कवि चन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – अयोध्याकाण्ड अध्याय ८

मिथिलाभाषा रामायण

अयोध्याकाण्ड – अध्याय ८

मिथिलाभाषा रामायण – अयोध्याकाण्ड

अध्याय ८

।चौपाइ।

श्रीरघुनन्दन सुन्दर चरण। महि मे अङ्कित विधिगण-शरण॥
कुलिश कमल ध्वज धूलि मे रेख। अकलुष अदुख भरत से देख॥
आज धन्य भेल हमरो भाग। प्रभु-दर्शन उतकण्ठा लाग॥
शञ्च शञ्च प्रभु आश्रम जाय। हरष नोर सौँ भरत नहाय॥
दूर्व्वादल-श्यामल वर अङ्ग। सौदामिनि-छवि जानकि सङ्ग॥
जटा किरीटी वल्कल चीर। तरुण-अरुण-मुख श्रीरघुवीर॥
नयन विशाल भाल भल भ्राज। लक्ष्मण – सेवित चरण समाज॥
वैदेही सौँ वचन – विनोद। सदनसँ शत गुण परम प्रमोद॥
देखल भरत खसल प्रभु – चरण। दीनबन्धु कहि संकट – हरण॥
रामक नयन नोर बढ़िआय। दुहु भुज सौँ लेल हृदय लगाय॥
मिलिमिलि पुन मिल मन अति हर्ष। देखि मुनि नयन जेहन घनवर्ष॥
जननि न जानथि श्रम गिरि बाट। खसब पड़ब की गड़ पद काँट॥
कत छथि कहि कहि दौड़लि जाय। सर-वर जेहनि पिआसलि गाय॥
रघुनन्दन सभ जननी जानि। कयल प्रणाम बहुत सन्मानि॥
गुरुपद कय साष्टाङ्ग प्रणाम। धन्य धन्य हम कहलनि राम॥
लक्ष्मण क्रमक्रम कयल प्रणाम। यथायोग्य गुरुजन जे नाम॥
शाशु पुतोहु अङ्क मे राखि। जिबइत मुह देखल ई भाखि॥
लाजहि केकयि रहल सशंक। विधि देल हमरहि माँथ कलंक॥
आगत जे पुरलोक छलाह। यथायोग्य सभ जन बैसलाह॥
कहु गुरु पिता-कुशल की रीति। हमरा सभ पर पुरुब पिरीति॥
राम-वचन शुनि कहल वसिष्ठ। कालक गति अछि बहुत बलिष्ठ॥
कहयक विषय रहय के चूप। सुरपुर गेला दशरथ भूप॥
राम राम कहि कहि सौमित्रि। अयि कत गेलहुँ विदेहक पुत्रि॥
कनइत एहिगत गत नृप-प्राण। शुनल राम श्रुति-शूल समान॥
मुइलहुँ ई कहि खसला कानि। लक्ष्मण राम करुण-रस सानि॥
हम अनाथ के करत दुलार। रहि गेल मनक मनोरथ भार॥
सीता सती होथि नहि चूप। कहि कहि गुणनिधि सकरुण भूप॥
अहँ वियोग-वश त्यागल प्राण। हमर हृदय भेल कुलिश समान॥
रामक कनइत सभ जन कान। तनि सौँ त्रिभुवन भिन्न न आन॥
कानय केओ नहि कहथि वसिष्ठ। कालपुरुष अनिवार्य्य बलिष्ठ॥
कनलय नृप नहि अओता घूरि। की हो कहू कपारे चूरि॥
मन्दाकिनि जल कयल स्नान। क्रम क्रम देल तिलाञ्जलि दान॥
फल इङ्गुदी तथा पिण्याक। पिण्डदानमे कहइत वाक॥
हम जे अन्न पितर से अन्न। पितरदेव मन होउ प्रसन्न॥
गेला कुटी पुन कयल स्नान। क्रन्दन करुण वधिर जनु कान॥
तेहि दिन सभ कयलनि उपवास। गज – तुरगादि न खयलक घास॥
भेल अशौचक काण्ड समाप्त। दोसर दिवस जखन सम्प्राप्त॥
मन्दाकिनि जल सकल नहाय। बैसल राम सभाजन जाय॥
भरत तहाँ उठि जोड़ल हाथ। हम किछु कहब देव रघुनाथ॥
सभ जन अनुमति उचित विवेक। अपनौँक होय एतहि अभिषेक॥
मुनिजन बहुत अपन गुरु सङ्ग। देखि पड़ितहि अछि पुरजन रङ्ग॥
जेहन पिता तेहन जेठ भाय। क्षत्रिय-धर्म्म सनातन न्याय॥
पिता – राज्य पालन करु देव। सकल प्रजा मे यश बड़ लेव॥
वन-वासक नहि सम्प्रति बेरि। वन-विनोद-मन अयबे फेरि॥
बहुत यज्ञ विधिवत गोदान। करि उत्पन्न पुत्र गुणवान॥
ज्येष्ठ पुत्रकाँ दय लेब राज। पुन आयब वन वनी – समाज॥
केकयि-कृत मन नहि किछु धरिय। पालन हमर नाथ प्रभु करिय॥

