भगवान् शिव आ हुनक गोभक्तिः अत्यन्त पठनीय, मननीय आ अनुकरणीय पाठ

स्वाध्यायः भगवान् शंकर केर गोभक्ति

(स्रोतः कल्याण, अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

देवाधिदेव महादेव भगवान् शंकर ‘पशुपति’ कहल जाइत छथि – ‘पशूनां पतिं पापनाशं परेशं’। हुनका गाय बहुत प्रिय छन्हि जे ओ गाइयेक संग रहैत छथि। हुनक वाहन वृषभराज नन्दी थिक, ओ धर्मस्वरूप वृषभहि केँ अपन ध्वजा मे सेहो स्थान देलनि अछि, ताहि लेल ओ ‘वृषभध्वज’ कहाइत छथि। भगवान् शंकर केँ तपस्या करब अतिप्रिय छन्हि आर ओ तपस्या सेहो गाइयेक संग रहिकय मात्र करैत छथि; कियैक तँ गौ समस्त तपस्वी लोकनि सँ बढिकय छथि –
 
गावोऽधिकास्तपस्विभ्यो यस्मात् सर्वेभ्य एव च॥
तस्मान्महेश्वरो देवस्तपस्ताभिः सहास्थितः।
 
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ६६, श्लोक ३७-३८)
 
भगवान् शंकर अपन भक्त लोकनिकेँ सेहो गाय प्रदान करैत छथि। बाणासुर सँ प्रसन्न भऽ कय ओ ओकरा बारह टा गाय देने छलाह, जे समस्त सम्पत्ति आदिक शिरोमणि छल। उषा-अनिरुद्धक विवाह मे बाणासुर बहुते रास उपहार-समाग्री भगवान् श्रीकृष्ण केँ अर्पित कयने छल, मुदा भगवान् शंकर सँ प्राप्त ओहि गाय केँ ओ ताहि उपहार मे नहि देलक। भगवान् श्रीकृष्ण एहि तथ्य केँ जानैत छलाह, तैँ ओ ओहि गायक माँग कयलनि, तखन बाणासुर भगवान् शंकरक कहलापर ओ गाय सब समर्पित कय देलनि।
 
भगवान् शंकरक गोभक्ति अद्भुत अछि, ओ अपने नीलवृषक रूप मे गोमाता सुरभिक गर्भ सँ अवतार लेलनि। स्कन्दपुराणक नागर-खण्ड मे एकर कथा एहि प्रकार अबैत अछि –
 
एक बेर भगवान् शंकर सँ ब्रह्मतेजसम्पन्न ऋषि लोकनिक किछु अपराध भऽ गेल, जाहि सँ हुनकर शरीर ब्रह्मतेज सँ जरय लागल। एहि शापानल सँ त्रस्त भऽ कय ओ गोलोक गेलाह आर ओतय गोमाता सुरभिक स्तवन करयल लगलाह। शिवजी कहलनि –
 
सृष्टिस्थितिविनाशानां कर्त्र्यै मात्रे नमो नमः॥
या त्वं रसमयैर्भावैराप्यायसि भूतलम्।
देवानां च तथा संघान् पितृणामापि वै गणान्॥
सर्वैर्ज्ञात्वा रसाभिज्ञैर्मधुरास्वाददायिनी।
त्वया विश्वमिदं सर्वं बलस्नेहसमन्वितम्॥
त्वं माता सर्वरुद्राणां वसूनां दुहिता तथा।
आदित्यानां स्वसा चैव तुष्टा वाञ्छितसिद्धिदा॥
त्वं धृतिस्त्वं तथा तुष्टिस्त्वं स्वाहा त्वं स्वधा तथा।
ऋद्धिः सिद्धिस्तथा लक्ष्मीर्धृतिः कीर्तिस्तथा मतिः॥
कान्तिर्लज्जा महामाया श्रद्धा सर्वार्थसाधिनी।
 
