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गुणक मिश्रणभाव आ देवीक बीज मन्त्र

स्वाध्यायालेख – गुणक मिश्रणभाव आ देवीक बीज मन्त्र महिमा

(श्रीमद्देवीभागवत केर कथा)

– प्रवीण नारायण चौधरी (संकलन एवं अनुवाद)

अठारह हजार श्लोक सँ भरल देवीक महिमागान करयवला श्रीमद्देवीभागवत कथा मे सँ एकटा महत्वपूर्ण कथाक स्वाध्याय आइ पाठक लोकनिक सोझाँ रखबाक इच्छा भेल।
 
तृतीय अध्याय केर ९मा अध्याय मे महान ग्रंथकार व्यासजी द्वारा अत्यन्त महान आ जिज्ञासू-ज्ञानी-भक्त ब्रह्मापुत्र नारदजी एवं परमज्ञानसम्पन्न पिता ब्रह्माजीक बीचक संवाद केँ निरन्तरता दैत ८म अध्याय मे वर्णित मानवीय गुण (सत्त्व, राजस ओ तामस) केर मिश्रणभाव केर वर्णन एवं देवीक बीजमन्त्रक महिमा बतेलनि अछि। आउ, ढंग सँ मनन करी। समय भेटि जाय एहि जीवनकाल मे तऽ अपना सुविधा अनुरूप आगू-पाछू सेहो एहि मननशील गति सँ चिन्तन करब। अस्तु… आगू बढी –
 
गुणक परस्पर मिश्रणभावक वर्णन, देवीक बीजमन्त्रक महिमा
 
नारदजी कहलखिन – हे तात! अहाँ गुणक लक्षण केर वर्णन कयलहुँ, मुदा अहाँ मुंह सँ निःसृत वाणीरूपी मधुर रस केर पान करैत हम एखनहुँ तृप्त नहि भेलहुँ अछि। अतएव आब अहाँ एहि गुण सभक सूक्ष्म ज्ञान केर यथावत् वर्णन करू, जाहि सँ हम अपन हृदय मे परम शान्तिक अनुभव कय सकी।
 
व्यासजी कहैत छथि – अपन पुत्र महात्मा नारदक एहि तरहें पुछलापर रजोगुण सँ आविर्भूत सृष्टि-निर्माता ब्रह्माजी कहलखिन –
 
ब्रह्माजी बजलाह – हे नारद! सुनू, आब हम गुणक विस्तृत वर्णन करब; हालाँकि हम एहि विषय मे सम्यक् ज्ञान नहि रखैत छी तैयो अपन बुद्धिक अनुसार अहाँ वर्णन कय रहल छी।
 
मात्र सत्त्वगुण कतहु परिलक्षित नहि होइत छैक। गुणक परस्पर मिश्रणभाव होबक कारण ओ सत्त्वगुण सेहो मिश्रित देखाय दैत अछि।
 
जेना सब भूषण सँ विभूषित तथा हाव-भाव सँ युक्त कोनो सुन्दरी स्त्री अपन पतिक विशेष प्रिय होइत अछि तथा माता-पिता एवं बन्धु-बान्धव केर लेल सेहो प्रीतिकर होइत अछि, मुदा वैह स्त्री अपन सौतिनक मोन मे दुःख आर मोह उत्पन्न करैत अछि। ठीक तहिना सत्त्वगुणक स्त्रीभावापन्न भेलापर रजोगुण आर तमोगुण सँ भेटला पर भिन्न वृत्ति उत्पन्न होइत अछि। तेनाही रजोगुण तथा तमोगुणक स्त्रीभावापन्न भेलापर एक दोसरक परस्पर संयोगक कारण विपरीत भावना प्रतीत होइत अछि।
 
हे नारद! जँ ई तीनू गुण परस्पर मिश्रित नहि होइतय तऽ ओकर स्वभाव मे एक्के-सन प्रवृत्ति रहितय, मुदा तीनू गुण मे मिश्रण होयबाक कारणे विभिन्नता देखाय दैत अछि।
 
जेना कोनो रूपवती स्त्री यौवन, लज्जा, माधुर्य तथा विनय सँ युक्त रहय, संगहि ओ धर्मशास्त्रक अनुकूल रहय तथा कामशास्त्र केँ जानयवाली रहय, तऽ ओ अपन पतिक लेल प्रीतिकर होइत अछि; मुदा सौतिन लेल कष्ट देबयवाली होइत अछि।
 
