‘तस्मात-शास्त्रं प्रमाणन्ते’ – पंडित रुद्रधर झा केर मूल्यवान् विचार

पंडित रुद्रधर झा केर गूढ तत्त्व समीक्षाक लेख मैथिली जिन्दाबाद पर

दर्शन-विचार

– स्व. पंडित रुद्रधर झा (अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

नव्य न्याय केर परम ज्ञाता पंडित रुद्रधर झा केर लिखल एकटा अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरीः

‘तस्मात्-शास्त्रं प्रमाणन्ते’

प्रश्नः शास्त्रक आवश्यकता कियैक?

उत्तरः जेना कोनो सम्राट् या राजा या जनताक द्वारा निर्वाचित या ओकर प्रतिनिधिक द्वारा चुनल गेल राष्ट्रपति केर अपन साम्राज्य या राज्य या जनतन्त्र या गणतन्त्र देश केँ सुव्यवस्थित रूप सँ चलेबाक लेल स्वभाव या दुःसंग सँ उन्मर्याद भेल मनुष्य केँ नियन्त्रित अथवा व्यवस्थित बनेबाक लेल संविधान (कानून) केर आवश्यकता होएत अछि, ‘दृष्टाच्चादृष्ट सिद्धिः’ – देखल गेल घटना सँ अदृश्य घटनाक सिद्धि होएत अछि, एहि न्याय सँ ओहि तरहें विश्वपति परमेश्वरक सेहो स्वशरीरभूत विश्व केँ सुव्यवस्थित रूप सँ संचालन हेतु कोनो कारण सँ उन्मर्याद भेल मनुष्य केँ नियन्त्रित यानि व्यवस्थित बनेबाक लेल संविधान (शास्त्र) केर आवश्यकता होएत अछि। कियैक तँ उन्मर्याद मनुष्य किछुओ कय सकैत अछि, जाहि सँ असमय मे राष्ट्र या विश्व केेर विप्लव भऽ सकैत अछि।

प्रश्नः शास्त्र केकरा कहल जाएत छैक?

उत्तरः सामान्यतः ईश्वरीय संविधान (नियम) केँ शास्त्र कहल जाइत छैक। विशेष आर्षवाणी –

‘प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेनवा।
पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमभिधीयते॥’

जाहि नित्य स्वतः आविर्भूत स्वतः प्रमाण आगम (तन्त्र) तथा निगम (वेद) स्वरूप एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा सँ युक्त मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, वशिष्ठ आ पराशर आदि महर्षि लोकनि सँ प्रणीत आगम-निगमानुसार स्मृति स्वरूप तत्त्वावेदक शब्द प्रमाण सँ – अज्ञान या संशय या मिथ्याज्ञान सँ ग्रस्त होयबाक कारण किंकर्तब्यविमूढ मनुष्य केँ विधेय कर्म मे प्रवृत्ति केर आर निषेध्यकर्म आदि सँ निवृत्ति केर उपदेश देल जाइत अछि ओकरा, तथा प्रवृत्ति आ निवृत्ति केर उपयोगी अनुष्ठेय धर्म एवं त्याज्य अधर्म, ओकर साधना तथा फल केर जे ज्ञान होएत अछि तेकर, एवं आर्षवचन – ‘यथा भूतवादि हि शास्त्रम्’ यथा ‘सिद्ध वस्तु केँ बताबय वला शास्त्र थिक’ केर मुताबिक अदृश्य परलोक, सगुण निराकार ईश्वर, जीव तथा निर्विशेष निर्गुण निराकार ब्रह्म आदि वस्तु जानल जाइत अछि, तेकरा शास्त्र कहल जाइत अछि।

प्रश्नः आगम आ निगम केकरा कहल जाइत अछि तथा ओकर आविर्भाव कोना होएत अछि?

