नाटकः शुम्भ-निशुम्भ वध
– प्रवीण नारायण चौधरी
ॐ श्री दुर्गायै नमः!!
शुम्भ-निशुम्भ वध
(नाट्य रूपान्तरण)
दृश्यः पहिल
भगवतीक स्मृति मे आइ आशीष मांगि एक दृष्टान्त अपन पाठक सब लेल राखबाक अनुमति भेटल अछि। भगवतीक उत्तरचरित्र जे महासरस्वतीक प्रसन्नता लेल हमरा लोकनि दुर्गा सप्तशतीक पाठ करैत छी – जाहि मे ई उल्लेख कयल गेल अछि जे शुम्भ-निशुम्भ असुर अपन बलक घमंड मे शचीपति इन्द्रक हाथ सँ तिनू लोकक राज्य आर यज्ञभाग छीन लेलक, वैह दुनू सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम आर वरुणक अधिकारक उपयोग करय लागल, वायु आर अग्निक कार्य सेहो वैह सब करय लागल, सब देवताक अपमानित, राज्यभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन कय स्वर्ग सँ निकालि देलक – तखन एहि दुनू महान् असुर सँ तिरस्कृत देवता अपराजिता देवीक ई वचन –
तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥५-६॥
अर्थात् – देवता लोकनि आफदक समय मे भगतीक स्मरण कयलनि आ सोचलनि जे, “जगदम्बा हमरा सब केँ वर देने छलीह कि आपत्तिकाल मे स्मरण कयलापर हम तोहर समस्त आपत्तिकेँ तत्काल नाश कय देबौ” – यैह विचारिकय समस्त देवता हिमालय पर गेलाह आर ओतय भगवती विष्णुमायाक स्तुति करय लगलाह –
देवता लोकनिः (सामूहिक स्वर मे विनती करैत)
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥दुर्गासप्तशत्याम् ५-९॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्सनायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥१०॥
कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥११॥
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥१२॥
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥१३॥
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै॥१४॥ नमस्तस्यै॥१५॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥१६॥
देवी केँ नमस्कार अछि, महादेवी शिवा केँ सर्वदा नमस्कार अछि। प्रकृति एवं भद्रा केँ प्रणाम अछि। हम सब नियमपूर्वक जगदम्बा केँ नमस्कार करैत छी। रौद्रा केँ नमस्कार अछि। नित्या, गौरी एवं धात्री केँ बेर-बेर नमस्कार अछि। ज्योत्स्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी केँ सतत प्रणाम अछि। शरणागतक कल्याण करयवाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी केँ हम बेर-बेर नमस्कार करैत छी। नैर्ऋती (राक्षसक लक्ष्मी), राजा आदिक लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी) स्वरूपा अपने जगदम्बा केँ बेर-बेर नमस्कार करैत छी। दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट सँ पार उतारयवाली), सारा (सभक सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा आर धूम्रादेवी केँ सर्वदा नमस्कार अछि। अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवी केँ हम नमस्कार करैत छी। जे देवी सब प्राणी मे विष्णुमायाक नाम सँ कहल जाएत छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि॥९-१६॥
(माँ दुर्गाक अनुपम लीला-चरित्रक एक सुन्दर आख्यान जे देवतादि केँ वरदान देने छलीह, जखन कोनो विपत्तिक समय मे हमरा बजायब, हम तुरन्त ताहि विपत्तिक निदान निकालि देब आर तदनुरूप इन्द्र व अन्य देवता केँ शुम्भ-निशुम्भ नामक दुइ बलवान दानव द्वारा उच्छन्नड़ देलापर देवता कोना भगवतीक प्रार्थना कय रहला अछि ताहि मे काल्हि ८ श्लोक पढने रही, आइ आगू देखीः)
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै॥१७॥ नमस्तस्यै॥१८॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥१९॥
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२०॥ नमस्तस्यै॥२१॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥२२॥
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२३॥ नमस्तस्यै॥२४॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥२५॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२६॥ नमस्तस्यै॥२७॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥२८॥
या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२९॥ नमस्तस्यै॥३०॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥३१॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥३२॥ नमस्तस्यै॥३३॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥३४॥
या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥३५॥ नमस्तस्यै॥३६॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥३७॥
या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥३८॥ नमस्तस्यै॥३९॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥४०॥
जे देवी समस्त प्राणी मे चेतना कहाएत छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे बुद्धिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे निद्रारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे क्षुधारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे छायारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे तृष्णारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे क्षान्ति (क्षमा) रूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि।
(भक्तजन! ई प्रार्थना एखन निरन्तरता मे अछि। काल्हि दुर्गा सप्तशतीक पाँचम अध्याय जेकरा उत्तरचरित्रक विनियोग सेहो कहल जाएछ ताहि मे ९म श्लोक सँ १६ श्लोक धरि देवता द्वारा विपत्ति मे देवी केँ आराधना आरम्भ करबाक आख्यान शुरू भेल छल। आइ एकरे निरन्तरता दैत श्लोक संख्या ४० धरि पहुँचि पेलहुँ। ध्यान देबैक! भगवान् केर सृष्टि मे मनुष्य (हम-अहाँ) सहित अनेक तरहक दृश्य-अदृश्य अस्तित्व – लोक – समुदाय – समाज – संसार सब छैक। देवता केँ बहुत ऊपर मानल जाएत छन्हि। आर हम मनुष्य सीधे देवताक स्वामित्व मे हुनकहि देल भोग सँ जीवन निर्वाह करैत छी। जँ हमरा सभक स्वामी देवता स्वयं भगवतीक आराधना एना विपत्ति-आपत्ति केँ दूर करबाक लेल कयलनि त हम सब सेहो केना अपन जीवन निर्वाह करब, ई स्वयं विवेक पर निर्भर करैत अछि।)
(देवता लोकनि शुम्भ-निशुम्भ केर बल आ उपद्रव सँ स्वर्ग सँ बाहर निकालल गेल छथि, इन्द्र केर इन्द्रासन सेहो छीन लेने अछि दानव-दुर्जन आर जखन एहेन घोर विपत्ति मे इन्द्र सहित समस्त देवतागण पड़ि गेल छथि त सहारा केवल ‘जगज्जननी जगदम्बा’। सब केँ भगवतीक वरदान मोन पड़ि जाएत छन्हि आर विनीत स्वर मे भगवतीक आह्वान कय रहला अछि। निरन्तरता मे अछि, पिछला दुइ दिनक पोस्ट सँ श्लोक ४० धरिक अर्थ मनन कय चुकल छी हमरा लोकनि। आगू देखूः)
या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥४१॥ नमस्तस्यै॥४२॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥४३॥
या देवी सर्वभूतेषु लज्जरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥४४॥ नमस्तस्यै॥४५॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥४६॥
या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥४७॥ नमस्तस्यै॥४८॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥४९॥
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥५०॥ नमस्तस्यै॥५१॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥५२॥
या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥५३॥ नमस्तस्यै॥५४॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥५५॥
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥५६॥ नमस्तस्यै॥५७॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥५८॥
या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥५९॥ नमस्तस्यै॥६०॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥६१॥
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥६२॥ नमस्तस्यै॥६३॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥६४॥
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥६५॥ नमस्तस्यै॥६६॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥६७॥
या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥६८॥ नमस्तस्यै॥६९॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥७०॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥७१॥ नमस्तस्यै॥७२॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥७३॥
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥७४॥ नमस्तस्यै॥७५॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥७६॥
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥७७॥
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै॥७८॥ नमस्तस्यै॥७९॥ नमस्तस्यै नमो नमः॥८०॥
स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभामि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥८१॥
या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥८२॥
जे देवी सब प्राणी मे जातिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे लज्जारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे शान्तिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे श्रद्धारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे कान्तिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे लक्ष्मीरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमसकार अछि। जे देवी सब प्राणी मे वृत्तिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे स्मृतिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे दयारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे तुष्टिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी प्राणी मे मातारूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी सब प्राणी मे भ्रान्तिरूप सँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। जे जीव सभक इन्द्रियवर्गक अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणी मे सदैव व्याप्त रहयवाली छथि, ताहि व्याप्तिदेवी केँ बेर-बेर नमस्कार अछि। जे देवी चैतन्यरूप सँ एहि सम्पूर्ण संसार केँ व्याप्त कय केँ स्थित छथि, हुनका नमस्कार, हुनका नमस्कार, हुनका बेर-बेर नमस्कार अछि। पूर्वकाल मे अपन अभीष्टक प्राप्ति भेला सँ देवता लोकनि जिनकर स्तुति केलनि तथा देवराज इन्द्र बहुत दिन धरि सेवन कयलनि, ताहि कल्याणक साधनभूता ईश्वरी हमरा सभक कल्याण आ मंगल करैथ तथा समस्त आपत्ति केँ नाश कय दैथ। उद्दण्ड दैत्य सब सँ सतायल गेल हम समस्त देवता जाहि परमेश्वरी केँ एहि समय नमस्कार करैत छी तथा जे भक्ति सँ विनम्र पुरुष द्वारा स्मरण कयल गेलापर तत्काले सम्पूर्ण विपत्ति केँ नाश कय दैत छथि, से जगदम्बा हमरा सभक संकट दूर करैथ।
(देवता लोकनि द्वारा एहि तरहें अर्पित विनती मे स्पष्ट अछि जे हमरा सब केँ शक्तिदात्री माय प्रति केहेन भक्ति आ केहेन विनम्रता सँ स्तुति करैत रहबाक चाही। अस्तु! आगाँ आरो अध्ययन करब! निरन्तरता मे….)
प्रिय भक्तजन एवम् नित्य पाठकजन – यदि अहाँ धारावाहिक लेखनीक पैछला ३-४ दिनक गाथा आ महाशक्ति देवी दुर्गा सँ देवता लोकनिक आराधना करबाक अति विशिष्ट विनती पर ध्यान देने होयब – या मैथिली जिन्दाबाद पर राखल गेल समग्र लेख पढने होयब – या फेर आबो पढि लेब – त एहि सँ आगू उत्तरचरित्र मे देवी द्वारा पुनः देवता लोकनि केँ शुम्भ-निशुम्भ सन पराक्रमी दैत्य योद्धा सँ कोना मुक्ति दियबैत छथि एकर अत्यन्त विलक्षण कथा अछि। आर, एकर प्रस्तुति किछु पात्रक संग नाटकक दृश्य अनुरूप नीक सँ बुझि सकब। अतः हम आब जे आगाँ प्रस्तुति करय जा रहल छी ताहि मे ऋषि आ राजन दुइ गोट सूत्रधारक माध्यम सँ देवी तथा देवता तथा दैत्यादिक संग वार्ता, युद्ध, विजयी प्रकरण राखब। आउ, परमानन्द केर प्राप्ति करूः
(देवता लोकनिक प्रार्थना सुनि माता पार्वती गंगाक पवित्र जल मे स्नान करय लेल आबि गेलीह। सुन्दर भौंहवाली भगवती देवता सँ पूछि बैसलीः)
पार्वतीः हे देवगण! अहाँ सब एतय किनकर स्तुति कय रहल छी?