सौतिनक लेल मोह तथा दुःख देबयवाली भेलोपर किछु लोकक द्वारा ओ सत्त्वगुणी कहल जाइत अछि आर सत्त्वगुणक अनेक शुभ कार्य कयलोपर ओ सौतिनक विपरीत भाववाली प्रतीत होइत अछि।
 
जेना राजाक सेना चोर सँ पीड़ित सज्जनक लेल सुख दयवला होइत अछि, मुदा वैह सेना चोरक लेल दुःखदायिनी, मूढ तथा गुणहीन होइत अछि।
 
एहि सँ प्रकट होइत अछि जे स्वाभाविक गुण सेहो विपरीत लक्षण जेहेन देखाय दैत अछि। जेना कोनो दिन जखन चारू दिश कारी-कारी मेघ घुरियाय लागल हो, बिजली चमकि रहल हो, मेघ गरजि रहल हो, अन्हार सँ आच्छादित हो आर घनघोर वर्षाक कारण सूखल भूमि सिंचल जा रहल हो, तखनहुँ लोक ओकरा तमोरूप गाढान्धकार सँ व्याप्त दुर्दिन नामहि टा सँ सम्बोधित करैत अछि। एक दिश वैह दुर्दिन किसान लोकनिक खेत जोतब आ बिया बाउग करबाक सुविधा देबाक कारण सुखदायी प्रतीत होइत अछि, मुदा दोसर दिश वैह दुर्दिन ओहि अभागल गृहस्थक लेल दुःखदायी भऽ जाइत छै जेकर घर एखन नहि छारल जा सकल छल आ जे तृण, काष्ठ आदिक संग्रह मे व्यस्त अछि। संगहि वैह दुर्दिन ओहेन स्त्रिगणक हृदय मे शोक उत्पन्न करैत अछि जेकर पति परदेश गेल होइक। ओहि तरहें ई सत्त्वादि गुण अपन स्वाभाविक परिस्थिति मे रहितो आन गुण सँ मिललापर विपरीत दृष्टिगोचर होइत अछि।
 
हे पुत्र! आब हम ओहि गुणक लक्षण फेरो बता रहल छी, सुनू। सत्त्वगुण सूक्ष्म, प्रकाशक, स्वच्छ, निर्मल आ व्यापक होइत छैक। जखन मानवक सम्पूर्ण अंग आर नेत्र आदि इन्द्रिय हल्लुक हो, मोन निर्मल हो तथा ओ ताहि राजस व तामस विषय केँ नहि ग्रहण करैत हो, तखन ई बुझि लेबाक चाही जे शरीर मे आब सत्त्वगुण प्रधानरूप सँ विद्यमान अछि। जखन जेकरा केकरो देह मे रजोगुण प्रधानरूप सँ विद्यमान रहैत छैक तखन ओ बेर-बेर जम्हाई (हाफी), स्तम्भन, तन्द्रा तथा चंचलता उत्पन्न करैत छैक। एहि तरहें जखन अत्यन्त कलह करबाक मोनक चाहत हो, अन्यत्र जेबाक इच्छा हो, मोन मे काम-भावनाक गहींर परदा पड़ि जाय, तखन ई बुझि जाउ जे शरीर मे तमोगुणक प्रधानता अछि। ओहि समय अंग भारी भऽ जाइत अछि, इन्द्रिय तामसिक भाव केर वशीभूत रहैत अछि, चित्त विमूढ रहैत अछि आर ओ निद्राक इच्छा नहि करैछ। हे नारद! एहि तरहें सब गुणक लक्षण बुझक चाही।
 
नारदजी बजलाह – हे पितामह! अपने तीनू गुण केर भिन्न-भिन्न लक्षण बतेलहुँ, तखन फेर ई एक स्थान मे रहिकय निरन्तर काज कोना करैत छैक? विपरीत होइतो शत्रुरूप ई गुण एकत्र भऽ कय परस्पर मिलिकय कोना काज करैत छैक; से हमरा बताउ।
 
ब्रह्माजी कहलखिन – हे पुत्र! सुनू, हम बतबैत छी। ओहि तीनू गुणक स्वभाव दीपक समान छैक। जेना दीपक मे तेल, बत्ती आर अग्निशिखा तीनू परस्पर विरोधी धर्मवला छैक, मुदा तीनूक सहयोग सँ मात्र दीपक वस्तु आदिक दर्शन करबैत अछि। यद्यपि आगिक संग मिलल तेल आगिक विरोधी छैक आर तेल बत्ती तथा अग्निक विरोधी छैक; तथापि ओ एकत्र भऽ कय वस्तुक दर्शन करबैत अछि।
 
