सँ मूर्ख लोक महान् गौरवशाली मानल जाइत अछि, ओहि देश मे पण्डितजन केँ कोनो तरहें नहि रहबाक चाही। (३/१०/४१)
 
द्रव्यशुद्धिः क्रियाशुद्धिर्मन्त्रशुद्धिश्च भूमिप।
भवेद्यदि तदा पूर्णं फलं भवति नान्यथा॥
 
यदि द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और मन्त्रशुद्धिक संग कर्म सम्पन्न होइत अछि त पूर्ण फलक प्राप्ति अवश्य होइत छैक, अन्यथा नहि होइत छैक। (३/१२/७)
 
अन्यायोपार्जितेनैव द्व्येण सुकृतं कृतम्।
न कीर्तिरिह लोके च परलोके न तत्फलम्॥
 
अन्यायक द्वारा उपार्जित कयल गेल धन सँ जँ पुण्य कार्य कयल जाइत छैक तऽ एहि लोक मे यशक प्राप्ति नहि होइत छैक आर परलोक मे ओकर कोनो फल सेहो नहि भेटैत छैक। (३/१२/८)
 
आर्तस्य रक्षणे पुण्यं यज्ञाधिकमुदाहृतम्।
भयत्रस्तस्य दीनस्य विशेषफलदं स्मृतम्॥
 
कोनो दुःखी प्राणीक रक्षा करय मे यज्ञ कयला सँ बेसी पुण्य कहल गेल छैक। भयभीत तथा दीनक रक्षा केँ तऽ आरो बेसी फलदायक कहल गेल छैक। (३/१५/५७)
 
वृथा तीर्थं वृथा दानं वृथाध्ययनमेव च।
लोभमोहावृतानां वै कृतं तदकृतं भवेत॥
 
लोभ तथा मोह सँ घेरायल लोकक तीर्थ, दान, अध्ययन – सब व्यर्थ भऽ जाइत छैक; ओकर कयल गेल ओ सारा कर्म नहि करबाक समान भऽ जाइत छैक। (३/१६/५५)
 
धर्मो जयति नाधर्मः सत्यं जयति नानृतम्॥
 
धर्म केर जय होइत छैक, अधर्मक नहि। सत्यक जय होइत छैक, असत्यक नहि। (३/१९/५९)
 
स्वकर्मफलयोगेन प्राप्य दुःखमचेतनः।
निमित्तकारणे वैरं करोत्यल्पमतिः किल॥
 
अपना द्वारा उपार्जित कर्मफल भोगय मे दुःख प्राप्त होयबाक कारण अज्ञानी तथा अल्पबुद्धिवला प्राणी निमित्त कारणक प्रति शत्रुता करय लगैत अछि। (३/२०/४४)
 
दुःखे दुःखाधिकान्पश्येत्सुखे पश्येत्सुखाधिकम्।
आत्मानं शोकहर्षाभ्यां शत्रुभ्यामिव नार्पयेत्॥
 
मनुष्य केँ चाही जे दुःखक स्थिति मे बेसी दुःखवाला केँ तथा सुख केर स्थिति मे बेसी सुखवाला केँ देखय; अपना आप केँ हर्ष-शोकरूपी शत्रु आदिक अधीन नहि करय। (३/२५/७)
 
यथेन्द्रवारुणं पक्वं मिष्टं नैवोपजायते।
भावदुष्टस्तथा तीर्थे कोटिस्तानो न शुध्यति॥
 
जेना इन्द्रवारुणक फल पाकियो गेला पर मीठ नहि होइत अछि, तहिना दूषित भावनावाला मनुष्य तीर्थ मे करोड़ों बेर स्नान केलोपर पवित्र नहि होइछ। (४/८/३६)
 
प्रथमं मनसः शुद्धिः कर्तव्या शुभमिच्छता।
शुद्धे मनसि द्रव्यस्य शुद्धिर्भवति नान्यथा॥
 
कल्याण केर कामना करयवला पुरुष केँ सब सँ पहिना अपना मन केँ शुद्ध कय लेबाक चाही। मन केर शुद्ध भेलापर द्रव्यशुद्धि स्वतः भऽ जाइत छैक। एकरा अलावे दोसर कोनो उपाय नहि छैक। (४/८/३७)
 
कार्यमित्रं परिक्षिप्य धर्ममित्रं समाश्रयेत्।
 
अपनहि कार्य साधय मे तत्पर रहनिहार मित्र केँ त्यागिकय धर्ममार्ग पर चलयवला मित्र केर मात्र अवलम्बन करबाक चाही। (५/२६/१५)
 