उत्तरः यद्यपि ‘एक मेवाद्वितीयं ब्रह्म’, ‘सत्यं ज्ञानं मनन्तं ब्रह्म’ तथा ‘आनन्दो ब्रह्म’ इत्यादि श्रुति सँ सिद्ध अछि जे एकमात्र ज्ञान आर आनन्द स्वरूप अनन्त ब्रह्म टा सत्य अछि, तथापि श्रुतिक अन्तर्गत पुरुष सुक्त केर ‘पादोऽस्य विश्वा भूतानि, त्रिपादस्यामृतं दिवि’ एहि वचनक अनुसार – अनन्त ब्रह्म केर कल्पित चारि भाग मे तीन भाग अनवच्छिन्न ब्रह्म थिक, देदीप्यमान ऊपरका भाग मे, केवल चतुर्थ भाग कल्पित एवं विशुद्ध सत्व प्रधान माया (विद्या) सँ अवच्छिन्न भेलापर परमेश्वरी या परमेश्वर कहेला, जखन कल्पित अनन्त मलिन सत्त्व प्रधान माया (अविद्या) या अनन्त अन्तःकरण सँ अवच्छिन्न (परमात्माक अंश) चेतन स्वरूप अनन्त जीव सब केँ फलोन्मुख कर्म सँ परमेश्वर केँ विश्व बनेबाक इच्छा भेलन्हि, तखन स्वयं महेश्वर (शिव) बनि गेलाह, जिनकर श्वाँस सँ प्रयत्नानपेक्ष प्रातिभज्ञान बोधक शब्द स्वतः आविर्भूत भेल, जेकरा शिवक मुंह सँ शिवा केर सुनलापर आगम कहल जाएत अछि। अतः आर्षवाणी –

‘आगतं शिववक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजाश्रुतौ।
ए तस्मादागमः प्रोक्तः विद्वद्भिस्तत्त्वदर्शिभिः॥

शिवक मुंह सँ निकलल आ शिवाक कान मे पहुँचल, तैँ एकरा आगम कहलन्हि तत्त्वदर्शी विद्वान् लोकनि। आगाम – आ समन्तात सर्वतो भावेन गमन (ज्ञान) बोधक शब्द केर बाद निगम – निःशेषेण गमन (ज्ञान) बोधक शब्द होएत अछि। अतः तदर्श परमेश्वर विष्णु बनि गेलाह, जिनकर श्वाँस सँ प्रयत्नानपेक्ष प्रातिभ ज्ञान बोधक शब्द स्वतः आविर्भूत भेल, जिनका वेद (निगम) कहैत अछि आर से विष्णु द्वारा अपन नाभिकमल सँ उत्पादित ब्रह्मा केँ देल गेल। अतः ‘यो ब्राह्मणं विदधाति पूर्वः, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै’ (श्वेत उपनिषद् ६/१८) जे पहिने ब्रह्मा केँ बनबैत अछि आर हुनका वेद आदि सौंपैत अछि। उक्त आविर्भावक कथन वेद मे सेहो ‘अस्य महतो भूतस्य निश्वसित मेतद्यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस’ इत्यादि (बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/१०) एहि महान प्राणी (विष्णु) केर निश्वास सँ निकल ई ऋग्वेदादि थिक। जेना ‘मृद् घटः’ माटिक घैला (घड़ा) अछि, इत्यादि मे उपादानक प्रयोग उपादेय मे अछि, तेना ओ करैत अछि। गोस्वामीजीक रामचरितमानसक बालकाण्ड मे –

‘जाकी सहज श्वास श्रुति चारी, सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।’

उक्त बातक समर्थन करैत अछि दार्शनिक सम्राट् श्रीवाचस्पति मिश्र ‘ब्रह्मसूत्र शाङ्कर भाष्य’ केर भामतीक आरम्भहि मे लिखल –

निश्वासित मस्य वेदा वीक्षितमेतस्य पञ्च भूतानि।
स्मितमेतस्य चराचरस्य च सुप्तं महाप्रलयः॥

यैह (परमात्मा) केर निश्वास सँ निकलल वेद थिक, विशेष ईक्षण सँ उद्भूत पाँ भूत (आकाशादि) थिक, मुस्कान सँ भेल स्थावर जङ्गम समस्त प्राणी थिक आर हिनकहि सुषुप्ति सँ होयवला थिक ‘महाप्रलय’।