(पार्वतीजीक एतेक बजिते हुनकहि शरीरकोश सँ शिवादेवी प्रकट भेलीह)
शिवादेवीः शुम्भ दैत्य सँ तिरस्कृत आर युद्ध मे निशुम्भ सँ पराजित भऽ एतय एकत्रित ई समस्त देवता हमरे स्तुति कय रहला अछि।
शरीकोशाद्यत्त्स्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु पार्वती॥५-८७॥
तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥५-८८॥
ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥५-८९॥
ऋषिः (राजन सँ) – हे राजन्! पार्वतीजीक शरीरकोश सँ अम्बिकाक प्रादुर्भाव भेल अछि, तैँ ओ समस्त लोक मे ‘कौशिकी’ कहाएत छथि। कौशिकीक प्रकट भेलाक बाद पार्वतीदेवीक शरीर कारी रंगक भऽ गेलन्हि, तैँ ओ हिमालयपर रहनिहारि कालिकादेवीक नाम सँ विख्यात भेलीह। तदनन्तर शुम्भ-निशुम्भक भृत्य चण्ड-मुण्ड ओतय आयल आर ओ परम मनोहर रूप धारण करयवाली अम्बिकादेवी केँ देखलक। फेर ओ सब शुम्भक पास जाय कहलकः
चण्डः महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्त्री छथि, जे अपन दिव्य कान्ति सँ हिमालय केँ प्रकाशित कय रहली अछि।
मुण्डः एहेन उत्तम रूप कतहु कियो नहि देखने होयत। असुरेश्वर! पता लगाउ, ओ देवी के थिकीह आर हुनकर अपने पाणि-ग्रहण करू।
चण्डः महाराज! स्त्रिगण मे तँ ओ रत्न थिकीह। हुनकर प्रत्येक अङ्ग बहुते सुन्दर आर ओ अपन श्रीअङ्गक प्रभा सँ सम्पूर्ण दिशा मे प्रकाश पसारि रहली अछि। दैत्यराज! एखन ओ हिमालयहि पर उपस्थित छथि, अहाँ हुनका देखि सकैत छी।
मुण्डः प्रभो! तिनू लोक मे मणि, हाथी, घोड़ा आदि जतेक तरहक रत्न अछि, ओ सबटा एहि समय अहींक घर मे शोभा पबैत अछि। हाथी मे रत्नभूत ऐरावत, ई पारिजात केर वृक्ष आर ई उच्चैःश्रवा घोड़ा – ई सब अहाँ इन्द्र सँ लय लेलहुँ अछि।
चण्डः हँस सँ जोतल ई विमान सेहो अहींक अंगना मे शोभा पबैत अछि। ई रत्नभूत अद्भुत विमान, जे पहिने ब्रह्माजीक पास छल, आब अहाँ ओतय आनल गेल अछि।
मुण्डः ई महापद्म नामक निधि अहाँ कुबेर सँ छी लौने छी।
चण्डः सरकार! समुद्रो अहाँ केँ किञ्जल्किनी नामक माला भेंट केलक अछि, जे केसर सँ सुशोभित अछि आर जेकर कमल कखनहु कुम्हलाइत (मौलाइत) नहि छैक।
मुण्डः सुवर्णक वर्षा करयवाला वरुणक छत्र सेहो अहींक घर मे शोभा पबैत अछि तथा ई श्रेष्ठ रथ, जे पहिने प्रजापतिक अधिकार मे छल, ओ आब अहाँक पास मौजूद अछि।
चण्डः दैत्येश्वर! मृत्युक उत्क्रान्तिदा नामवाली शक्ति सेहो अहाँ छीन लेने छी तथा वरुणक पाश आर समुद्र मे होयवला सब प्रकारक रत्न अहाँक भाइ निशुम्भक अधिकार मे अछि।
मुण्डः महाराज! अग्नि (आइग) सेहो स्वतः शुद्ध कयल गेल दुइ वस्त्र अहाँ सेवा मे अर्पित कयने अछि।
चण्ड-मुण्डः (संयुक्त स्वर मे) – दैत्याराज! एहि तरहें समस्त रत्न अहाँ एकत्र कय लेलहुँ अछि। फेर जे ई स्त्री सब मे रत्नरूप कल्याणमयी देवी छथि, हिनका अहाँ कियैक नहि अपन अधिकार मे कय लैत छी?
शुम्भः (चण्ड-मुण्डक बात सँ प्रभावित होएत) – निस्सन्देह! अहाँ सभक कहब सत्य अछि हे चण्ड – हे मुण्ड। आर रत्नरूपा देवी पर सेहो हमरहि अधिकार अछि। (ओ अपन विशेष दूत महादैत्य सुग्रीव सँ सम्बोधन करैत) हे सुग्रीव! अहाँ तुरन्त देवीक पास जाउ। हमर आज्ञा सँ हुनका सोझाँ ई-ई बात कहू आर एहेन उपाय करू जाहि सँ ओ प्रसन्न भऽ शीघ्र एतय आबि जाएथ।
सुग्रीवः जेहेन आज्ञा महाराज!
(सु्ग्रीवक अत्यन्त वेग सँ प्रस्थान) (दृश्य पटाक्षेप)
दृश्य – दोसर
(पर्वतक अत्यन्त रमणीय प्रदेश मे जतय देवी मौजूद छथि, सुग्रीवक प्रवेश आ ओ मधुर वाणी मे कोमल वचन बजैत अछि।)
(काल्हि सँ शुम्भ-निशुम्भ मर्दन केँ नाट्य रूपान्तरण लिखि रहल छी। दृश्य प्रथम मे देवता लोकनिक विनती कयला उत्तर भगवती अम्बिकादेवी पार्वतीजी केर शरीर सँ उत्पन्न भऽ चुकल छथि, आर अपन कान्ति – स्वरूपक प्रकाश सँ सम्पूर्ण हिमालय केँ प्रकाशित कयने छथि। शुम्भ-निशुम्भक दूत चण्ड-मुण्ड हुनका देखैत छन्हि आर अपन स्वामी सँ सब रत्न ग्रहण कय लेलाक बाद एहि सुन्दर स्त्री रत्न केँ सेहो पाणि ग्रहण कय अथवा कोनो हाल मे आनि लेबाक लेल प्रेरित करैत छन्हि। ओ दैत्यराज दूतक बात सँ प्रभावित भऽ एक विशेष दूत केँ देवीक समीप पठबैत अछि। दूत भगवती लग पर्वतक ओहि अनुपम स्थल मे एलाक बाद, दृश्य २ निरन्तरता मेः)
दूतः देवि! दैत्यराज शुम्भ एहि समय तिनू लोकक परमेश्वर छथि। हम हुनकर दूत छी। एतय अपनहि पास आयल छी। हुनकर आज्ञा सदा सब देवता एक स्वर सँ मानैत छथि। कियो हुनकर उल्लंघन नहि कय सकैत अछि। ओ सम्पूर्ण देवता सब केँ परास्त कय चुकल छथि। वैह अपने लेल जे संदेश देलनि, से सुनू।
(दूत द्वारा दैत्यराजक सन्देश देवी केँ सुनबैत, पार्श्वध्वनि मे शुम्भक आवाज मे)
“सम्पूर्ण त्रिलोकी हमर अधिकार मे अछि। देवता सेहो हमर आज्ञाक अधीन चलैत छथि। सम्पूर्ण यज्ञक भाग केँ हमहीं पृथक्-पृथक् भोगैत छी। तिनू लोक मे जतेक श्रेष्ठ रत्न अछि, ओ सब हमरे अधिकार मे अछि। देवराज इन्द्रक वाहन ऐरावत, जे हाथी सब मे रत्नक समान अछि, हम छीन लेने छी। क्षीरसागर केर मन्थन कयला सँ जे अश्वरत्न उच्चैःश्रवा प्रकट भेल छलाह, तेकरा देवता लोकनि हमर पैर पर पड़िकय समर्पित कयलनि अछि। सुन्दरी! एहि सभक अलावे सेहो जतेक आरो रत्नभूत पदार्थ देवता, गन्धर्व तथा नागक पास छल, ओ सबटा हमरहि पास आबि गेल अछि। देवि! हम सब अहाँ केँ संसारक स्त्री समाज मे रत्न मानैत छी, अतः अहाँ हमरा पास आबि जाउ; कियैक तँ रत्नक उपभोग करयवला हमहीं टा छी। चञ्चल कटाक्ष सँ सुशोभित सुन्दरी! अहाँ हमर या हमर भाइ महापराक्रमी निशुम्भ केर सेवा मे आबि जाउ; कियैक तँ अहाँ रत्नस्वरूपा छी। हमर वरण कयला सँ अहाँ केँ तुलनारहित महान् ऐश्वर्यक प्राप्ति होयत। अपन बुद्धि सँ विचार कय केँ अहाँ हमर पत्नी बनि जाउ।”
(ऋषि कहैत छथि, दूतक एना कहलापर कल्याणमयी भगवती दुर्गादेवी, जे एहि जगत् केँ धारण करैत छथि, मनहि-मन गम्भीर भाव सँ हँसलीह आर एहि तरहें बजलीह – )
देवीः दूत! तूँ सब सहिये कहलह, एहि मे कनिको मिथ्या नहि अछि। शुम्भ तिनू लोकक स्वामी अछि आर निशुम्भ सेहो ओकरे समान पराक्रमी अछि। मुदा एहि प्रस्तावक विषय मे हम जे प्रतिज्ञा कय लेने छी, ओकरा झूठ (मिथ्या) कोना करू? हम अपन अल्पबुद्धिक कारण पहिनहि सँ प्रतिज्ञा कय लेने छी, से सुनह –
यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥१२०॥
“जे हमरा संग्राम मे जीत लेत, जे हमर अभिमान केँ चूर्ण कय देत तथा संसार मे जे हमरा समान बलवान् होयत, वैह हमर स्वामी होयत।”
तैँ, सुनह हे दूत! शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं एतय आबय आर हमरा जीत कय शीघ्र हमर पाणिग्रहण करय, एहि मे विलम्बक आवश्यकते कि?