।दोहा।

श्रीरघुनन्दन-चरण पर, भरत धयल निज माँथ।
कयल दण्डवत भक्तिसौँ, त्राहि त्राहि रघुनाथ॥

।चौपाइ।

स्नेह – सजल – लोचन श्रीराम। शुनु शुनु भरत कहल गुणधाम॥
त्वरित उठाय लगाओल अङ्क। भक्ति-भाव अहँकाँ निश्शङ्क॥
भरत अहाँक वचन निर्व्याज। वनि बनलहुँ पितृ – वचनक काज॥
माय बाप आज्ञा अनुसार। पिता – वचन – प्रतिपाल विचार॥
चौदह वर्ष वनहि मे रहब। भ्रमहुँ भरत मिथ्या नहि कहब॥
अहँकाँ राज्य देलेँ छथि बाप। थोड़बहि दिनमे की सन्ताप॥
दण्डक-वन हमरा देल राज। जनितहि छथि गुरु सकल समाज॥
पिता – वचन हम माँथा धयल। अहँ की भरत अनादर कयल॥
मान न पिता वचन अज्ञान। से जिबितहि छथि मृतक समान॥
तनिका अन्त नरकमे वास। बापक जनिकाँ नहि मन त्रास॥
भेंट भेल से भल भेल काज। अहँ छी विदित बनल महराज॥
करु गय राज्य वृथा निर्व्वेद। अहँइक चिन्ता सभकाँ खेद॥

।दोहा।

भरत कहल स्त्री-जित पिता, कामुक बुद्धि-विहीन।
मृत्यु – निकट उन्मत्त-मति, मन नहि अपन अधीन॥

।चौपाइ।

तेहन न पिता जेहन अहँ कहल। सत्य-सन्ध नृप सभ किछु सहल॥
हृदय अधर्मक अतिशय त्रास। बरु मानथि वर नरक – निवास॥
कहल देल वर सत्य विचारि। केकयि शकल न नृपव्रत टारि॥
सत्य – वचन नृप त्यागल प्राण। रहि गेल धर्म्माधार प्रमाण॥
तनिक वचन काँ कय देब त्याग। रामचन्द्र काँ अनुचित लाग॥
कि करति केकयि कहत की लोक। कर्म्म शुभाशुभ रह की रोक॥
कहलनि भरत देव रघुनाथ। सभ कृति प्रभुवर अपनैँक हाथ॥
हमहिँ रहब वन चौदह वर्ष। अपनैँ राज्य करू मन हर्ष॥
शुनु शुनु भरत कहल पुन राम। मन बड़ गड़बड़ करु थिर ठाम॥