एहि तरहक कथन सँ ईहो सूचित होएत छैक जे आगम (तन्त्र) आ निगम (वेद) स्वरूप संविधान (शास्त्र) केर विधान सृष्टिक विधान सँ स्वतः पहिनहि भेल, जाहि सँ संसार केर परिस्थितिक प्रभाव ओहि पर नहि पड़ि सकल। मानव निर्मित संविधान (कानून) तऽ परिस्थितिवश कतेको बेर बदलल गेल आ बदलल जायत। मुदा परमेश्वर केर श्वाँस सँ स्वतः उद्भूत आगम आ निगम स्वरूप संविधान मे संशोधन या परिवर्तन या परिवर्धन परमेश्वर सेहो नहि कय सकैत छथि, तैँ ओ आ ओकरा सँ प्रतिपादित धर्म सनातन थिक। अतएव आप्तवाणी – “शब्द प्रमाणका वयं धर्मे तत्साधने तत्फले च शास्त्रमेव प्रमाणं मन्यामहे’ शब्द केँ प्रमाण मानयवला धर्म मे ओकर साधन मे आ ओकर फल मे आगम, निगम तथा तदनुसार स्मृति आदि शास्त्र मात्र केँ प्रमाण मानैत अछि।
 
एहि आगम आर निगम केँ स्वतः प्रमाणता केर उपपादन करैत लोकोत्तर वैदुष्य श्रीवाचस्पति मिश्र – तृतीय ब्रह्मसूत्र ‘शास्त्रयोनित्वात्’ केँ शाङ्करभाष्यक भामती मे लिखैत छथि जे –
 
‘नहिं बहूनामष्य ज्ञानां विज्ञानां वा आशयदोषवतां प्रतिभाने युक्त आश्वासः, तत्त्वज्ञानवतश्चा पास्तसमस्त दोषस्यै कस्यपि प्रतिभाने युक्त एवा श्वासः।’
 
अर्थात् बहुते अज्ञानी सभकेँ अथवा दुषित अन्तःकरणवला विज्ञानी सभक प्रातिभज्ञान बोधक शब्द मे विश्वास युक्त नहि अछि, मुदा सकलदोषहीन एकहु टा तत्त्वज्ञानी केर प्रातिभज्ञान बोधक शब्द मे विश्वास युक्त होइते टा अछि। एहि सँ आगम-निगम केर स्वतःप्रमाणता सिद्ध अछि।
 
भविष्य-पुराण केर आधार सँ लिखल जाइत अछि जे तन्त्र केँ प्रमाण मुदा वेद केँ अप्रमाण मानयवला वेदनिन्दक बुद्ध देव केर शिष्य-उपशिष्य, तन्त्रानुसार प्रबल अनुष्ठान सँ सिद्धि प्राप्त बौद्ध आचार्य लोकनि द्वारा चमत्कारपूर्ण कार्य देखेला सँ मिथिला आदि स्थानक राजा सब केँ वशीभूत भेला सँ बौद्ध धर्मक प्रचार सँ वैदिक (सनातन) धर्मक ह्रास होमय लागल, तखन सनातन धर्म संस्थापक भगवान् केर अवतार उदयनाचार्य ओहि बौद्ध आचार्य सब सँ कहने छलाह – अहाँ सब ‘वेदा अप्रमाणम्’ कहिकय ताड़ केर गाछ सँ कूदू आर हम ‘वेदाः प्रमाणम्’ कहिकय ओतय सँ कूदैत छी, तखन जे बचि जाय ओकरे बात सत्य मानल जायत। एहि प्रतियोगिता मे किछु केँ मरैत देखि बाकी सब भागि गेल।
 
एहि तरहें सिद्ध प्रामाण्यक तन्त्र आ वेद केर अनुसारी भेलाक कारणे स्मृति, पुराण एवं इतिहास आदि सेहो प्रमाण मानल जाइत अछि। ई सब अनुशासन स्वरूप भेला सँ ‘शास्यते अनेन’ एहि व्युत्पत्ति सँ निष्पन्न ‘शास्त्र’ शब्द सँ व्यवहृत कयल जाइत अछि। अतएव अध्यात्मरामायण मे भगवान् राम केर उक्ति आयल अछि –
 
श्रुति स्मृति ममैवाज्ञे यस्ते उल्लंघ्य वर्तते।
आज्ञाभङ्गान्मम द्वेषी न मद्भक्तो न मे प्रियः॥
 