दूतः देवि! अहाँ घमंड सँ भरल छी, हमरा सोझाँ एहेन बात नहि करू। तिनू लोक मे कोन एहेन पुरुष अछि जे शुम्भ-निशुम्भक सामने ठाढो भऽ सकय। देवि! आनो दैत्यक सोझाँ मे समस्त देवता युद्ध मे ठाढ नहि रहि सकैत छथि, फेर अहाँ असगर स्त्री भऽ कोना ठहैर सकैत छी? जाहि शुम्भ आदि दैत्यक सोझाँ इन्द्र आदि सब देवता पर्यन्त युद्ध मे ठाढ नहि रहि सकलाह, तिनका सामने अहाँ स्त्री भऽ कय कोना जायब? ताहि लेल अहाँ हमर कहना अनुसार शुम्भ-निशुम्भ केँ पास चलि चलू। एना केला सँ अहाँक गौरवक रक्षा होयत, अन्यथा जखन ओ केश पकड़िकय घसीटता, तखन अहाँ केँ अपन प्रतिष्ठा हारिकय जाय पड़त।
देवीः तोहर कहब ठीक छह। शुम्भ बलवान् अछि। और, निशुम्भ सेहो बहुत पराक्रमी अछि। मुदा हम कि करी? हम पहिनहि बिना बेसी सोचने-बुझने प्रतिज्ञा कय लेने छी। से आब तूँ जाह, हम तोरा सँ जे किछु कहलियह, वैह सब दैत्यराज सँ आदरपूर्वक कहह। फेर ओ जे उचित बुझय से करय।
(दूत विस्मित होएत ओतय सँ प्रस्थान कय जाएछ) (दोसर दृश्य समाप्त)
दृश्यः तेसर
अम्बिकादेवी द्वारा शुम्भ-निशुम्भ केर विशेष दूत सुग्रीव केँ युद्ध मे जीत उपरान्त मात्र दैत्यराजक प्रस्ताव स्वीकार्य होयत कहलाक बाद दूत केर वापसी आ अपन राजा सँ सब वृत्तान्त कहल जाएछ।
दूतः महाराज! अत्यन्त विनम्रतापूर्वक निवेदन करब जे रत्नरूपा देवी अपनेक प्रस्ताव केँ स्वीकार करबाक लेल एकटा शर्त लगा देलनि अछि। ओ कहली अछि जे शुम्भ अथवा निशुम्भ परम वीर अछि ताहि मे कोनो दुइ मत नहि, ओ समस्त रत्नक स्वामी बनि गेल अछि सेहो सत्य, परञ्च हमर पाणिग्रहण करबाक वास्ते हमर जे प्रतिज्ञा अछि सेहो पूरा करत तखनहि हम केकरो स्वीकार करब।
शुम्भः (क्रोधित होएत) – कि मतलब? केहेन शर्त? कि तूँ कहलुहुन नहि जे समस्त देवता, नाग, गन्धर्व – सब हमर राज्य मे हमरहि शासन मे रहि रहल अछि? एतेक तक कि देवताक राजा इन्द्र, प्रजापति – सब हमर शासनाधिकार मे रहि रहला अछि। तखन फेर ओ एहेन हठ कियैक प्रस्तुत कय रहली अछि?
दूतः महाराज! हम ई सब बात हुनका बहुत बेर बुझाकय कहलियैन। मुदा ओ त स्पष्टे कहलीह जे अपनेक एहि तरहक शासनाधिकार आदिक बात सँ पूर्वहि ओ स्वयं अपन वर चुनबाक लेल एकटा प्रतिज्ञा कय लेने छथि। जे कियो हुनका युद्ध मे परास्त करथिन, तिनके ओ अपन समान योद्धा मानि वर रूप मे चुनती। जँ अपने हुनका सँ युद्ध मे जीत हासिल कय लेब त ओ आबय लेल तैयार छथि।
शुम्भः (क्रोधित होएत अपन सेनापति धुम्रलोचन सँ) – धुम्रलोचन! अहाँ तुरन्त अपन सेना संग लेने जाउ आर ओहि दुष्टा केँ केश पकड़ि घसीटैत ओकरा बलपूर्वक एतय लय केँ आउ। ओकर रक्षा करबाक लेल यदि कियो दोसर ठाढ हो त ओहि देवता, यक्ष अथवा गन्धर्वहि कियैक नहि हो, ओकरा अवश्य बध कय देब।
धुम्रलोचनः जेहेन आज्ञा महाराज!
(दैत्यराजक आदेश स्वीकार करैत दृश्य पटाक्षेप, मंच पर अन्हार आर फेर सूत्रधार द्वय केर प्रवेश)
ऋषिः (राजन सँ) – जनैत छी! एतेक आदेश सुनिते धुम्रलोचन दैत्य साठि हजार असुरक सेनाक संग लेने ओतय सँ तुरन्त चलि देलक। ओतय पहुँचिकय ओ हिमालय पर रहनिहारि देवी केँ देखलक आर कि सब कहलक से देखू।
(दृश्य परिवर्तन, देवीक सोझाँ धुम्रलोचनक प्रवेश)
धुम्रलोचनः देवी! अहाँ तुरन्त शुम्भ-निशुम्भक पास चलि चलू। जँ एहि समय अहाँ प्रसन्नतापूर्वक हमरा स्वामीक समीप नहि चलब त हम बलपूर्वक झोंटा पकड़िकय घीचैत-तीरैत अहाँ केँ ओतय लय चलब।
देवीः सुने धुम्रलोचन! तोरा दैत्यक राजा पठेलखुन अछि, तूँ स्वयं सेहो बलवान् छँ। आर तोरा पास विशाल सेना सेहो छौक। एहेन दशा मे जँ तूँ हमरा जबरदस्ती लय चलमे त हम तोहर कि कय सकैत छी?
ऋषिः (राजन सँ) – एतेक सुनैत देरी धुम्रलोचन देवीक दिश हुनका पकड़बाक लेल दौड़ल – मुदा देवीक ‘हुं’ शब्दक उच्चारण मात्र सँ ओ ओत्तहि भस्म भऽ जाएछ। पुनः दैत्यक क्रुद्ध सेना आ देवीक बीच सायक, शक्ति तथा फरसाक वर्षा आरम्भ भऽ जाएत अछि। एहि बीच देवीक वाहन सिंह अत्यन्त भयानक गर्जना करैत अपन गर्दनिक केस केँ हिलबैत असुरक सेना ऊपर कूदि पड़ैछ। ओ कतेको दैत्य केँ अपन पंजाक मारि सँ, कतेको केँ अपन जबड़ा सँ आर कतेको केँ पटैककय अपन मुंहक दाढ सँ घायल कय केँ मारि दैत अछि। अपन नह सँ कतेको केँ पेट फाड़ि देलक, कतेको केँ थापड़ मारि सिर धर सँ अलग कय देलक। कतेकोक हाथ आर माथ काटि देलक तथा अपन गर्दनिक केश हिलबैत ओ दोसर दैत्यक पेट फाड़िकय ओकर रक्त तक चूसि लेलक। अत्यन्त क्रोध मे भरल ओ देवीक वाहन ओहि महाबली सिंह द्वारा क्षणहि भरि मे असुरोक समस्त सेनाक संहार कय देल गेल।
(एहि दैत्य सेना मे सँ किछु भागिकय राजा शुम्भ सँ सब वृत्तान्त कहि सुनेलक)
हारल सेनाः महाराज! ओ कोनो साधारण देवी नहि! ओ कोनो महाशक्तिक अवतार थिकीह। हुनकर मुंहक ‘हुं’ उच्चारण मात्र सँ सेनापति धुम्रलोचन जैर कय खकस्याह भऽ गेलाह। हुनकर महाबली वाहन ‘सिंह’ छन्हि महाराज। ओ असगरे समस्त सेना पर टूटि पड़ल आ एहेन दुर्दशा केलक जे कि कहू।
शुम्भः (क्रोध सँ काँपैत) – हे चण्ड! हे मुण्ड! आब तूँ सब ओतय आरो पैघ संख्याक सेना लय केँ ओतय जो आर ओहि देवीक झोंटा पकड़िकय अथवा ओकरा बान्हिकय शीघ्र एतय लेने आबे। जँ एना ओकरा आनय मे कोनो दिक्कत होउ त युद्ध मे सब प्रकारक अस्त्र-शस्त्र आदिक संग समस्त आसुरी सेनाक प्रयोग कय केँ ओकर हत्या कय दिहें। ओकरा आ ओकर वाहन सिंहक हत्या केलाक बादो ओहि दुनू केँ बान्हिकय एतय लेने अबिहें।
चण्ड-मुण्डः (भय सँ थरथर काँपैत) – जेहेन आज्ञा सरकार!
(दृश्य पटाक्षेप) (ऐगला दृश्य चण्ड-मुण्ड द्वारा देवी सँ युद्ध – क्रमशः)
दृश्यः चारिम
भगवती सँ धुम्रलोचन आर ओकर ६० हजार सेनाक वध कय देला उपरान्त भयभीत हारल सेना द्वारा दैत्यराजा शुम्भ सँ सब वृत्तान्त कहला उत्तर शुम्भ द्वारा अपन खास वीर सेनानी चण्ड आ मुण्ड केँ भगवती केँ युद्ध मे हरेबाक आ पुनः झोंटा घिसियाबैत अनबाक क्रूर आदेश देलाक बाद….
ऋषिः हे राजन! सब सँ पहिने त भगवतीक हम सब ध्यान करी।
ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकधरां वल्लकीं वादयन्तीम् ।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥
हम मातङ्गी देवीक ध्यान करैत छी। ओ रत्नमय सिंहासनपर बैसर पढैत सुग्गाक मधुर शब्द सुनि रहली अछि। हुनकर शरीरक वर्ण श्यान छन्हि। ओ अपन एक पैर कमलपर रखने छथि आर मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करैत छथि, तथा कह्लार पुष्पक माला धारण कयने वीणा बजाबैत छथि। हुनक अङ्ग मे कसल चोली शोभा पाबि रहल अछि। ओ लाल रंगक साड़ी पहिरने हाथ मे शङ्खमय पात्र लेने छथि। हुनकर शरीरपर मधुक हलका-हलका प्रभाव बुझा रहल अछि आर ललाट मे टिकली शोभा दय रहल अछि।
गिरिराज हिमालयक सुवर्णमय ऊँच शिखरपर सिंह पर सवार देवी, चण्ड-मुण्डक सेनाक संग प्रवेश आ देवीक दर्शन… देवी मन्द-मन्द मुस्कुरा रहली अछि…. आर फेर देखू जे केहेन स्थिति अछि…..
चण्डः हे देवी! अहाँ अपन हठ सँ आजुक समयक सर्वोच्च शक्तिमान देवता, गन्धर्व, नाग सब लोकक स्वामी शुम्भ आ निशुम्भक बात केँ अवहेलना कय अपन गलत अभिमानक प्रदर्शन कय रहल छी।
देविः अरे! चण्ड! अरे! मुण्ड! तोरा सब सँ त पहिनहि कहि देलहुँ जे सर्वोच्च या सर्वोत्तम कियो हमरा तखनहि पाबि सकैत अछि जखन ओ हमरा युद्ध मे हरा देत। कह तूँ एतेक पैघ सेना लय केँ कि करय एलें?
मुण्डः हे देवि! हमरा सब केँ स्वामी शुम्भ सँ अहाँ केँ जेना-तेना पकैड़कय हुनका लग लय जेबाक आदेश भेटल अछि। एहि सँ पहिने सेहो हुनकर लोक अहाँक पास आयल छलाह, लेकिन अपने बात नहि मानल। ताहि हेतु हम ई सेना लय केँ अहाँ केँ जेना-तेना लय जेबा लेल आयल छी।
(एतेक कहैत चण्ड आ मुण्ड देवीक दुनू तरफ सँ हुनका पकड़बाक उपाय करय लगैछ, चारू कात सेना पसैर जाएत अछि। कियो धनुष तानने अछि, कियो तलवार…. कियो देवीक समीप आबिकय ठाढ भऽ गेल अछि)
देवीः (क्रोधित होएत… क्रोधक कारण हुनक रंग कारी पड़ि जाएछ) – अरे दुष्ट! एहि सँ पहिने सेहो जे आयल तेकर कि हाल भेलैक से नहि पता छौक?