।षट्पद छन्दः।

सजल-नयन कह भरत नाथ हम नहि घुरि जायब।
लक्ष्मण सन वन रहब सङ्ग दुख दिवस गमायब॥
नहि रखबे जौँ सङ्ग प्राण हम सत्वर त्यागब।
बड़ गोट अयश कपार राज झंझट नहि लागब॥
धयल कुशासन रौदमे पद्मासन पूर्व्वाभिमुख।
हठ भरतक दृढ देखिकेँ इन्द्रादिक मन बहुत दुख॥
रामचन्द्र मन बुझल भरत अविचल हठ ठानल।
कहलहु कथा बुझाय वचन एकगोट न मानल॥
गुरु वसिष्ठ काँ देल वामनेत्रान्त इसारा।
ई नहि ककरो शक्य देल अपनहि काँ भारा॥
कहलनि गुरु एकान्त मे भरत कठिन हठ परिहरिय।
हेतु कहैछी से शुनिय सत्य वचन श्रुति मे धरिय॥

।चौपाइ।

अज अव्यय नारायण जैह। रामचन्द्र काँ जानब सैह॥
ब्रह्मा बहुत प्रार्थना कयल। दशरथ-भवन पुत्र बनि अयल॥
रावण-वध कारण अवतार। पृथिविक हरण काज सभ भार॥
प्रभुवर माया सीता-रूप। लक्ष्मण थिकथि अनन्त अनूप॥
केकयि-कृत सौँ मन जे खेद। कहइतछी तकरो हम भेद॥
रामचन्द्र जौँ करता राज। बुझल देवता हयत न काज॥
विघ्न शारदा कयलनि जाय। केकयि रानिक कण्ठ समाय॥
निर्दय-हृदय कहल निश्शङ्क। केकयि काँ छल लिखल कलङ्क॥
ई तीनू जन दण्डक जयत। धर्म्म-विमुख दशमुख तत अयत॥
निज अपराध पाबि सँहार। हयता रावण अवनिक भार॥
सकुल सबल रावण केँ जोति। घुरि अओता करताह सुनीति॥
आग्रह त्यागि भरत घुरि जाउ। अन्नपानि सुखसौँ अहँ खाउ॥
एतय वृथा सभ जन मन दैन्य। जाउ अयोध्या लयकेँ सैन्य॥

।दोहा।

गुरुक वचन शुनलनि भरत, अति विस्मित मन भेल॥
सजल – नयन आनन्द – घन, राम निकट पुनि गेल॥

।चौपाइ।

चरणक खरओँ देव देल जाय। सेवा करब धरब मन लाय॥
दुहुटा खरओँ राम दय देल। भरत भक्ति माँया धय लेल॥
जगमग जोति विभूषित – रत्न। देव – समान धयल बड़ यत्न॥
करथि प्रदक्षिण करथि प्रणाम। कहथि अवधि दिन आयब गाम॥
आयब अवधिक दिवस गमाय। भस्म होयब हम अनल समाय॥
नीक नीक कहलनि श्रीराम। डङ्का पड़ल चलल जन धाम॥
कनइत केकयि प्रभुसौँ कहल। किछु कर्त्तव्य शिष्ट की रहल॥
रामचन्द्र बेटा मन आश। हमरे भेल विश्व उपहास॥
अहँक भरोश बहुत मन धयल। सभ जन-रव हम कहबे कयल॥
केहन पिशाची देल लगाय। हमहूँ थिकहुँ मान्य सतमाय॥
अपनहि कयल सकल रघुनाथ। तदपि कहिय हम जोड़िय हाथ॥
करब क्षमा प्रभु सब अपराध। लोक – विदित सुख कयलहुँ वाध॥
अहँ परमेश्वर विश्व – स्वतन्त्र। हम की मानी वानी मन्त्र॥

।दोहा।

हँसि कहलनि रघुनाथ, देवि सत्य अपनैँ कहल।
वर – नृप – आज्ञा लाथ, देव – कार्य्य कर्त्तव्य छल॥

।सोरठा।

त्यागु देवि सन्ताप, होएब कर्म्म सौँ लिप्त नहि॥
विगत त्रिविध तन – ताप, रहब हर्षिता निज भवन॥
से शयबार प्रणाम, कयल धयल प्रभु – ध्यान मन॥
धन्य धन्य श्रीराम, कहि चलली केकयि पुरी॥