अर्थात् सृष्टि, स्थिति और विनाश करयवाली हे माता! अहाँ केँ बारम्बार नमस्कार अछि। अहाँ रसमय भाव सँ समस्त पृथ्वीतल, देवता आर पितर सभ केँ तृप्त करैत छी। रसभिज्ञ सभ सँ अहाँ परिचित छी आर मधुर स्वाद दयवाली छी। सम्पूर्ण चराचर विश्व केँ अहीं बल आर स्नेहक दान देलहुँ अछि। देवि! अहाँ रुद्र लोकनिक माता, वसु लोकनिक पुत्री, आदित्य लोकनिक बहिन आर सन्तोषमयी वाञ्छित दयवाली थिकहुँ। अहीं धृति, तुष्टि, स्वाहा, स्वधा, ऋद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी, धारणा, कीर्ति, मति, कान्ति, लज्जा, महामाया, श्रद्धा आर सर्वार्थसाधिनी छी।
 
हे अनघे! हम प्रणत भऽ कय अहाँक पूजा करैत छी। अहाँ विश्वदुःखहारिणी छी, हमरा प्रति प्रसन्न होउ। हे अमृतसम्भवे! ब्राह्मणक शापानल सँ हमर शरीर दग्ध भेल जा रहल अछि, अहाँ ओकरा शीतल करू।
 
एतेक कहिकय भगवान् शंकर माता सुरभिक परिक्रमा केलनि आर हुनकर देह मे प्रवेश कय गेलाह। गोमाता पवित्र ब्राह्मणहि केर दोसर रूप थिकीह, तैँ हुनकर शाप गोमातापर प्रभावी नहि भेलनि आर भगवान् शंकर केर शरीरक जलन शान्त भऽ गेलनि। माता सुरभि द्वारा हुनका अपन गर्भ मे धारण कय लेल गेलनि। एम्हर शिवजीक नहि भेला सँ समूचा जगत् मे हाहाकार मचि गेल। तखन देवता लोकनि स्तवन कय केँ ब्राह्मण लोकनि केँ प्रसन्न कयलन्हि आर हुनका सँ शिवजीक पता लगाकय ओ सब गोलोक पहुँचि गेलाह। ओतय ओ सब सूर्यक समान तेजस्वी ‘नील’ नामक सुरभीसुत केँ देखलनि। ओ सब बुझि गेलाह जे सुरभीसुतक रूप मे भगवान् शिवे अवतरित भेलाह अछि। तखन देवता लोकनि आर ऋषि लोकनि विविध प्रकार सँ हुनकर स्तुति कयलन्हि। ऋषि लोकनिक स्तुति सुनिकय नीलवृषरूपी भगवान् शिव प्रसन्न भेलाह आर हुनका लोकनि केँ प्रणाम कयलन्हि। फेर ब्राह्मण लोकनि नीलवृषरूप मे महेश्वरक केँ वरदान देलनि जे मृत प्राणीक एकादशाक दिन नीलवृषभ केँ शूल आर चक्र सँ अंकित कय गायक समूह मे छोड़ल जायत। एहि सँ जगत् केर कल्याण होयत आर देवता ओकर रक्षा करता।
 
भगवान् शंकरक गायक प्रति कतेक प्रीति आर कतेक भक्ति अछि ‍- एकर एकटा कथा ब्रह्मपुराण मे अबैत अछि, ओ एहि प्रकारक अछि –
 
प्राचीनकाल मे जाबालि नामक एक कृषक ब्राह्मण छलाह। ओ मध्याह्नो भऽ गेलापर अपन बैल (बरद) सभ केँ नहि छोड़थि, अपितु चाबुक सँ ओकरा सभक पृष्ठ (पीठ) तथा पार्श्वभाग (पैछला भागक देह) पर प्रहार करैत रहैत छलाह। एहि तरहें हुनका द्वारा पीड़ित आर नोर भरल नेत्रवला बैल सभ केँ देखिकय जगन्माता कामधेनु गौ भगवान् शंकर केर वाहन वृषभराज नन्दी सँ अपन पुत्ररूप बरद सभक एहि करुण कथा केँ कहलनि। नन्दी सेहो ओहि मूक पशु सभक व्यथा सँ व्यथित भऽ कय भगवान् शंकर सँ ओकरा सभक दुःख निवेदित कयलनि। ई सुनिकय भगवान् शंकर नन्दी सँ कहला जे तोहर इच्छा मुताबिक कार्य सिद्धि हेतौक।
 
