वाचस्पति मिश्र
(लेखकः पं. सहदेव झा)
प्राक्कथन
बहुत छोट अवस्थे सँ वाचस्पतिमिश्रक प्रति हमर मनमे श्रद्धाक बीज स्थापित भए गेल। हमर परिवारमे एवं ठाढीक आनो परिवारमे वाचस्पति मिश्रक डीहक माटिसँ बालकक अक्षरारम्भ होइत छल। जिज्ञासा कएलापर हमर पितामह कहने छलाह – वाचपतिक घराड़ीक माटिसँ अक्षरारम्भ कएने लोक पण्डित होइत अछि। वाचस्पति बड़ पैघ पण्डित छलाह। किछु अधिक अवस्था भेलापर ग्रामीण संस्कृत विद्यालयमे पढए लगलहुँ। संस्कृत विद्यालयक प्रधानाध्यापक स्व. गुरुप्रवर जनार्दनझाजी विद्यालयक इनारमे खोदबा देने छलथिन्ह – “दार्शनिक-कोकिल वाचस्पतिमिश्रक डीह”। ओहि पाँती केँ बेरि-बेरि देखलासँ वाचस्पतिक प्रति श्रद्धाक बीज बाल्यावस्थामे जे अंकुरित भेल छल, से पल्लवित होमए लागल। विद्यालयक द्वितीयाध्यापक स्व. भागीरथझाजीक आमक गाछी वाचस्पतिक डीहक अत्यन्त समीपमे छनि। गर्मीक छुट्टीमे हुनक आमक गाछीमे ‘सिद्धान्त-कौमुदी’ पढैत छलहुँ। हुनकासँ पढबाक अवसरमे वाचस्पतिक अनेक तरहक बात सुनैत छलहुँ।
एक दिन ओ कहने छलाह – जँ भारतीय दर्शनशास्त्रसँ वाचस्पतिक सभ ग्रन्थकेँ हटा देल जाय, तँ भारतीय दर्शन एहेन उपवनक समान भऽ जायत, जाहिमे आओर सभ किछु तँ रहतैक मुदा कोकिलक कलरव नहि रहतैक। हमर घरक समीपमे स्व. मुरलीधर झा (चुनचुन झा) व्याकरण एवं वेदान्तक विशिष्ट विद्वान् छलाह। वाचस्पतिक ‘भामती’क महत्ताक वर्णन करैत हुनक आँखिसँ अश्रुपात होमय लगनि। हुनक भावावेशकेँ देखि मनमे ई संकल्प जागृत भय गेल जे व्याकरणाचार्य कयलाक अनन्तर आओर किछु पढी अथवा नहि पढी, ‘भामती’ धरि अवश्य पढब।
१९५० ई. सँ अपन गामक हाइ इंगलिश स्कूलमे संस्कृत अध्यापक भेलहुँ। संयोगसँ ग्रामेमे स्व. पं. सृष्टिनारायण झाजी, स्व. पं. मुरलीधर झाजी एवं पं. श्री विश्वम्भर झाजी वेदान्तक नीक विद्वान् छलाह। हुनका लोकनिसँ ‘भामती’क अध्ययन करय लगलहुँ। ‘भामती’ एवं वाचस्पतिक अन्यान्य ग्रन्थक अध्ययन कयला पर प्रतीत भेल जे हुनका सनक दोसर दार्शनिक समग्र भारतमे नहि भेलाह, सभ दर्शनमे वाचस्पतिक पोथी मूर्द्धन्य ग्रन्थ अछि। हुनक पाँतीमे शंकराचार्यक तर्क एवं कालिदासक पदलालित्यक मञ्जुल समावेश अछि। मुदा ई आश्चर्य लगैत छल जे एतेक महान दार्शनिकक डीह अन्धराठाढीमे अछि मुदा एकर कोनो व्यापक प्रचार नहि अछि।
संयोगसँ हमर पूज्य अग्रज महात्मा श्री नन्दीश्वर झाजी ब्रह्मस्थान नामक अपन आश्रमसँ ‘मित्रवाणी’ नामक हस्तलिखित पत्रिकाक (मैथिली-भाषामे) संचालन करैत छलाह। हमर प्रयाससँ ‘मित्रवाणी’क तीन सामान्य अंक प्रकाशित भेल छल। हमरा मनमे तीव्र इच्छा जागृत भय गेल जे एक वाचस्पतिक स्मारक ग्रन्थ ‘मित्रवाणी’क विशेषांकक रूपमे प्रकाशित कराओल जाय। जाहिमे समग्र भारतक मूर्द्धन्य विद्वानक वाचस्पतिक सम्बन्धमे निबन्धमे संकलय कय प्रकाशित करबाओल जाय। १९५४ ई. मे ई कार्य आरम्भ भेल एवम् १९६३ ई. मे एहि कार्यक पूर्ति भेल।