(देवीक आँखिक भौंह टेढ भऽ गेलन्हि आर ओत्तहि सँ विकरालमुखी काली प्रकट भेलीह)
ऋषिः हे राजन! भगवतीक एहि अवस्थाक प्राप्ति उपरान्त जे काली प्रकट भेलीह हुनकर रूप अति डरावना छल।
काली – तलवार आर पाशक संग… विचित्र खटवाङ्ग धारण कएने, चीताक चर्मक साड़ी पहिरने, नर-मुण्डक माला सँ विभूषित, शरीर परका माँस सुखायल अवस्था मे, मात्र हड्डीक ढाँचा छलीह, जाहि सँ ओ भयंकर देखाय पड़ि रहल छलीह। हुनकर मुक विशाल छलन्हि, जीह्वा लपलपा रहल छलन्हि जे अत्यधिक डरावनी प्रतीत होएत छल, आँखि भीतर धँसल आ किछु लाल सेहो छलन्हि, ओ भयंकर गर्जना कय रहल छलीह, चारू दिशा मे ई गर्जना गुंजि रहल छल।
हे राजन! काली अपन तलवार सँ बड़का-बड़का दैत्यक वध करैत बड़ा वेग सँ दैत्यक सेनापर टूटि पड़लीह। ओकरा सब केँ किछुए क्षण मे भक्षण करय लगलीह।
देखू केहेन विकराल रूप अछि कालीजीक – ओ पार्श्वरक्षक, अङ्कुशधारी महावत, योद्धा आर घण्टासहित कतेको हाथी केँ एक्के हाथ सँ पकड़िकय मुंह मे खा लैत छथि। तहिना घोड़ा, रथ आ सारथिक संग रथी सैनिक सब केँ मुंह मे राखि ओ ओकरा सब बड़ा भयानक रूप सँ चिबा जाएत छथि। केकरो केश पकैड़ लैत छथि, केकरो गला दबा दैत छथि, केकरो पैर सँ मसैल दैत छथि त केकरो छातीक धक्का सँ खसाकय मारि दैत छथि। ओ असुरक छोड़ल बड़का-बड़का बाण अस्त्र-शस्त्र केँ मुँह सँ पकैड़ लैत छथि आर रोष मे भरिकय ओकरा दाँतहि सँ पीस दैत छथि।
कालीजी बलवान् आ दुरात्मा दैत्य केँ ओ सब सेना रौंदि देलनि, खा गेलीह आर कतेको केँ मारि भगौली। कियो तलवारक घाट उतारल गेल, कियो खट्वाङ्ग सँ पीटल गेल, आर कतेको असुर दाँतक अग्रभाग सँ चूर्ण बनि मृत्यु केँ प्राप्त भेल।
एहि तरहें देवी द्वारा असुरक सम्पूर्ण सेना केँ क्षणहि भरि मे मारि देल गेल। ई देखि चण्ड स्वयं ओहि कालीदेवीक दिशि दौड़ल… संगहि महादैत्य मुण्ड सेहो अत्यन्त भयंकर बाणक वर्षा सँ आ हजारों बेर चलायल गेल चक्र सँ ओहि भयानक नेत्रवाली देवी केँ आच्छादित कय देलक, मुदा ओ सब बाण आ चक्र देवीक मुंह मे समाएत एहेन देखाएत अछि मानू जेना सूर्यक कतेको मण्डल बादलक उदर मे प्रवेश कय रहल हो। तखन भयंकर गर्जना करैत काली द्वारा अत्यन्त रोष मे भरल विकट अट्टहास कयल गेल। ओहि समय हुनकर विकराल शरीरक भीतर कठिनता सँ देखल जाय सकयवला दाँतक प्रभा सँ ओ अत्यन्त उज्ज्वल देखाय देबय लगलीह।
अन्त मे देवी हाथ मे तलवार लेने ‘हं’ केर उच्चारण कय केँ चण्ड ऊपर आक्रमण कय देलीह आर ओकर केश पकड़िकय ओही तलवार सँ ओकर मस्तक काटि देलीह।
चण्ड केँ मारल गेल देखलाक बाद मुण्ड सेहो देवी दिशि दौड़ल। तखन देवी फेरो रोष मे भरिकय ओकरो तलवार सँ घायल करैत धरतीपर सुता देलनि। महापराक्रमी चण्ड आ मुण्ड केँ मारल गेल देखि बचल खुचल बाकी सेना जेम्हर-तेम्हर परा गेल। तदनन्तर काली चण्ड आ मुण्डक मस्तक हाथ मे लेने चण्डिकादेवीक समीप जा कय –
कालीः (अट्टहास करैत) देवि! हम चण्ड आ मुण्ड नामक एहि दुइ महापशु केँ अहाँ केँ भेंत कयलहुँ अछि। आब युद्धयज्ञ मे अपने शुम्भ आ निशुम्भ केर वध स्वयं करब।
चण्डिकादेवीः (प्रसन्न आ मधुर स्वर मे, ओहि चण्ड आ मुण्ड केर मस्तक देखैत) – देवि! अहाँ चण्ड आ मुण्डक सिर लय केँ हमरा लग एलहुँ अछि, ताहि लेल अहाँक नाम संसार मे ‘चामुण्डा’ सँ ख्याति पाओत।
(दृश्य पटाक्षेप)
दृश्यः पाँचम
(शुम्भक दरबार मे हारल आ भागल सेनाक प्रवेश)
हारल सेनाः हे महाराज! देवीक शक्ति एतेक विशाल दैत्यक सेना केँ क्षणहि मे ध्वस्त कय देलीह। महाराज! आइ त देवीक एक अंश कालिका असगरे समस्त दैत्य सेना आ सेनापति चण्ड ओ मुण्ड केर वध कय देलीह। (दैत्यराजा चण्ड सहित समस्त दरबारी लोकनि छुब्ध होएछ) महाराज! ई देवी सर्वशक्तिमान् आ देवता सभक रक्षा लेल अवतार लेल बुझाएत छथि। ई कोनो साधारण रत्नरूपा नारी नहि थिकीह।
शुम्भः चुप रह! बहुत भेलौक देवीक प्रशंसा। ई रत्नरूपा स्त्री चाहे कोनो शक्ति होएथ, जे शुम्भ आ निशुम्भ समस्त स्वर्गलोक पर राज्य कय रहल अछि, जे अपन शक्ति आ सामर्थ्य सँ तिनू लोकक राज्यक बागडोर अपना हाथ मे लेने अछि तेकरा लग तूँ एक स्त्रीक एतेक महिमामंडन करब बन्द करे। आब आरे या पारे! (क्रोध आ क्षोभ मे भरल सेनापति सँ) हे सेनापति! आइ ‘उदायुध’ नामक छियासी दैत्य-सेनापति अपन सेनाक संग युद्ध लेल प्रस्थान करू। कम्बु नामवाला दैत्यक चौरासी सेनानायक अपन वाहिनी सँ घेराक भीतर यात्रा करय। पचास कोटिवीर्य-कुलक और सौ धौम्र-कुलक असुरसेनापति हमर आज्ञा सँ युद्ध लेल तैयार भऽ हमरहि आज्ञा सँ तुरन्त प्रस्थान करू।
ऋषिः एम्हर देवी पुनः दैत्यक सहस्र सेनाक आगमन होएत देखि अपन धनुष सँ भयानक टंकार निकालैत पृथ्वी आकाश बीच केर भाग केँ गुँजायमान कय देलीह। सिंह सेहो अत्यन्त जोर-जोर सँ दहाड़नाय शुरू कय देलक। अम्बिका द्वारा घण्टाक ध्वनि निकालैत एहि स्वर सब केँ आरो बढा देलीह। धनुषक टंकार, सिंहक दहाड़ आ घण्टाक ध्वनि सँ सम्पूर्ण दिशा गूँजि उठल। ताहि भयंकर शब्द सँ काली अपन विकराल मुख केँ आरो बेसी बढा लेलनि। आर, एहि तरहें ओ विजयिनी भेलीह।
ओहि तुमुल नाद केँ सुनिकय दैत्यक सेना सब चारुकात सँ आबिकय चण्डिका देवी, सिंह तथा कालीदेवी केँ क्रोधपूर्वक घेर लेलक।
राजन! एहि बीच मे असुरक विनाश तथा देवता लोकनिक अभ्युदय लेल ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवक शक्ति – जे अत्यन्त पराक्रम और बल सँ सम्पन्न छल, अपन-अपन शरीर सँ निकैलकय अपनहिं रूप मे चण्डिकादेवीक पास आबि गेलीह। जाहि देवताक जेहेन रूप, जेहेन वेश-भूषा आर जेहेन वाहन छन्हि, ठीक तहिना, साधन सँ सम्पन्न हुनकर शक्ति असुर सब सँ युद्ध करय लेल आबि गेल।
सबसँ पहिने हंसयुक्त विमानपर बैसिकय अक्षसूत्र आ कमण्डलु सँ सुशोभित ब्रह्माजीक शक्ति उपस्थित भेल। हिनकर नाम ब्रह्माणी कहल जाएछ।
महादेवजीक शक्ति वृषभपर आरूढ भऽ हाथ मे श्रेष्ठ त्रिशूल धारण कयने महानागक कङ्कण पहिरने, मस्तक मे चन्द्ररेखा सँ विभूषित भऽ ओतय आबि गेलीह।
कार्तिकेयजीक शक्तिरूपा जगदम्बिका हुनकहि रूप धारण कयने श्रेष्ठ मयूरपर आरूढ भऽ हाथ मे शक्ति लेने दैत्य सँ युद्ध करय लेल आबि गेलीह।
तहिना भगवान् विष्णुक शक्ति गरुड़पर विराजमान भऽ शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष तथा खड्ग हाथ मे लेने ओतय आबि गेलीह।
अनुपम यज्ञ-वाराहक रूप धारण करयवाली जे श्रीहरि केर शक्ति अछि, ओहो वाराह-शरीर धारण कय केँ ओतय उपस्थित भऽ गेलीह।
नारसिंही शक्ति सेहो नृसिंह केर समान शरीर धारण कय केँ आबि गेलीह। हुनकर गर्दनि परका केशक झटकला सँ आकाशक तारा छितरा उठैत छल।
ताहि तरहें इन्द्रक शक्ति वज्र हाथ मे लेने गजराज ऐरावतपर बैसिकय आबि गेलीह। हुनकरो सहस्र नेत्र छल। इन्द्रक जेहेन रूप रहनि, तेहने हिनकरो छलन्हि। तखन एहि देव-शक्ति सँ घेरायल महादेवजी चण्डिकादेवी सँ कहलाह –
“महादेवः हमर प्रसन्नताक लेल अहाँ शीघ्रहि एहि असुर सभक संहार करू।”
(महादेवक आदेश सुनिते देवीक शरीर सँ भयानक आ परम उग्र चण्डिका-शक्ति प्रकट भेलीह)
चण्डिका-शक्तिः (सैकड़ों गीदर जेकाँ आवाज निकालैत भयावह रूप मे दैखाएत, महादेव सँ) – भगवन्! अहाँ शुम्भ-निशुम्भ लग दूत बनिकय जाउ। आर ओहि अत्यन्त घमंडी दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दुनू सँ कहू – ओकरा अलावे सेहो कियो दैत्य युद्ध वास्ते उपस्थित हो ओकरो ई संदेश देल जाउ –
त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥८-२६॥
बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः॥८-२७॥
”ओ दैत्य सब! यदि तूँ सब जीवित रहय चाहैत छँ त पाताल घुरि जो। इन्द्रक त्रिलोकी राज्य भेट जाय आर देवता यज्ञभागक उपभोग करैथ। जँ बलक घमंड मे आबिकय तूँ सब युद्धक अभिलाषा रखैत छँ त आबे। हमर शिवा लोकनि तोरा सभक कच्चे माँस सँ तृप्त हेतीह।”