वेद आ स्मृति हमर आज्ञा थिक, जे एकर उल्लंघन करैत व्यवहार करैत अछि, ओ हमर आज्ञा केँ काटबाक कारण हमर द्रोही थिक, ओ नहिये हमर भक्त थिक आर नहिये हमर प्रिय। एहि बात केँ रामचरितमानस केर उत्तरकाण्ड मे गोस्वामीजी भगवान् राम सँ कहबाबैत छथि –
 
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुशासन मानै जोई॥
 
जगद्गुरु भगवान् कृष्ण भगवद्गीता मे कहैत छथि –
 
‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्त्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥’
 
जे शास्त्र केर विधान केँ छोड़िकय मनमाना चलैत अछि, ओ नहिये सिद्धि केँ, नहिये सुख केँ आर नहिये मोक्ष केँ पबैत अछि। पुनः ओत्तहि हुनकर कथन अछि –
 
‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणन्ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्र विधानोक्तं कर्म कर्त्तुमिहार्हसि॥’
 
अतः अहाँक कर्तव्य आ अकर्तव्यक व्यवस्थाक लेल शास्त्र टा प्रमाण अछि, तैँ एहि शास्त्र केर विधान मे कथित कर्म केँ जानिकय करबाक लेल योग्य छी। मानव समाजक आदिपुरुष मनु द्वारा मनुस्मृति मे कहल गेल अछि –
 
‘युक्तियुक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि।
अन्य तृणमिवत्याज्यमप्युक्तं पद्भजन्मना॥’
 
युक्तियुक्त बात बच्चा केँ सेहो मानबाक चाही आ युक्ति विरुद्ध बात ब्रह्मा सँ सेहो कहल गेल हो तँ ओ तृण जेकाँ त्याज्य अछि।
 
एहेन स्थिति मे उक्त सब वचनक सामञ्जस्य हेतु निष्कर्ष निकलैत अछि जे “अदृश्य अलौकिक विषय केर सम्बन्ध मे केवल शास्त्र केर आधार सँ चलबाक चाही। दृश्य लौकिक विषय सभक सम्बन्ध मे शास्त्र तथा युक्ति एहि दुनू सँ उपपन्न जे बात हो, ताहि मुताबिक मात्र चलबाक चाही।” एहि बातक दृष्टान्त श्रुति मे सेहो देखू – श्रुति माता अपन मानवोचित बुद्धियुक्त प्रकृष्ट वाणी केँ लक्ष्य कयकेँ कहैत अछि जे –
 
‘आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः (कथं) श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्च।’
 
एकर उपपादन देखू –
 
‘श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः।
मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शन हेतवः।’
 
अर्थात् आत्मा केँ देखबाक (साक्षात्कार करबाक) चाही (जेना) उपनिषद् केर वाक्य सभसँ सुनबाक चाही। सुनि चुकल आत्मा केँ युक्ति सभसँ विचार करबाक चाही। विचार कय निश्चित आत्मस्वरूप केँ सदिखन ध्यान रखबाक चाही। ई तिनू श्रवण, मनन आ भावना – आत्मा केर साक्षात्कारक कारण थिक। उक्त निष्कर्ष मानवोचित बुद्धिमान टा लेल अछि। कियैक तँ पुण्य या पाप केकर कर्म सँ उत्पन्न होएत छैक? एहि प्रश्नक उत्तर मे यद्यपि मीमांसा शास्त्र केर मूल धर्म सूत्रादिक निर्माता महर्षि जैमिनी केर सूत्र अछि जे ‘विधिप्रतिषेधयोर्नराधिकारत्वात्’ यानि मनुष्य मात्र केँ अधिकृत कयकेँ कर्तव्य कर्म केर विधान आ अकर्तव्य कर्म केर निषेध कयल गेल अछि। भाव ई अछि जे – मानव मात्र केर विहित कर्म कयला सँ धर्म केर आर निषिद्ध कर्म कयला सँ अधर्म केर उत्पत्ति होएत अछि।
 