ओहि विशेषांकमे श्री १०८ करपात्रीजी महाराज, म. म. गिरिधर शर्मा, पण्डितराज राजेश्वरशास्त्री, वामाचरण भट्टाचार्य, म. म. डा. उमेश मिश्राजी, विद्यावारिधि स्व. शशिनाथझाजी, पण्डित श्री आनन्द शास्त्रीजी एवं स्व. भूपनारायण झाजीक समान विशिष्ट विद्वानक निबन्ध प्रकाशित भेल। म. म. डा. उमेश मिश्रजीक प्रेरणासँ फ्रान्सक एक महिला तथा हालेण्डक एक प्राध्यापक अंगरेजी भाषामे एकर निबन्धो प्रकाशित भेलैक। ओहि सभ लेखक एवं वाचस्पतिक ग्रन्थक अनुशीलन चलिते रहल।
क्रमशः ई स्पष्ट होमय लागल जे ‘भामती’मे वाचस्पति शंकराचार्यक पूर्ण अनुसरण नहि कयने छथि। इएह कारण अछि जे शांकर अद्वैत-वेदान्तमे वाचस्पतिक विचार अन्य प्रस्थानक विचार मानल जाइत अछि। कोनो प्रसंगमे अद्वैत-सिद्धिक लघुवन्दिकाक विट्ठलेशोपाध्यायी टीकामे लिखल अछि –
न च वाचस्पतिमतविरोधः, तस्य प्रस्थानान्तरत्वात्॥अद्वैतसिद्धि, पृ. २६८॥
प्रस्थानक अर्थ होइत अछि परम्परागत प्रतिष्ठित विचार। अर्थात् जे विचार प्राचीन परम्परासँ विद्वत्समाजमे प्रतिष्ठित हो। ई जिज्ञासा तीव्र जागृत भय गेल जे अद्वैत-वेदान्तमे वाचस्पतिक जे विचार शाङ्कर सम्प्रदायक विद्वानक द्वारा अन्य प्रस्थानक विचार कहल जाइत अछि ओहि विचारक प्रतिपादक अन्य कोन प्राचीन मैथिल अद्वैत-वेदान्ती छलाह। अन्य विद्वाने जकाँ ओहि समयमे हमरो धारणा बनल छल जे मण्डन मिश्र द्वैतवादी मीमांसक छलाह। शङ्कराचार्यसँ शास्त्रार्थमे पराजित भय, मण्डन हुनक शिष्य सुरेश्वराचार्य भेलाह एवं तत्पश्चात् ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’ एवं ‘वार्त्तिक’ आदि शाङ्कर अद्वैत सम्प्रदायक ग्रन्थ लिखलनि। ई तँ बुझले नहि छल जे ई सभ बात कपोल-कल्पित अछि। मण्डन अद्वैत-वेदान्ती छथि। वाचस्पति हुनके अनुगामी छथि। परन्तु ई बात मनमे अबैत छल जे शाङ्कर सम्प्रदायमे वाचस्पतिक विचार मिथिलाक परम्परागत विचार थिक। परन्तु एकर कोनो आशा नहि बुझाइत छल वाचस्पतिसँ पूर्ववर्ती कोनो मैथिल अद्वैतवादीक पोथी भेटत।
अछता-पछताकऽ एहि आशासँ जे मण्डन संन्यासक अनन्तर मिथिलाक किछु विचार रखने छथि अथवा नहि, सुरेश्वराचार्यक ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’क अन्वेषण करय लगलहुँ। ईश्वरक इच्छासँ ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’क स्थानमे मण्डनक ‘ब्रह्मसिद्धि’ हाथमे आयल। पोथी देखैत देरी हम आश्चर्यित एवं आनन्दित भय गेलहुँ। पोथीमे देखलियैक – “मण्डनमिश्रविरचिता ब्रह्मसिद्धिः”। हम एहि आश्चर्यित भेलहुँ जे ब्रह्मसिद्धि मण्डन मिश्र कोना लिखलनि। ओ तँ अद्वैत-वेदान्ती छलाह। अद्वैतवादी सर्वोच्च चेतन-तत्त्वकेँ “ब्रह्म” एवं द्वैतवादी “ईश्वर” कहैत छथि। यदि मण्डन संन्यासी भेलाक अनन्तर लिखने रहितथि तखन “सुरेश्वराचार्यविरचिता” – ई लिखल रहितैक। संन्यासी गृहस्थावस्थाक नामक व्यवहार नहि करैत छथि।