ऋषिः हे राजन! चूँकि ओ देवी द्वारा भगवान् शिव केँ दूतक कार्य मे नियुक्त कयल गेलन्हि, ताहि सँ ओ “शिवदूती” केर नाम सँ संसार मे विख्यात भेलीह। महादेवक मुंह सँ भगवतीक सन्देश सुनि ओ महादैत्य सब सेहो एकदम क्रोध मे भैर गेल आर जतय कात्यायनी विराजमान छलीह, ताहि दिश बढल। तदनन्तर ओ दैत्य अमर्ष मे भरिकय पहिनहि देवीक ऊपर बाण, शक्ति आर ऋष्टि सभ अस्त्रक वृष्टि करय लागल। तखन देवी सेहो खेलहि-खेल मे धनुषक टंकार कयलीह आर ताहि सँ छूटल बड़का-बड़का बाण द्वारा दैत्यक चलायल बाण, शूल, शक्ति आर फरसा सब केँ काटि देलीह। पुनः काली हुनकर आगाँ भऽ शत्रु सभ केँ शूलक प्रहार सँ विदीर्ण करय लगलीह आर खट्वाङ्ग सँ ओकरा सभक कचूमर निकालैत रणभूमि मे विचरय लगलीह। ब्रह्माणी सेहो जाहि-जाहि दिशि दैड़थि, ताहि-ताहि दिशि अपन कमण्डलुक जल छींटकय शत्रु सभक ओज आ पराक्रम केँ नष्ट कय दैत छलीह। माहेश्वरी द्वारा त्रिशूल सँ तथा वैष्णवी द्वारा चक्र सँ आर अत्यन्त क्रोध मे भरल कुमार कार्तिकेय केर शक्ति द्वारा अपन शक्ति सँ दैत्य सभ केँ संहार आरम्भ कयलीह। इन्द्रशक्तिक वज्रप्रहार सँ विदीर्ण सैकड़ों दैत्य-दानव रक्तक धारा बहैत पृथ्वीपर सुति गेल। वाराही शक्ति सेहो कतेको केँ अपन थूथुनक मारि सँ नष्ट कयलीह, दाढक अग्रभाग सँ कतेको दैत्यक छाती केँ छेद देलीह तथा कतेको दैत्य हुनकर चक्रक चोट सँ विदीर्ण भऽ खैस पड़ल। नारसिंही सेहो दोसर-दोसर महादैत्य केँ अपन नह सँ विदीर्ण कय केँ खा लैथ आर सिंहनाद सँ सब दिशा व आकाश केँ गुंजायमान बनबैत युद्ध-क्षेत्र मे विचरन करय लगलीह। कतेको असुर शिवदूतीक प्रचण्ड अट्टहास सँ अत्यन्त भयभीत भऽ पृथ्वीपर खैस पड़ल आर खसलापर ओकरा सब केँ शिवदूती अपन ग्रास बना लेलीह।
आर एहि तरहें क्रोध मे भरल मातृगण सब केँ नाना प्रकारक उपाय सब सँ बड़का-बड़का असुरक मर्दन करैत देखि दैत्यसैनिक सब भागल ओतय सँ। मातृगण सँ पीड़ित दैत्य सब केँ युद्ध सँ भागैत देखि रक्तबीज नामक महादैत्य क्रोध मे भरल युद्ध करबाक लेल सोझाँ आयल। ओकर शरीर सँ जखन रक्तक बूँद पृथ्वीपर खसैत छलैक, तखन ओकरे समान शक्तिशाली एक दोसर महादैत्य पृथ्वीपर पैदा भऽ जाएक।
महासुर रक्तबीज हाथ मे गदा लेने इन्द्रशक्तिक संग युद्ध करय लागल। तखन ऐन्द्री अपन वज्र सँ रक्तबीज केँ मारलीह। वज्र सँ घायल भेला पर ओकर शरीर सँ बहुते रास रक्त चूबय लागल आर ताहि सँ ओकरे समान रूप आ पराक्रमवाला योद्धा उत्पन्न होबय लागल। ओकरा शरीर सँ रक्तक जतेक बूँद खसल, ओतबे पुरुष उत्पन्न भऽ गेल। ओ सब रक्तबीज केर समान वीर्यवान्, बलवान् आ पराक्रमी रहय। ओहो रक्त सँ उत्पन्न पुरुष सब अत्यन्त भयंकर अस्त्र-शस्त्र केर प्रहार करैत ओतय मातृगण सब सँ युद्ध करय लागल। पुनः वज्रक प्रयार सँ जखन ओकर मस्तक घायल भेल, तऽ रक्त बहय लागल आर ताहू सँ हजारों पुरुष उत्पन्न भऽ गेल। वैष्णवी द्वारा युद्ध मे रक्तबीज पर चक्रक प्रहार कयल गेल, ऐन्द्री ओहि दैत्यसेनापति केँ गदा सँ चोट मारलीह।
वैष्णवीक चक्र सँ घायल भेला पर ओकर शरीर सँ जे रक्त बहल आर ताहि सँ फेर ओकरे बराबर आकारवाला सहस्रों महादैत्य प्रकट भेल, ओकरा सब सँ सौंसे संसार भैर गेल। कौमारी द्वारा शक्ति सँ, वाराही द्वारा खड्ग सँ, माहेश्वरी द्वारा त्रिशूल सँ महादैत्य रक्तबीज केँ घायल कयल गेल – क्रोध मे भरल ओ महादैत्य रक्तबीज सेहो अपन गदा सँ सब मातृ-शक्ति सब पर पृथक्-पृथक् प्रहार कयल गेल। शक्ति आ शूल आदि सँ अनेको बेर घायल भेलापर जे ओकरा शरीर सँ रक्तक धारा पृथ्वी पर पड़ैत छल, ताहि सँ सेहो निश्चिते सैकड़ों असुर उत्पन्न भेल। एहि तरहें ओहि महादैत्यक रक्त सँ प्रकट भेल असुर सब द्वारा सौंसे संसार भैर गेल। एहि तरहें देवता सब बहुत भयभीत भऽ गेलाह। देवता सब केँ एना उदास देखि चण्डिका देवी काली सँ शीघ्रतापूर्वक कहलीह –
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु॥
मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दुन्महासुरान्।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना॥
भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥
भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे।
इत्युक्त्वां तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम्॥८-५६॥
चण्डिकाः चामुण्डे! अहाँ अपन मुख आरो विस्तार करू तथा हमर शस्त्रपात सँ खसैत रक्तबिन्दु सब केँ आर ताहि उत्पन्न भेनिहार महादैत्य सब केँ अहाँ अपन एहि उताहुल मुंह सँ खा जाउ। एहि तरहें रक्त सँ उत्पन्न भेनिहार महादैत्य सब केँ भक्षण करैत अहाँ रणभूमि मे विचरन करैत रहू। एना केला सँ ओहि दैत्यक समस्त रक्त क्षीण भऽ गेलाक बादे ओ अपने आप नष्ट भऽ जायत। जखन एहि भयंकर दैत्य सब केँ अहाँ खा जयब, तखन दोसर नव दैत्य उत्पन्न नहिं भऽ सकत।
ऋषिः काली सँ एतेक कहैत चण्डिका देवी रक्तबीज ऊपर शूल केर प्रहार करैत छथि और काली ओहि प्रहारक कारण रक्तबीजक शरीर सँ निकैल रहल खून केँ अपना मुंह मे लय लैत छथि। एहि बीच रक्तबीज चण्डिका देवी पर गदा सँ प्रहार करैत अछि, मुदा ताहि सँ हुनका कनिको वेदना नहि होएत छन्हि। रक्तबीजक घायल शरीर सँ निरन्तर खूनक स्राव होएत रहल आर जहिना ओ खसय कि चामुण्डा देवी ओकरा अपना मुंह मे लय लैत छलीह। एहि प्रकारें ओहि गिरैत रक्त केँ मुंह मे लेला सँ कालीक मुंह मे जे महादैत्य सब उत्पन्न भेल, ओकरो सब कँ ओ चट कय गेलीह आर रक्तबीजक रक्त सेहो पीबि गेलीह। एहि तरहें देवी द्वारा रक्तबीज केँ, जेकर रक्त चामुण्डा पीबि गेल छलीह, वज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि आदि सँ मारि देलीह।
राजन्! एहि तरहें शस्त्रक समुदाय सँ आहत एवं रक्तहीन भेल महादैत्य रक्तबीज पृथ्वीपर खैड पड़ल। नरेश्वर! एहि सँ देवता लोकनि केँ अनुपम हर्षक प्राप्ति भेलन्हि। आर, मातृगण ओहि असुरक रक्तपान केर मद सँ उद्धत-सन होएत नृत्य करय लगलीह।
(दृश्य पटाक्षेप)
दृश्यः छठम्
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि॥
हम अर्धनारीश्वरक श्रीविग्रहक निरन्तर शरण लैत छी। एकर वर्णन बन्धूकपुष्प आर सुवर्णक समान रक्तपीतमिश्रित अछि। ओ अपन भुजा (हाथ सब) मे सुन्दर अक्षमाला, पाश, अङ्कुश आर वरद-मुद्रा धारण करैत छथि, अर्धचन्द्र हुनक आभूषण थिकन्हि तथा ओ तीन नेत्र सँ सुशोभित छथि।
राजाः (ऋषि सँ) भगवन्! अपने रक्तबीज केर वध सँ सम्बन्ध राखनिहारि देवी-चरित्रक ई अद्भुत माहात्म्य हमरा बतेलहुँ। आब रक्तबीज केर मारल गेला पर अत्यन्त क्रोध मे भरल शुम्भ आर निशुम्भ कि केलक से कर्म केर विषय मे हम सुनय चाहैत छी।
ऋषिः राजन्! युद्ध मे रक्तबीज तथा अन्य दैत्यक मारल गेला पर शुम्भ आ निशुम्भक क्रोध केर सीमा नहि रहल। अपन विशाल सेना केँ एहि तरहें मारल जाएत देखि निशुम्भ अमर्ष मे भरल देवीक तरफ दौड़ि पड़ल। ओकरा संग असुरक प्रधान सेना छलैक। ओकरा आगू, पाछू तथा पार्श्वभाग मे बड़का-बड़का असुर छल, जे तामश सँ अपन ठोर चिबबैत देवी केँ मारि देबाक लेल आयल। महापराक्रमी शुम्भ सेहो अपन सेनाक संग मातृगण सब सँ युद्ध कय केँ क्रोध सँ भरल चण्डिका देवी केँ मारबाक लेल आबि गेल। देवीक संग शुम्भ आर निशुम्भक घोर संग्राम आरम्भ भऽ गेल। ओ दुनू दैत्य मेघक भाँति बाणक भयंकर वृष्टि कय रहल छल। ओकर दुनूक चलायल बाण केँ चण्डिका अपन बाणक समूह सँ तुरंत काटि दैथ आर शस्त्रसमूहक वर्षा कय केँ ओहि दुनू दैत्यपति केर अङ्ग केँ चोट पहुँचाबैथ। निशुम्भ तेज तलवार आ चमकैत ढाल लैत देवीक श्रेष्ठ वाहन सिंह केर मस्तक पर प्रहार केलक। अपन वाहन केँ चोट पहुँचल देखि देवी द्वारा क्षुरप नामक बाण सँ निशुम्भक श्रेष्ठ तलवार तुरंत काटि देल गेल आर ओकर ढाल जाहि मे आठ गोट चाँद जड़ल छल तेकरा सेहो खण्ड-खण्ड कय देल गेल। ढाल आ तलवार कटि गेला पर ओ असुर अपन शक्ति चलौलक, मुदा देवीक सोझाँ एलापर ओकरो देवी अपन चक्र सँ दुइ खण्ड कय देल गेल।
आब त निशुम्भ क्रोध जरैत देवी केँ मारबाक लेल शूल उठा लेने छल, मुदा देवीक नजदीक एलापर ओकरो देवी अपन मुक्का सँ मारिकय चूर्ण कय देलीह। तखन ओ गदा घुमाकय चण्डीक ऊपर चलेलक, मुदा ओहो देवीक त्रिशूल सँ कटिकय भस्म भऽ गेल। तदनन्तर दैत्यराज निशुम्भ केँ फरसा हाथ मे लैत अबैत देखि देवी द्वारा बाणसमूह सँ ओकरा घायल कय धरतीपर खसा देल गेल। ओहि भयंकर पराक्रमी भाइ निशुम्भ केँ धराशायी भऽ गेलापर शुम्भ केँ बड़ा क्रोध भेलैक आर अम्बिकाक वध करबाक लेल ओहो आगू बढल। रथपर बैसल-बैसल ओ उत्तम आयुध सब सँ सुशोभित अपन बड़का-बड़का आठ अनुपम भुजा सँ समूचा आकाश केँ झाँपिकय ओ अद्भुत शोभा पाबय लागल। ओकरा अबैत देखि देवी द्वारा शङ्ख बजायल गेल आर धनुषक प्रत्यञ्चाक सेहो अद्भुत दुस्सह शब्द निकालल गेल। संगहि अपन घण्टाक शब्द जे समस्त दैत्य-सैनिक सभक तेज केँ नाश करयवला छल ताहि सँ सम्पूर्ण दिशा केँ भरि देल गेल। तदनन्तर सिंह सेहो अपन दहाड़ जेकरा सुनिकय बड़-बड़ गजराज सभक महान् मद दूर भऽ जाएत छल ताहि सँ आकाश, पृथ्वी आर दसो दिशा केँ गुंजायमान कय देल गेल। फेर काली द्वारा आकाश मे कूदिकय अपन दुनू हाथ सँ पृथ्वीपर आघात केला सँ एहेन भयंकर शब्द निकलल जाहि सँ पहिलुक सब शब्द शान्त भऽ गेलैक।