परोपतापनं कर्म न कर्तव्यं कदाचन।
न सुखं विन्दते प्राणी परपीडापरायणः॥
 
दोसर केँ कष्ट पहुँचेबाक कृत्य कखनहुँ नहि करबाक चाही, दोसर केँ कष्ट देबय मे संलग्न प्राणी कहियो सुख नहि पबैत अछि। (६/३/२३)
 
विश्वासघातकर्तारो नरकं यान्ति निश्चयम्।
निष्कृतिर्ब्रह्महन्तृणां सुरापानां च निष्कृतिः॥
विश्वासघातिनां नैव मित्रद्रोहकृतामपि।
 
विश्वासघात करयवला निश्चय टा नरक मे जाइत अछि। ब्राह्मणक हत्या करयवला और मद्यपान करयवला लेल तऽ प्रायश्चित छैक, मुदा विश्वासघाती और मित्रद्रोही वास्ते कोनो प्रायश्चित नहि छैक। (६/६/३०-३२)
 
मन्त्रकृद् बुद्धिदाता च प्रेरकः पापकारिणाम्।
पापभाक्स भवेन्नूनं पक्षकर्ता तथैव च॥
 
पाप करय के परामर्श देनिहार, पाप करय के लेल बुद्धि देनिहार, पाप केर प्रेरणा देनिहार तथा पाप करयवला केर पक्ष लेनिहार सेहो पापकर्ताक समान पापभाजन होइत अछि। (६/७/६)
 
परोपदेशे कुशला प्रभवन्ति नराः किल।
कर्ता चैवोपदेष्टा च दुर्लभः पुरुषो भवेत्॥
 
लोक दोसर केँ उपदेश देबय मे बहुत कुशल होइत अछि, परन्तु उपदेश देनिहार और ओकरा पालन कयनिहार पुरुष दुर्लभ होइत अछि। (६/८/१३)
 
यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमाप्नुयात्।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्॥
 
जे जेहेन कर्म करैत अछि, ओकरा ओहने फल भेटैत छैक। कयल गेल शुभ-अशुभ कर्म केर फल निश्चिते टा भोगय पड़ैछ। (६/९/६७)
 
कामक्रोधौ तथा लोभो ह्यहङ्कारो मदस्तथा।
सर्वविघ्नकरा ह्येते तपस्तीर्थव्रतेषु च॥
 
काम, क्रोध, लोभ, अहङ्कार तथा मद – ई सब तपस्या, तीर्थसेवन और व्रत आदि मे विघ्नकारी होइत अछि। (६/१२/२०-२१)
 
लोभात्त्यजन्ति धर्मं वै कुलधर्मं तथैव हि।
मातरं भ्रातरं हन्ति पितरं बान्धवं तथा॥
गुरुं मित्रं तथा भार्यां पुत्रं च भगिनीं तथा।
लोभाविष्टो न किं कुर्यादकृत्यं पापमोहितः॥
 
लोभक वशीभूत प्राणी अपन सदाचार तथा कुलधर्म तक केर परित्याग कय दैत अछि। ओ अपन माता, पिता, भाइ, बान्धव, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र तथा बहिन तक केर बध कय दैत अछि। एहि तरहें लोभ केर वशीभूत मनुष्य पाप सँ विमोहित भऽ कय कोन दुष्कर्म तक नहि कय दैछ! (६/१६/४८-४९)
 
नैकत्र सुखसंयोगो दुःखयोगस्तु नैकतः।
घटिकायन्त्रवत्कामं भ्रमणं सुखदुःखयोः॥
 
नहि तँ केवल सुखक संयोग होइत छैक आर नहिये मात्र दुःखक; घटीयन्त्र जेकाँ सुख तथा दुःखक भ्रमण होइत रहैत अछि। (६/३०/२३)
 
दुर्लभो मानुषो देहः प्राणिनां क्षणभङ्गुरः।
तस्मिन्प्राप्ते तु कर्तव्यं सर्वथैवात्मसाधनम्॥
 
क्षणभरि मे नष्य भऽ जायवला ई मानव शरीर प्राणीक लेल अत्यन्त दुर्लभ अछि। ई प्राप्त भेलापर सम्यक् प्रकार सँ आत्मकल्याण कय लेबाक चाही। (६/३०/२५)
 
ॐ तत्सत्!
हरिः हरः!!