तत्पश्चात् देखलहुँ जे मण्डन मिश्र ओहि पोथीमे शङ्कराचार्यक अभिवादन नहि कयने छथि। शनैः शनैः ‘ब्रह्मसिद्धि’क अवलोकन कयलासँ अंगरेजी भाषामे लिखित भूमिकाकेँ बुझलासँ सुस्पष्ट भय गेल जे मण्डन शङ्करक अद्वैत-वेदान्तसँ अतिरिक्त अद्वैत-वेदान्तक आचार्य छलाह। ओ अद्वैत-वेदान्त मिथिलाक परम्परागत अद्वैत-वेदान्त थिक। जनक एवं याज्ञवल्क्यक आचार एवं विचारसँ मण्डनक अद्वैत-वेदान्तक सम्पुष्टि होइत अछि। मण्डन अपन अद्वैत-वेदान्तक ग्रन्थमे शङ्करक कतिपय विचारकेँ अद्वैत-वेदान्तीक रूपमे खण्डन कयने छथि। शङ्कराचार्यो अद्वैत-वेदान्ती मण्डनक कतिपय सिद्धान्तक खण्डन अपन भाष्यमे कएने छथि। (द्रष्टव्य ब्रह्मसिद्धिक भूमिका)
एहिसँ ई स्पष्ट भय गेल जे मण्डन एवं शङ्करक विरोध मीमांसक एवं वेदान्ती विरोध अथवा द्वैतवादी एवं अद्वैतवादीक विरोध नहि छल जेना कि ऐतिहासिक दृष्टिसँ अप्रामाणिक ‘शङ्कर-दिग्विजय’ पोथीमे वर्णित भेल अछि। अपितु दू सम्प्रदायक अद्वैवादीक विरोध मण्डन एवं शङ्करक विरोध छल। मण्डन अद्वैवादमे आस्था रखितहु, मोक्षक हेतु वैदिक सभ कर्मक महत्ताक प्रतिपादन ‘ब्रह्मसिद्धि’मे कयने छथि। ‘भामती’मे वाचस्पतिक प्रायः सभ अभिनव विचारक प्रतिपादन हुनकासँ पूर्व मण्डन ‘ब्रह्मसिद्धि’मे कयने छथि।
मण्डन आजीवन मीमांसक एवं अद्वैत-वेदान्ती छलाह। मीमांसक ‘विधिविवेक’ नामक ग्रन्थोमे मण्डन वेदान्त वाक्यसँ ब्रह्मक सिद्धि होइत अछि एकर प्रतिपादन कएने छथि। अद्वैत-वेदान्ती, निष्क्रिय सर्वोच्च चेतन-तत्त्वकेँ ‘ब्रह्म’ कहैत छथि एवं द्वैतवादी सक्रिय सर्वोच्च चेतनतत्त्वकेँ ईश्वर कहैत छथि। जेँ कि मण्डन ‘विधिविवेक’मे वेदान्त वाक्यसँ ब्रह्मक सिद्धिक समर्थन कएने छथि तेँ सूचित होइत अछि जे मण्डन मीमांसाक रूपहुमे वेदान्तकेँ प्रामाणिक मानैत छलाह, एवं वेदान्त-वाक्यसँ सर्वोच्च निष्क्रिय चेतन-तत्त्व (ब्रह्म)क सिद्धि होइत अछि – इहो मानैत छलाह। अतः मण्डन मीमांसक रूपहुमे अद्वैतवादी छलाह।
ऐतिहासिक कालमे कुमारिल (६०० सँ ६६० ई.), प्रभाकर (६१० सँ ६९० ई.), मण्डन (६१५ सँ ६९५ ई.) तीन प्राचीन एवं प्रतिष्ठित मीमांसक भेलाह। हिनका लोकनिक समय-निरूपण ‘ब्रह्मसिद्धि’क भूमिकाक आधारपर कयल गेल अछि। मुदा मण्डनक समय आठमी शताब्दी समीचीन बुझि पड़ैत अछि। कारण, मण्डन शङ्करक समकाल छलाह। प्रायः सर्वसम्मतसँ आब शङ्करक समय ७७८ सँ ८२० ई मानल जाइत अछि (द्रष्टव्यः शङ्कराचार्य पृ. ३५)। संस्कृत पण्डित लोकनिक परम्परागत कथासँ प्रभाकर कुमारिलक शिष्ट छलाह। एहि सम्बन्धमे गुरुपरम्परासँ एक कथा बुझल अछि जे लिखबाक इच्छा भय रहल अछि। कुमारिल कतहु जा रहल छलाह। कोनो गामक समीपमे संध्याकाल भय गेलनि। एक बालककेँ गाय चरबैत देखि, कुमारिल पुछलथिन जे ग्राम कतेक दूर पर छैक। ओ बालक कुमारिलसँ कहलकनि जे अहाँ पढलो-लिखल छी? कुमारिल आश्चर्यचकित भय गेलाह। बालकसँ पुछलथिन – अहाँकेँ ई जिज्ञासा किएक भेल? ओ बालक कहलथिन – यदि ग्राम दूर रहितैक तँ संध्याकालमे हम (छोट बालक) एहिठाम गाय चरबैत नहि रहितहुँ। ओ बालक प्रभाकर छलाह।