तत्पश्चार, शिवदूती सेहो दैत्यक लेल अमङ्गलजनक अट्टहास कयलीह जाहि शब्द केँ सुनिकय समस्त असुर थर्रा उठल, मुदा शुम्भ केँ बहुत क्रोध भेलैक। ओहि समय देवी द्वारा जखन शुम्भ केँ लक्ष्य कय केँ कहल गेल ‘ओ दुरात्मन! ठाढ रह, ठाढ रह!’ तखन आकाश मे ठाढ भेल देवता सब सेहो बाजि उठला – “जय हो, जय हो”। शुम्भ ओतय आबिकय ज्वाला सँ युक्त अत्यन्त भयानक शक्ति चलेलक। अग्निमय पर्वतक समान अबैत ओहि शक्ति केँ देवी बड़ा भारी लूका सँ दूर हँटा देलीह। ओहि समय शुम्भक सिंहनाद सँ तिनू लोक गूँजि उठल। राजन! ओकर प्रतिध्वनि सँ वज्रपातक समान भयानक शब्द भेलैक, जाहि सँ अन्य सब शब्द केँ जीत लेलक। शुम्भक चलायल बाण केँ देवी आ देवी द्वारा चलायल बाण केँ शुम्भ द्वारा सैकड़ों और हजारों टुकड़ा कय देल गेल। तखन क्रोध मे भरल चण्डिका द्वारा शुम्भ केँ शूल सँ मारलीह। ओकर आघात सँ मुर्च्छित ओ पृथ्वी पर खैस पड़ल।
एतबा मे निशुम्भ केँ होश आबि गेलैक आर ओ धनुष हाथ मे लय बाण सँ देवी, काली तथा सिंह केँ घायल कय देलक। फेर ओहि दैत्यराज द्वारा दस हजार बाँहि बनाकय चक्रक प्रहार सँ चण्डिका केँ आच्छादित कय देलक। तखन दुर्गम पीड़ा केँ नाश करयवाली भगवती दुर्गा कुपित भऽ अपन बाण सँ ओहि चक्र तथा बाण सब केँ काटि गिरेली। ई देखि निशुम्भ दैत्यसेनाक संग चण्डिकाक वध करबाक लेल हाथ मे गदा लेने बड़ा वेग सँ दौड़ल। ओकरा अबिते देरी चण्डी एकदम तीख धारवाली तलवार सँ ओकर गदा केँ तुरन्ते काटि देली। तखन ओ शूल हाथ मे लय लेलक। देवता सभ केँ पीड़ा देनिहार निशुम्भ केँ शूल हाथ मे लेने अबैत देखि चण्डिका द्वारा वेग सँ चलायल गेल अपन शूल सँ ओकर छाती छेद देली। शूल सँ विदीर्ण भऽ गेलापर ओकर छाती सँ एक दोसर महाबली-महापराक्रमी पुरुष “ठाढ रह, ठाढ रह’ कहैत बाहर निकलल। ओहि निकलैत पुरुषक बात सुनिकय देवी ठठाकय हँसय लगलीह आर खड्ग सँ ओ ओकरो मस्तक काटि देलीह। फेर त ओहो पृथ्वीपर खैस पड़ल।
तदनन्तर सिंह अपन दाढ सँ असुरक गर्दन कुचैलकय खाय लागल, ई दृश्य बहुत भयंकर छल। ओम्हर काली तथा शिवदूती द्वारा सेहो अन्यान्य दैत्य सभक भक्षण आरम्भ कयल गेल। कौमारीक शक्ति सँ विदीर्ण भऽ कतेको महादैत्य नष्ट भऽ गेल। ब्रह्माणीक मंत्रपूत जल सँ निस्तेज होएत कतेको भागि गेल। कतेको दैत्य माहेश्वरीक त्रिशूल सँ छिन्न-भिन्न भऽ धराशायी भऽ गेल। वाराहीक थूथुनक आघात सँ कतेकोक पृथ्वीपर कचूमर निकैल गेल। वैष्णवी द्वारा सेहो अपन चक्र सँ दानव सभक टुकड़ा-टुकड़ा कय देल गेल। ऐन्द्रीक हाथ सँ छूटल वज्र सँ सेहो कतेकोक प्राण उड़ि गेल। किछु असुर नष्ट भऽ गेल, किछु ओहि महायुद्ध सँ भागि गेल तथा कतेको रास काली, शिवदूती तथा सिंहक ग्रास बनि गेल।
(दृश्य चण्डिका देवी सहित समस्त देवता लोकनि अपन शक्तिक रूप मे देवी संग असुर संग्राम मे, पूर्व मे निशुम्भ सनक पराक्रमी दैत्यराजक मृत्यु, विभिन्न शक्ति द्वारा अलग-अलग अनेकों महादैत्यक वध, आइ शुम्भक वध होयत)
ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-
नेत्रां धनुश्शरयुताङ्कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्च दधतीं शिवशक्तिरूपां
कामेश्वरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥
ऋषिः राजन्! अपन प्राणक समान प्यारा भाइ निशुम्भ केँ मारल गेल देखि, संगहि समस्त सेनाक संहार होएत जानि शुम्भ कुपित होएत भगवती सँ कि कहैछ से देखू –
शुम्भः दुष्ट दुर्गे! तूँ बलक अभिमान मे आबि झूठ-मूठ घमंड जुनि देखा। तूँ बहुत मानिनी बनल छँ, मुदा दोसर स्त्री सभक सहारा लय केँ लड़ैत छँ।
देवीः ओ दुष्ट! हम अकेले टा छी। एहि संसार मे हमरा सिवा दोसर के अछि। देख, ई सब हमरे विभूति सब छथि तैँ हमरहि मे प्रवेश कय रहली अछि।
(देवीक एतेक बजिते सब शक्ति ब्रह्माणी, ऐन्द्री, माहेश्वरी आदि अम्बिका देवीक शरीर मे लीन भऽ गेलीह। आब मात्र अम्बिका देवी टा बचलीह।)
देवीः हम अपन ऐश्वर्यशक्ति सँ अनेक रूप मे एतय उपस्थित भेल छलहुँ। ओहि सब रूप केँ हम समेट लेलहुँ। आब असगरे टा युद्ध मे ठाढ छी। तहुँ स्थिर भऽ ज जो।
ऋषिः तदनन्तर देवी आर शुम्भ दुनू मे सब देवता तथा दानव केर देखिते-देखिते भयंकर युद्ध शुरू भऽ गेल। बाणक वर्षा तथा तीख शस्त्र एवं दारुण अस्त्रक प्रहारक कारण ओहि दुनूक युद्ध सब लोकक लेल बड़ा भयानक प्रतीत भेल। ओहि समय अम्बिका देवी जे सैकड़ों दिव्य अस्त्र छोड़लीह, तेकरा दैत्यराज शुम्भ द्वारा ओकर निवारक अस्त्र सब सँ काटि देलक। तहिना शुम्भ द्वारा चलायल गेल दिव्य अस्त्र सब केँ देवी सिर्फ अपन हुंकारक शब्द सँ खेलहि-खेल मे नष्ट कय देलीह। तखन ओ असुर देवी केँ सैकड़ों बाण सँ आच्छादित कय देलकनि। से देखि क्रोध मे भरल देवी सेहो अपन बाण मारिकय ओकर धनुषे केँ काटि देलीह। धनुष कटि गेलापर दैत्यराज शक्ति हाथ मे लेलक, किंतु देवी द्वारा चक्र सँ ओहि हाथ मे लेल शक्ति केँ सेहो काटि देल गेल। तेकरा बाद दैत्यक स्वामी शुम्भ द्वारा सौ चाँदक चमक सँ भरल ढाल आ तलवार हाथ मे लैत ओहि देवी पर धावा कयल गेल। ओकरा अबिते चण्डिका अपन धनुष सँ छोड़ल गेल तीख बाण द्वारा सूर्यकिरणक समान उज्ज्वल ढाल आ तलवार केँ तुरंत काटि देल गेल। फेर ओ दैत्यक घोड़ा आ सारथि सेहो मारल गेल, धनुष त पहिनहि कटि गेल छलय।
आब ओ अम्बिका केँ मारबाक लेल भयंकर मुद्गर हाथ मे लेलक। फेर ओकरा अबैत देखि देवी अपन तीक्ष्ण बाण सँ ओकर मुद्गर केँ सेहो काटि देलनि। तैयो ओ असुर मुक्का तानिकय बड़ा वेग सँ देवीक तरफ झपटलक। ओ दैत्यराज देवीक छाती मे मुक्का मारलक, तखन देवी द्वारा ओकर छाती एक चाट मारलनि आ से चाट खाएत देरी शुम्भ जमीन पर खैस पड़ल, मुदा फेरो उठिकय ठाढ भऽ गेल। फेर ओ उछैलकय देवी केँ लेने-देने ऊपर उड़ि आकाश मे ठाढ भऽ गेल। तखन चण्डिका आकाश मे बिना कोनो आधार के शुम्भ संग युद्ध करय लगलीह। ओहि समय दैत्य आर चण्डिका आकाशमे एक-दोसरा सँ लड़य लगलीह। हुनकर ई युद्ध पहिने सिद्ध आ मुनि सब केँ विस्मय करयवला भेल, फेर अम्बिका शुम्भक संग बहुत समय धरि युद्ध कयला पश्चात् ओकरा उठाकय घुमेली आ पृथ्वीपर पटैक देली। पटकल गेला पर पृथ्वी पर एलापर ओ दुष्टात्मा दैत्य फेरो चण्डिकादेवीक वध करबाक लेल हुनका दिशि वेग सँ दौड़ि पड़ल। तखन समस्त दैत्यक राजा शुम्भ केँ अपन दिशि अबैत देखि देवी द्वारा त्रिशूल सँ ओकर छाती छेदिकय ओकरा पृथ्वीपर खसा देल गेल। देवीक शूलक धार सँ घायल भेलापर ओकर प्राण-पखेरू उड़ि गेल आर ओ समुद्र, द्वीप तथा पर्वतसहित समूचा पृथ्वी केँ कँपन करैत जमीन पर खैस पड़ल।
तदनन्तर ओहि दुरात्माक मारल गेलापर सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न आ पूर्ण स्वस्थ भऽ गेल, आकाश स्वच्छ देखाय लागल। पहिने जे उत्पतासूचक उल्कापात होएत छल, से सब शान्त भऽ गेल। ओहि दैत्यक मारल गेलापर नदी सब सेहो सही मार्ग सँ बहय लागल। ओहि समय शुम्भक मृत्युक बाद सम्पूर्ण देवता लोकनिक हृदय हर्ष सँ भैर गेलनि आर गन्धर्वगण मधुर गीत गान करय लगलाह। दोसर गन्धर्व सब बाजा बजबय लगलाह आर अप्सरा लोकनि नाचय लगलीह। पवित्र वायू बहय लागल। सूर्यक प्रभा उत्तम भऽ गेल। अग्निशालाक मिझायल आगि अपने-आप प्रज्वलित भऽ उठल तथा सम्पूर्ण दिशा सब मे भयंकर शब्द सब सेहो शान्त भऽ गेल।
(दृश्य पटाक्षेप)
(ऐगला दृश्य मे प्रसन्न देवता लोकनि भगवतीक विशेष स्तुति गान करता)
दृश्यः सातम
(युद्धक मैदान मे चण्डिका देवी द्वारा शुम्भ नाम्ना अत्यन्त भयानक दैत्यराज जे मुख्य असुर देवता सभक राज्य पर्यन्त छीन लेने रहय तेकरा वध केला उपरान्त चारूकात प्रसन्नताक अनुभूति भऽ रहल अछि आर देवता सब प्रसन्न भऽ देवीक स्तुति कय रहला अछि…)
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥
हम भुवनेश्वरी देवीक ध्यान करैत छी। हुनक श्रीअङ्गक आभा प्रभातकालक सूर्य केर समान अछि आर मस्तकपर चन्द्रमाक मुकुट छन्हि। भगवती सीना तनल आ तीन नेत्र सँ युक्त छथि। हुनक मुखपर मुसकानक छटा पसरल रहैत अछि आर हाथ मे वरद, अङ्कुश, पाश व अभय-मुद्रा शोभा पबैत अछि।