।चौपाइ।
यथायोग्य मिलि मिलि सभ लोक। गेल अयोध्या परिहरि शोक॥
भरत मिलन सौँ मन सन्तोष। मन मन केकयि पर बड़ रोष॥
गुरु मन्त्री परिजन गण आन। भरतक सङ्गहि कयल प्रयाण॥
जय सीतापति जय रघुनाथ। कनइत कनइत कर गुण-गाथ॥
मिथिलेशक कन्या बुधिआरि। छल भल सङ्ग भाग्य दिन चारि॥
सकल पूर्व्ववत ठामहि ठाम। विरत भरत गेल नन्दिग्राम॥
राखल खरओँ सिंहासन थापि। पूजा – विधि नहि छूट कदापि॥
नित पूजन षोड़श उपचार। राज – भोग बन बहुत प्रकार॥
राज – काज जत जे जे आब। राम – समर्प्पण सिद्ध स्वभाव॥
अवधिक दिन गणयित दिन जाय। मुनि – व्रत कन्द – मूल – फल खाय॥
भूमि शयन सानुज नित करथि। अनुज राम – चरण मन धरथि॥
राज – काज किछु रहय न बन्न। व्रती भरत सभ कर सम्पन्न॥
चित्रकूट गिरि पर श्रीराम। बुझलक लोक घराघरि गाम॥
एक घुरि आबथि एक पुन जाथि। रामचन्द्र मन मन अगुताथि॥
ग्राम – जनक आगमने तोड़ि। दण्डक – वन गेला गिरि छोड़ि॥
जाय अत्रि काँ कयल प्रणाम। हम छी धन्य कहल श्रीराम॥
वनवासक छल अयलहुँ एतय। दुःखक लेश देश नहि जतय॥
रामक वचन मधुरतर शूनि। विधिवत पूजा कयलनि मूनि॥
बैसला राम मुनिक व्यवहार। भल फल वन्य आनि सत्कार॥
सीता लक्ष्मण बैसल जानि। मुनि कहलनि परमात्मा मानि॥
।अनुष्टुप् छन्दः।
अनसूया महावृद्धा गृहमध्य तपस्विनी।
छथि राम ततै जाथु मैथिली श्रीयशस्विनी॥
गेली सीता ततै साध्वी राम आज्ञानुसार सौँ।
प्रणाम तनिकाँ कैल मैथिली सद्विचार सौँ॥
।दोबय छन्दः।
कहलनि अनसूया हम वृद्धा पति सँग करी तपस्या॥
अहँ जानकि सभलोकक जननी शिव-विधि-प्रभृति-नमस्या॥
ई कहि अङ्क लगाओल तनिकाँ छवि देखल भरि आँखी॥
हर्षहि हृदय भरल अछि होइछ दुहू आँखि मे राखी॥
।तोटक छन्दः।
तन हो न मलान कदापि कहूँ।
अँगराग लगाओल अत्रि – बहू॥
पहिरावल से पट जे नितहू।
नव भव्यद फाट न जे कतहू॥
।प्रझटिति छन्दः।
घर जाथु कुशलसौँ अहँक संग, वनमे आयल छथि अछि प्रसङ्ग॥
मुनि वन्य कन्द फल आनि देल, सानुज सीतापति तृप्त भेल॥
मुनि कहल भुवन अपनैँ बनाय, प्रतिपाल करै छी विभु कहाय॥
गुण-कृत न दोष अहँमे समाय, विभुसौँ माया मोहिनि डराय॥
।कवि-प्रार्थना।
।उक्तछन्द।
जयजय रघुनन्दन देवदेव, हृत – धरणि – भार कृत-विपिन-सेव।
जय दलित – भवानीनाथ – चाप, दूरी-कृत-मिथिला-मनस्ताप॥
जयजय पुरुषोत्तम गुणातीत, श्रित-भूमि-तनय मुनि-गण-विनीत।
जय दाशरथे नानावतीर, मां पालय पालय दयागार॥
॥इति मिथिलाभाषा रामायणे अयोध्याकाण्डे नवमोध्यायः समाप्तः॥
॥इति अयोध्याकाण्ड॥२॥

 

हरिः हरः!!