तथापि जाहि पक्षी द्वारा अन्नपूर्णा मन्दिरक परिक्रम भेल, ओ पक्षीक परिक्रमाजनित पुण्य सँ मुक्ति भेट गेल, एहि विषयक उल्लेख देवी भागवत मे अछि, एवं वाल्मीकिरामायण मे आयल अछि जे – देवराज इन्द्र केँ वृत्र केर वध कयलापर ब्रह्महत्याजनित पाप लगलन्हि। श्रीमद्भागवत केर पञ्चम स्कन्ध मे लिखल अछि जे ‘इदमेव भारतवर्ष कर्मक्षेत्रम्’। यैह भारतवर्ष पुण्य या पाप केर जनक कर्मक स्थान छी। अध्यात्मरामायण केर लङ्काकाण्ड मे महादेव केर वचन –
 
‘देहं लब्धा विवेकाढ्यं द्विजत्वञ्च विशेषतः।
तत्रापि भारतेवर्षे कर्मभूमौ सुदुर्लभम्॥
को विद्वानात्मसात् कृत्वा देहं भोगानुगो भवेत्।’
 
सदसद् विवेक बुद्धि सँ युक्त मनुष्य शरीर पाबिकय, ताहू मे विशेषतः द्विजत्व पाबिकय आर अति दुर्लभ पुण्य-पाप जनक कर्म केर भूमि भारतवर्ष मे जन्म ग्रहण कय एहेन कोन बुद्धिमान् होयत जे देह मे आत्मबुद्धि कयकेँ भोग आदिक सेवन करत। एहि सँ सिद्ध होएत अछि जे भारतवर्षीय मनुष्य टा पुण्य या पाप केर जनक कर्मक अधिकारी अछि तथा एहि सँ इतर देश मे रहयवला मनुष्य मनुष्याभास थिक। एहेन स्थिति मे उक्त समस्त बात सभक उपपत्तिक लेल व्यवस्था देल जाइत अछि जे – “मानवोचित बुद्धि जाहि प्राणी केर हो, ओकरा द्वारा विहित कर्म कयला सँ पुण्य केर, आ निषिद्ध कर्म कयला सँ पाप केर उत्पत्ति होएत अछि।
 
यद्यपि नीतिग्रन्थ मे लिखल अछि –
 
‘आन्वीक्षिकी त्रयीवार्त्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती।
एताश्च चतस्रोविद्या लोकसंस्थिति हेतवः॥’
 
अर्थात् तर्क विद्या (कियैक तँ ‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्म वेदनेतरः जे तर्क सँ खोज करैत अछि, वैह टा धर्म केँ जनैत अछि, ओहि सँ भिन्न नहि) ऋक्, यजुः, सामवेदत्रयी, व्यापारविद्या आ दण्डनीति, ई चारि विद्या सभ टा संसार केर व्यवस्थाक कारण थिक। तथापि उक्त विद्या सभ तथा व्याकरण, ज्योतिष, साहित्यादि एवं न्याय, मीमांसा, सांख्य, योगादि वेद केर अङ्ग आ उपाङ्ग रूप सँ उपयोगी होयबाक कारणे शास्त्र शब्द मे व्यवहृत होएत अछि। एवं ‘इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्’ केर अनुसार वेद प्रतिपाद्य सभकेँ वृहत् रूप सँ उपस्थापना करबाक कारण इतिहास, पुराण सेहो शास्त्रहि केर अन्तर्गत पड़ैत अछि। ‘माता पितृ सहस्रेभ्योऽपि वत्सलतरं शास्त्रम्’ यानि हजारों माता तथा पिता सँ सेहो बहुत बेसी स्नेह करयवला शास्त्र थिक। एहि आप्तवाणीक मुताबिक मानव मात्र केँ शास्त्र अनुसार चलब श्रेयस्कर अछि।
 
अन्त मे निवेदन अछि जे ‘महाजनो येनगतः स पन्थाः’ एकरा अनुसार हरिश्चन्द्र, रामचन्द्र एवं युधिष्ठिर आदि महापुरुष जाहि सनातन धर्म केर अनुसार चलला सँ मरियो कय अमर छथि, ताहि सनातन धर्म केर अनुसार चलला सँ समस्त मनुष्य सुख-शान्ति केर भागी भऽ कय मानव जीवन केँ सफल बना सकब।
 
हरिः हरः!!