कुमारिल बालकक विलक्षण प्रतिभासँ प्रभावित भय रातिमे प्रभाकरक पिताक ओहिठाम रहलाह। अपन परिचय दय, प्रभाकरक पिताक अनुमतिसँ प्रभाकरकेँ पढयबाक हेतु अपना ओहिठाम लय अयलाह। प्रभाकर जखन कुमारिलसँ शाबरभाष्यक अध्ययन करैत छलाह तखन एक घटना ई भेलैक जे शाबरभाष्य पढयबाक अवसरमे कुमारिलकेँ एक पाँतीक अर्थ नहि लगैत छलनि। एकाग्रमनसँ किछुकाल ओहि पाँतीक अर्थ विचार कयलाक अनन्तर कुमारिल लघुशंका करय हेतु गेलाह।
प्रभाकर गम्भीरतासँ ओहि पाँतीकेँ देखि यावत् कुमारिल आबथि, तावत् ओहि पाँतीक शीर्षस्थ रेखाकेँ लेखनीसँ ठीक कय देलथिन जाहिसँ कुमारिलकेँ ओहि पाँतीक अर्थ लागि गेलनि। जिज्ञासा कयलापर जे एहि पाँतीक शीर्षस्थ रेखाकेँ के ठीक कयलक, प्रभाकरक नाम शिष्यलोकनि कहलथिन। प्रसन्न भय कुमारिल छात्रलोकनिसँ बहकलथिन जे अहाँ लोकनि प्रभाकरकेँ गुरु कहिऔन। तहियासँ प्रभाकरकेँ सभ गुरु कहय लगलथिन।
मीमांसा दर्शनमे गुरु-मतसँ प्रभाकरक मत बुझल जाइत अछि। शाबरभाष्यमे एकठाम ई पाँती छैक जे “तत्रतुनोक्तम् अत्रापि नोक्तम् अतो द्विरुक्तम्”। पाँती देखलासँ सामान्यतः ई अर्थ बुझि पड़ैत छैक जे ताहिठाम नहि कहलहुँ एवं एहूठाम नहि कहलहुँ। अतएव दू बेरि कहलहुँ। ई बात पूर्वापर विरुद्ध भय जाइत छैक।
प्रभाकर शीर्षस्थ रेखाकेँ एहि रूपसँ बना देलथिन – तत्र तुनोक्तम् अत्रापिनोक्तम्। फलतः ई अर्थ स्पष्ट भय गेलैक जे ताहिठाम “तु” शब्दसँ कहलहुँ, एहिठाम “अपि” शब्दसँ कहलहुँ। अतएव दू बेरि कहलहुँ। (तत्र तुना उक्तम् अत्र अपिना उक्तम् अतः द्विरुक्तम्)। मीमांसा-दर्शनमे प्रभाकरक सिद्धान्त कुमारिलक सिद्धान्तसँ पृथक् अस्तित्त्व रखैत अछि एवं दूनूक सिद्धांत विद्वान् लोकनिसँ मान्य अछि।
मिथिलामे पश्चात् एक निश्चित मैथिल विद्वान् मुरारि मिश्र भेलाह जे मीमांसा-दर्शनमे तेसर सम्प्रदाय चलओलनि। मुदा हुनक सम्प्रदाय विद्वान् लोकनिसँ उपेक्षित रहल एवं मुरारेस्तृतीयः पन्थाः कहि कऽ मुरारि मिश्रक हँसी कयल गेल। हमरा जनैत कुमारिल, प्रभाकर एवं मुरारि मिश्र तीनू मैथिल विद्वान् छलाह। एहि सम्बन्धमे अनुसन्धानक अपेक्षा अछि। मिथिलामे न्यायदर्शन जकाँ मीमांशादर्शनक अत्यधिक प्रचार छल। ‘मुरारेस्तृतीयः पन्थाः’ एहि व्यंग्योक्तिक रूपान्त मैथिली भाषामे प्रयोग होइत अछि जे हिनक तेसरे बाट छनि। प्रायः अन्य जनभाषामे एहि तरहक व्यंग्योक्तिक प्रचार नहि छैक। एहू सभसँ सिद्ध होइत अछि जे कुमारिल, प्रभाकर एवं मुरारि मिश्र ई तीनू मैथिल छलाह।
क्रमशः……..
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हरिः हरः!!