नारदजी कहलखिन – हे सत्यवतीसुत व्यासजी! ई सत्त्वादि तीनू गुण सेहो प्रकृति सँ उत्पन्न कहल गेल अछि आर ई जगत् केर कारण थिक, से बात हम पहिने सेहो सुनने छी।
 
व्यासजी बजलाह – हे राजन्! एहि तरहें नारदजी विस्तारपूर्वक गुणक लक्षण आर ओकर विभाग सहित कार्य सेहो बतेलनि। सर्वदा हुनकहि परमशक्तिक आराधना करबाक चाही, जाहि सँ ई समस्त संसार व्याप्त अछि। ओ भगवती कार्यभेद सँ सगुणा आर निर्गुणा दुनू छथि। ओ परमपुरुष तँ अकर्ता, पूर्ण, निःस्पृह तथा परम अविनाशी छथि, ई महामाया टा सत् आर असद्रूप जगत् केर रचना करैत छथि। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, दुनू अश्विनीकुमार, आठो वसु, विश्वकर्मा, कुबेर वरुण, अग्नि, वायु, पूषा, कुमार कार्तिकेय आर गणपति – ई सब देवता यैह महामायाक शक्ति सँ युक्त भऽ कय अपन-अपन कार्य करय मे समर्थ होइत छथि। हे मुनीश्वर लोकनि! जँ एना नहि हो तँ ओ हिलबा-डोलबा तक लेल समर्थ नहि भऽ सकता।
 
हे राजन्! ओ परमेश्वरी टा एहि जगत् केर परम कारण थिकीह, अतः हे नरपते! आब अहाँ हुनकहि आराधना करू, हुनकहि यज्ञ करू आर परम भक्तिक संग विधिवत् हुनकहि पूजन करू। वैह महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती थिकीह। ओ सब जीव केर अधीश्वरी, समस्त कारणक एकमात्र कारण, सब मनोरथ केँ पूर्ण करयवाली, शान्तस्वरूपिणी, सुखपूर्वक सेवनीय तथा दया सँ परिपूर्ण छथि।
 
ई भगवती नामोच्चारण मात्र सँ सब मनोवांछित फल दयवाली थिकीह। पूर्वकाल मे ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता लोकनि तथा मोक्ष केर कामना करयवाली अनेक जितेन्द्रिय तपस्वी लोकनि हुनकर आराधना कएने छलाह। कोनो प्रसंगवश अस्पष्टरूप सँ मात्र उच्चारित कयल गेल हुनक नाम सर्वथा दुर्लभ मनोरथ केँ सेहो पूर्ण कय दैत अछि।
 
हे नृपश्रेष्ठ! एहि सम्बन्ध मे एकटा दृष्टान्त छैक – सत्यव्रत नाम केर एक मुनि वन मे व्याघ्रादि हिंसक पशु सभ केँ देखिकय भय सँ पीड़ित भऽ ‘ऐ-ऐ’ शब्दक उच्चारण कएने छलाह। ओहि बिन्दुरहित बीजमन्त्र (ऐं) केर उच्चारण करबाक फलस्वरूप हुनका भगवती द्वारा मनोवांछित फल प्रदान कयल गेल छल। ई दृष्टान्त हमरा लोकनि पुण्यात्मा मुनि लोकनि लेल प्रत्यक्षे अछि।
 
हे राजन! ब्राह्मणक सभा मे विद्वान् लोकनि द्वारा उदाहरणक रूप मे ओहि सत्यव्रतक कहल जायवला सम्पूर्ण आख्यान केँ हम विस्तारपूर्वक सुनने रही। सत्यव्रत नामवला ओ निरक्षर तथा महामूर्ख ब्राह्मण ओ
‘ऐ-ऐ’ शब्द एक कोल केर मुंह सँ सुनिकय स्वयं सेहो ओकर उच्चारण कयलक। बिन्दुरहित ‘ऐं’ बीज केर उच्चारण कयला सँ ओहो श्रेष्ठ विद्वान् भऽ गेल। ऐकारक उच्चारणमात्र सँ भगवती प्रसन्न भऽ गेलीह आर दयार्द्र भऽ कय ओ परमेश्वरी ओकरा कविराज बना देलीह।
 
एहि तरहें अठारह हजार श्लोकवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताक अन्तर्गत तृतीय स्कन्धक ‘गुणपरिज्ञानवर्णन’ नामक नौम अध्याय पूर्ण भेल।
 
ॐ तत्सत्! ॐ हरिर्हरिः!!
 
हरिः हरः!!

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