ऋषिः राजन्! देवीक द्वारा ओ महादैत्यपति शुम्भ केर मारल गेला पर इन्द्र आदि देवता अग्नि केँ आगू कय केँ ओहि कात्यायनी देवीक स्तुति करय लगलाह। ओहि समय अभीष्टक प्राप्ति भेला सँ हुनका लोकनिक मुखकमल दमैक उठल छल आर ताहि दमक सँ उत्पन्न प्रकाश सँ समस्त दिशा सब सेहो जगमगा उठल छल। देवता लोकनि बजलाह –
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥११-३॥
शरणागतक पीड़ा केँ दूर करयवाली देवि! हमरा सब पर प्रसन्न होउ। सम्पूर्ण जगत् केर माता! प्रसन्न होउ। विश्वेश्वरी! विश्व केर रक्षा करू। देवि! अहीं चराचर जगत् केर अधीश्वरी छी।
आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये॥११-४॥
अहाँ टा एहि जगत् केर एकमात्र आधार छी; कियैक तँ पृथ्वीरूप मे अहींक स्थिति अछि। देवि! अहाँक प्राक्रम अलङ्घनीय अछि। अहीं जलरूप मे स्थित भऽ सम्पूर्ण जगत् केँ तृप्त करैत छी।
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥११-५॥
अहाँ अनन्त बलसम्पन्न वैष्णवी शक्ति छी। एहि विश्व केर कारणभूता परा माया छी। देवि! अहीं एहि समस्त जगत् केँ मोहित कय रखने छी। अहीं प्रसन्न भेला पर एहि पृथ्वी पर मोक्ष केर प्राप्ति करबैत छी।
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥११-६॥
देवि! सम्पूर्ण विद्या अहींक भिन्न-भिन्न स्वरूप थिक। जगत् मे जतेक स्त्री अछि, ओ सब अहींक मात्र मूर्ति सब थिक। जगदम्ब! एकमात्र अहीं टा एहि विश्व केँ व्याप्त कय रखने छी। अहाँक स्तुति कि भऽ सकैत अछि? अहाँ त स्तवन करय योग्य पदार्थ सब सँ परे आ परा वाणी छी।
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥११-७॥
जखन अहाँ सर्वस्वरूपा देवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनिहारि छी, तखन एहि रूप मे अहाँ स्तुति भऽ गेल। अहाँक स्तुतिक लेल एहि नीक उक्ति आर कि भऽ सकैत छैक?
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-८॥
बुद्धिरूप सँ सभक हृदय मे विराजमान रहनिहारि तथा स्वर्ग व मोक्ष प्रदान कयनिहारि नारायनी देवी! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनी।
विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-९॥
कला, काष्ठा आदिक रूप सँ क्रमशः परिणाम (अवस्था परिवर्तन) दिशि लऽ गेनिहारि तथा विश्व केर उपसंहार करय मे समर्थ नारायणी! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
सर्वमङ्गमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१०॥
नारायणी! अहाँ सब प्रकारक मङ्गल प्रदान करयवाली मङ्गलमयी थिकहुँ। कल्याणदायिनी शिवा थिकहुँ। सब पुरुषार्थ केँ सिद्ध करयवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रवाली आर गौरी थिकहुँ। अहाँ केँ नमस्कार अछि।
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-११॥
अहाँ सृष्टि, पालन आर संहारक शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुणक आधार तथा सर्वगुणमयी छी। नारायणी! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१२॥
शरण मे आयल दीन व पीड़ित केर रक्षा मे संलग्न रहयवाली तथा सभक पीड़ा दूर करयवाली नारायणी देवी! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१३॥
नारायणि! अहाँ ब्रह्माणीक रूप धारण कयकेँ हंस सँ जोतल गेल विमान पर बैसैत तथा कुश-मिश्रित जल छिड़कैत रहैत छी। अहाँ केँ नमस्कार अछि।
त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि।
माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१४॥
माहेश्वरीरूप सँ त्रिशूल, चन्द्रमा आ सर्प केँ धारण करयवाली तथा महान् वृषभ केर पीठ पर बैसयवाली नारायणी देवी! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१५॥
मोर आ मुर्गा सँ घेरायल रहयवाली तथा महाशक्ति धारण करयवाली कौमारीरूपधारिणी निष्पापे नारायणि! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधे।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१६॥
शङ्ख, चक्र, गदा आर शार्ङ्गधनुषरूप उत्तम आयुध सब धारण करयवाली वैष्णवी शक्तिरूपा नारायणि! अहाँ प्रसन्न होउ। अहाँ केँ नमस्कार अछि।
गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१७॥
हाथ मे भयानक महाचक्र लेने आर दाढपर धरती केँ उठेने वाराहीरूपधारिणी कल्याणमयी नारायणि! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१८॥
भयंकर नृसिंहरूप सँ दैत्य केँ वध करबाक उद्योग करयवाली तथा त्रिभुवन केर रक्षा मे संलग्न रहयवाली नारायणि! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-१९॥
मस्तक पर किरीट आ हाथ मे महावज्र धारण करयवाली, सहस्र नेत्र केर कारण उद्दीप्त देखाय दयवाली आर वृत्रासुरक प्राण केँ अपहरण करयवाली इन्द्रशक्तिरूपा नारायणी देवी! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-२०॥
शिवदूतीरूप सँ दैत्य सभक महती सेनाक संहार करयवाली, भयंकर रूप धारण तथा विकट गर्जना करयवाली नारायणि! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-२१॥
दाढक कारण विकराल मुखवाली मुण्डमाला सँ विभूषित मुण्डमर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणि! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-२२॥
लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा, महारात्रि तथा महाअविद्यारूपा नारायणि! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते॥११-२३॥
मेधा, सरस्वती, वरा (श्रेष्ठा), भूति (ऐश्वर्यरूपा), बाभ्रवी (भूरा रंगक अथवा पार्वती), तामसी (महाकाली), नियता (संयमपरायणा) तथा ईशा (सभक अधीश्वरी) रूपिणी नारायणि! अहाँ केँ नमस्कार अछि।
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यास्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥११-२४॥
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकारक शक्ति सँ सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भय सँ हमर रक्षा करू; अहाँ केँ नमस्कार अछि।
एतते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥११-२५॥
कात्यायनी! एहि तीन लोचन सँ विभूषित अहाँक सौम्य मुख सब तरहक भय सँ हमर रक्षा करू। अहाँ केँ नमस्कार अछि।
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥११-२६॥
भद्रकाली! ज्वाला केर कारण विकराल प्रतीत होयवाला, अत्यन्त भयंकर आ समस्त असुर केँ संहार करयवाला अहाँक त्रिशूल भय सँ हमरा बचाबय। अहाँ केँ नमस्कार अछि।
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव॥११-२७॥
असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः।
शुभाय खड्हो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम्॥११-२८॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥११-२९॥
एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम्।
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या॥११-३०॥
विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-
ष्वाद्देषु वाक्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्॥११-३१॥
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥११-३२॥
विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः॥११-३३॥
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥११-३४॥
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव॥११-३५॥
देवि! जे अपन ध्वनि सँ सम्पूर्ण जगत् केँ व्याप्त कयकेँ दैत्यक तेज केँ नष्ट कय दैथ, ओ अहाँ घण्टा हमरा लोकनिक पाप सँ ओहिना रक्षा करय, जेना माता अपन पुत्रक बदतर कर्म सँ रक्षा करैथ छथि।
चण्डिके! अहाँ हाथ सुशोभित खड्ग, जे असुरक रक्त आर चर्बी सँ चर्चित अछि, हमर मङ्गल करैथ। हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी।
देवि! अहाँ प्रसन्न भेलापर सब रोग केँ नष्ट कय दैत छियैक आर कुपित भेलापर मनोवाञ्छित सब कामना आदि केँ नाश कय दैत छियैक। जे लोक अहाँक शरण मे आबि चुकल अछि, ओकरा पर तँ विपत्ति एब्बे नहि करैत अछि। अहाँक शरण मे आयल मनुष्य तँ दोसर केँ शरण देबयवला भऽ जाएत अछि।
देवि! अम्बिके!! अहाँ अपन स्वरूप केँ अनेक भाग मे विभक्त कय केँ नाना प्रकारक रूप सब सँ जे एहि समय एहि धर्मद्रोही महादैत्य सभक संहार कयलहुँ अछि, ई सब दोसर के कय सकैत छल?