नन्दी भगवान् शंकरक आज्ञा सँ सम्पूर्ण गो-समूहे केँ नुका देलनि। एहि तरहें गो-समूहक अदृश्य भऽ गेलापर स्वर्ग आर मृत्युलोक मे खलबली मचि गेल। देवता लोकनि शीघ्रता सँ ब्रह्माजी लग जाकय कहलनि जे गायक बिना हम सब कोना बाँचि सकैत छी? तखन ओहि देवता लोकनि सँ ब्रह्माजी कहलखिन, “हे देवगण! अहाँ सब भगवान् शंकर लग जाउ आर हुनका सँ याचना करू।”
 
ब्रह्माजीक कहलाक मुताबिक सब देवता शिवजी लग गेलाह आर हुनकर स्तुति कय अपन अभिप्राय व्यक्त कयलन्हि, तखन भगवान् शंकर हुनका सभ सँ कहला – “हे देवगण! एहि विषय केँ हमर वृषभ नन्दी टा जनैत अछि, तैँ अहाँ सब ओकरे लग जाउ आर ओकरा सँ निवेदन करू।” देवता लोकनि नन्दी लग जाकय कहलनि, “हे नन्दिन्! हमरा सभ केँ उपकारी गाय सभ दय देल जाउ।” ताहि पर नन्दी कहलखिन, “देवता लोकनि! अहाँ ‘गोसव’ नामक यज्ञ करू, तखन जतेक दिव्य आर मर्त्यलोकक गाय अछि, ओ प्राप्त भऽ सकैत अछि।” तदनन्तर देव लोकनि नन्दीक कहलानुसार गोमतीक पवित्र कंछैर मे गोसव यज्ञक अनुष्ठान कयलन्हि, जाहि सँ गायक संख्या मे पुनः वृद्धि होमय लागल।
 
एहि तरहें भगवान् शंकरक गोमाताक प्रति भक्ति आर गोवंशक प्रति प्रेम सिद्ध होएत अछि। ओ माता पार्वती सँ गोभक्तिक उपदेश दैत कहैत छथि –
 
हे देवि! गायक मल-मूत्र सँ कखनहुँ उद्विग्न नहि हेबाक चाही आर ओकर माँस कहियो नहि खेबाक चाही। सदैव गायक भक्त हेबाक चाही। गाय परम पवित्र अछि, गाइये मे सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित अछि। तैँ कोनो तरहें गायक अपमान नहि करबाक चाही; कियैक तँ ओ सम्पूर्ण जगत् केर माता थिक –
 
गवां मूत्रपुरीषाणि नोद्विजेत कदाचन।
न चासां मांसमश्नीयाद् गोषु भक्तः सदा भवेत्॥
गावः पवित्रं परमं गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः।
कथंचिन्नावमन्तव्या गावो लोकस्य मातरः॥
 
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १४५)
 
तहिना ऋषि, मुनि, देवता आ पितर लोकनि केँ धर्म-सम्बन्धी रहस्य बतबैत महादेवजी कहैत छथि जे ब्रह्माजीक कहलापर हम पहिने सत्ययुग मे गाय केँ अपना पास रहबाक आज्ञा देने छलहुँ, ताहि सँ हमरा गायक झुण्ड मे रहयवला वृषभ हमरहु सँ ऊपर हमर रथक ध्वजा मे विद्यमान अछि। हम सदैव गायक संग रहय मे आनन्दक अनुभव करैत छी। तैँ ओहि गाय केर सदिखन पूजा करबाक चाही –
 
मया ह्येता ह्यनुज्ञाताः पूर्वमासन् कृते युगे।
ततोऽहमनुनीतो वै ब्रह्मणा पद्मयोनिना॥
तस्माद् व्रहजस्थानगतस्तिष्ठत्युपरि मे वृषः।
रमेऽहं सह गोभिश्च तस्मात् पूज्याः सदैव ताः॥
 
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १३३, श्लोक ६-७)
 
नमः पार्वती पतये हर हर महादेव!!
 
हरिः हरः!!