विद्या मे, ज्ञान केँ प्रकाशित करयवाला शास्त्र तथा आदिवाक्य (वेद) मे अहाँक सिवा आर केकर वर्णन छैक? तथा अहाँ केँ छोड़िकय दोसर कोन एहेन शक्ति अछि, जे एहि विश्वक अज्ञानमय घोर अन्धकार सँ परिपूर्ण ममतारूपी गढ मे निरन्तर भटैक रहल हो! जतय राक्षस, जतय भयंकर विषवाला सर्प, जतय शत्रु, जतय लुटेरा सभक सेना आर जतय दावानल हो, ओतय तथा समुद्रक बीच मे सेहो संग रहिकय अहाँ विश्वक रक्षा करैत छी। विश्वेश्वरि! अहाँ विश्वक पालन करैत छी। विश्वरूपा थिकहुँ, तैँ सम्पूर्ण विश्व केँ धारण करैत छी। अहाँ भगवान् विश्वनाथ केँ सेहो वन्दनीया थिकहुँ। जे लोक भक्तिपूर्वक अहाँ सोझाँ मस्तक झुकबैत अछि, ओ सम्पूर्ण विश्व केँ आश्रय देबयवला बनैत अछि।
देवि! प्रसन्न होउ! जेना एहि समय असुर सब केँ वध कय केँ अहाँ तुरन्त हमरा सभक रक्षा कयलहुँ अछि, तहिना सदिखन हमरा सब केँ शत्रु सब सँ बचाउ। सम्पूर्ण जगत् केर पाप नष्ट कय देल जाउ आर उत्पात एवं पापक फलस्वरूप प्रापत होयवला महामारी आदि बड़का-बड़का उपद्रव केँ शीघ्र दूर करू।
विश्वक पीड़ा दूर करयवाली देवि! हम सब अहाँक चरण पर खसल छी, हमरा सब पर प्रसन्न होउ। त्रिलोकनिवासीक पूजनीया परमेश्वरि! सब केँ वरदान देल जाउ!
देवीः (देवता सभक विनीत स्तुति सुनि अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा मे कहैत छथि) –
वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥११-३७॥
देवता लोकनि! हम वर देबाक लेल तैयार छी। अहाँ सभक मन मे जेहेन इच्छा हो, ओ वर माँगू। संसारक लेल ओहि उपकारक वर केँ हम अवश्य देब।
देवताः (सब एक स्वर मे) –
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥११-३९॥
सर्वेश्वरि! अहाँ एहि तरहें तिनू लोकक समस्त बाधा केँ शान्त करू आ हमरा लोकनिक शत्रु सभक नाश करैत रहू।
देवीः (प्रसन्नता सँ वर प्रदान करैत)
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥११-४०॥
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥११-४१॥
(देवी द्वारा दैत्यराज शुम्भ सहित अन्य दैत्य सेना आदिक वध कयलाक बाद देवता द्वारा स्तुति सँ प्रसन्न भऽ देवी द्वारा वर प्रदान करैत)
देवीः देवता लोकनि! वैवस्वत मन्वन्तर केर अट्ठाइसम युग मे शुम्भ आ निशुम्भ नामक दुइ अन्य महादैत्य उत्पन्न होयत। तखन हम नन्दगोप केर घर मे हुनक पत्नी यशोदाक गर्भ सँ अवतीर्ण भऽ विन्ध्याचल मे जा कय रहब, आर, उक्त दुनू असुर केर नाश करब। पुनः अत्यन्त भयंकर रूप सँ पृथ्वी पर अवतार लय हम वैप्रचित्त नामक दानव केर वध करब। ओहि भयंकर महादैत्यक भक्षण करैत समय हमर दाँत अनारक फूल जेकाँ लाल भऽ जायत। तखन स्वर्ग मे देवता आ मर्त्यलोक मे मनुष्य सदा हमर स्तुति करैत हमरा ‘रक्तदन्तिका’ कहत। फेर जखन पृथ्वीपर सौ वर्षक लेल वर्षा रुकि जायत आर पानिक अभाव भऽ जायत, ताहि समय हम मुनि लोकनिक स्तवन केला उत्तर पृथ्वीपर ‘अयोनिजा’ केर रूप मे प्रकट होयब आर सौ नेत्र सँ मुनि लोकनि केँ देखब – एहि तरहें मनुष्य ‘शताक्षी’ केर नाम सँ हमर कीर्तन करत।
देवता लोकनि! ओहि समय हम अपन शरीर सँ उत्पन्न शाक द्वारा समस्त संसारक भरण-पोषण करब। जाबत धरि वर्षा नहि होयत, ताबत धरि ओ शाक टा सभक प्राणक रक्षा करत। एहि कारण पृथ्वीपर हमरा ‘शाकम्भरी’ नाम सँ ख्याति भेटत। ओही अवतार मे हम दुर्गम नामक महादैत्य केर वध सेहो करब। ताहि सँ हमर नाम ‘दुर्गादेवी’ केर रूप मे प्रसिद्ध होयत। फेर हम जखन भीमरूप धारण कय केँ मुनि लोकनिक रक्षा करक लेल हिमालयपर रहयवला राक्षसक भक्षण करब, ताहि समय सब मुनि भक्ति सँ नतमस्तक भऽ कय हमर स्तुति करता। तखन हमर नाम ‘भीमादेवी’क रूप मे विख्यात होयत। जखन अरुण नामक दैत्य तिनू लोक मे भारी उपद्रव मचायत, तखन हम तिनू लोक केर हित करबाक लेल छः पैरवला असंख्य भ्रमरक रूप धारण कय केँ ओहि महादैत्यक वध करब, ताहि समय लोक ‘भ्रामरी’ केर नाम चारू दिस हमर स्तुति करत।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ॐ॥
एहि तरहें – जखन-जखन संसार मे दानवी बाधा उत्पन्न होयत, तखन-तखन अवतार लैत हम शत्रु सभक संहार करब।
(देवी द्वारा देवता लोकनि केँ वरदान देबाक क्रम मे विभिन्न अवतार लेबाक बात आदि कहलाक बाद आब दुर्गा चरित्र पाठ केर महत्ता सेहो बतायल गेल अछिः)
सबसँ पहिने देवीक स्तुति करी – दुर्गा सप्तशतीक बारहम अध्याय अनुरूपः
ध्यानम्
ॐविद्युद्यामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥
हम तीन नेत्रवाली दु्र्गा देवीक ध्यान करैत छी, हुनक श्रीअङ्गक प्रभा बिजलीक समान अछि। ओ सिंहक कन्धा पर बैसल बहुत भयंकर प्रतीत भऽ रहली अछि। हाथ मे तलवार आर ढाल लेने अनेक कन्या सब हुनक सेवा मे ठाढ छन्हि। ओ अपन हाथ मे चक्र, गदा, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश आर तर्जनी मुद्रा धारण कयने छथि। हुनक स्वरूप अग्निमय अछि तथा ओ माथापर चन्द्रमा मुकुट धारण करैत छथि।
पूर्व कथा निरन्तरता मे…..
देवीः (देवता सब सँ वरदान देबाक क्रम मे) –
एभि स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः।
तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्॥१२-१॥
देवता लोकनि! जे एकाग्रचित्त भऽ कय प्रतिदिन एहि स्तुति सँ हमर स्तवन करब, ओकर सब बाधा हम निश्चय दूर कय देब।
जे मधुकैटभक नाश, महिषासुरक वध तथा शुम्भ-निशुम्भ केर संहारक प्रसङ्ग केर पाठ करत, तथा अष्टमी, चतुर्दशी आर नवमी केँ सेहो जे एकाग्रचित्त भऽ भक्तिपूर्वक हमर उत्तम माहात्म्यक श्रवण करत, ओकरा कोनो पानि छूबि सकैत छैक। ओकरा पर पापजनित आपत्ति आदि सेहो नहि औतैक। ओकर घर मे कहियो दरिद्रता नहि हेतैक तथा ओकरा कहियो प्रेमीजनक बिछोहक कष्ट सेहो नहि भोगय पड़तैक। एतबा नहि, ओकरा शत्रु सँ, लुटेरा सँ, राजा सँ, शस्त्र सँ, अग्नि सँ तथा जलक राशि सँ सेहो कहियो भय नहि हेतैक। ताहि हेतु सब केँ एकाग्रचित्त भऽ भक्तिपूर्वक हमर एहि माहात्मय केँ सदैव पढबाक आ सुनबाक चाही। ई परम कल्याणकारक अछि।
हमर माहात्म्य महामारीजनित समस्त उपद्रव तथा आध्यात्मिक आदि तिनू प्रकार उत्पात केँ शान्त करयवला अछि। हमर जाहि मन्दिर मे प्रतिदिन विधिपूर्वक हमर एहि माहात्म्यक पाठ कयल जाएत अछि, ताहि स्थान केँ हम कहियो नहि छोड़ैत छी। ओतय सदिखन हमर सन्निधान बनल रहैत अछि। बलिदान, पूजा, होम तथा महोत्सवक अवसरपर हमर एहि चरित्रक पूरा-पूरा पाठ आर श्रवण करबाक चाही। एना केलापर मनुष्य विधि केँ जानिकय या बिना जनने सेहो हमरा लेल जे बलि, पूजा या होम आदि करत, ओकरा हम बहुत प्रसन्नताक संग ग्रहण करब।
शरतकाल मे जे वार्षिक महापूजा कयल जाएत अछि, ताहि अवसरपर जे हमर एहि माहात्म्य केँ भक्तिपूर्वक सुनत, ओ मनुष्य हमर प्रसाद सँ सब बाधा आदि सँ मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र सँ सम्पन्न होयत – एहि मे कनिको संदेह नहि अछि। हमर एहि माहात्मय, हमर प्रादुर्भावक सुन्दर कथा तथा युद्ध मे कयल गेल हमर पराक्रम सुनला सँ मनुष्य निर्भय भऽ जाएत अछि। हमर माहात्म्यक श्रवण करयवला पुरुषक शत्रु नष्ट भऽ जाएत अछि। ओकरा कल्याणक प्राप्ति होएछ तथा ओकर कुल आनन्दित रहैत अछि। सर्वत्र शान्ति-कर्म मे, खराब सपना देखाय देलापर तथा ग्रहजनित भयंकर पीड़ा उपस्थित भेलापर हमर माहात्म्य श्रवण करक चाही। एहि सँ सब विघ्न आ भयंकर ग्रह-पीड़ा सब शान्त भऽ जाएत छैक – संगहि मनुष्य द्वारा देखल गेल दुःस्वप्न शुभ स्वप्न मे परिवर्तित भऽ जाएत छैक।