रामचरितमानस मोतीः गरुड़जीक सात प्रश्न आ काकभुशुण्डिजीक उत्तर

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

गरुड़जीक सात प्रश्न आ काकभुशुण्डिजीक उत्तर

गरुड़जीक जिज्ञासा भक्ति आ ज्ञान बीचक भेद केर निरूपणक समुचित उत्तर देलाक बाद….

१. पक्षीराज गरुड़जी बहुते प्रेमपूर्वक काकभुशुण्डिजी सँ कहलखिन – “हे कृपालु! हमरा उपर अपनेक बहुते प्रेम अछि। हे नाथ! अपन सेवक जानि हमर आरो सात टा प्रश्नक उत्तर बखानिकय कहू। हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहिने त ई बताउ जे सब सँ दुर्लभ कोन शरीर अछि (१), तखन संछेप मे इहो बताउ जे सब सँ पैघ दुःख कोन अछि (२)। सन्त आ असन्त केर मर्म (भेद) अहाँ जनैत छी (३), हुनक सहज स्वभाव केर वर्णन करू (४)। फेर कहु जे श्रुति सब मे प्रसिद्ध सबसँ महान्‌ पुण्य कोन अछि (५) आ सब सँ महान्‌ भयंकर पाप कोन अछि (६)। फेर मानस रोग केँ बुझाकय कहू (७)। अहाँ सर्वज्ञ छी आ हमरा उपर अहाँक बहुते कृपा सेहो अछि, एहि सातो प्रश्नक उत्तर नीक सँ बुझाकय कहू।”

२. काकभुशुण्डिजी कहलखिन – “हे तात! अत्यन्त आदर आ प्रेमक संग सुनू। हम ई नीति संछेप मे कहैत छी।”

(प्रश्न १ केर उत्तर)

“मनुष्य शरीरक समान कोनो शरीर नहि अछि। चर-अचर सब जीव एकर याचना करैत अछि। से मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग आ मोक्ष केर सीढ़ी अछि तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य आ भक्ति दयवला अछि। एहेन मनुष्य शरीर केँ धारण (प्राप्त) कयकेँ पर्यन्त जे लोक श्री हरिक भजन नहि करैत अछि आ नीच सँ नीच विषय सब मे अनुरक्त रहैत अछि, ओ पारसमणि केँ हाथ सँ फेकि दैत अछि आ बदला मे काँचक टुकड़ा लय लैत अछि।”

३. (प्रश्न २ केर उत्तर) “जगत्‌ मे दरिद्रताक समान दुःख नहि छैक आर सन्त सब सँ भेंट जेहेन जगत् मे सुख नहि छैक।

४. (प्रश्न ३ व ४ केर उत्तर) “आर हे पक्षीराज! मन, वचन आ शरीर सँ परोपकार करब, यैह सन्तक सहज स्वभाव छन्हि।”

“सन्त दोसरक भलाई लेल दुःख सहैत छथि आ अभागल असन्त दोसर केँ दुःख पहुँचाबय लेल। कृपालु सन्त भोज केर वृक्ष समान दोसरक हित लेल भारी विपत्ति सहैत छथि, अपन खाल तक उधड़बा लैत छथि। लेकिन दुष्ट लोक सन (पटुआ) जेकाँ दोसर केँ बान्हैत अछि आ अपन खाल खिंचबाकय विपत्ति सहिकय मरि जाइत अछि।”

“हे सर्पक शत्रु गरुड़जी! सुनू, दुष्ट बिना कोनो स्वार्थहु केर साँप आ मूस समान अकारणे दोसरक अपकार करैत अछि। ओ पराया संपत्ति केँ नाश कयकेँ स्वयं नष्ट भ’ जाइत अछि, जेना खेतीक नाश कयकेँ ओला नष्ट भ’ जाइत अछि। दुष्टक अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतुक उदय जेकाँ जगत केँ दुःख दय लेल मात्र होइत छैक।”

“आ, सन्त लोकनिक अभ्युदय सदैव सुखकर होइत छैक, जेना चन्द्रमा आ सूर्य केर उदय विश्व भरि लेल सुखदायक छैक।”

५. (प्रश्न ५ व ६ केर उत्तर) “वेद मे अहिंसा केँ परम धर्म मानल गेल अछि आर परनिन्दाक समान भारी पाप नहि अछि।”

“शंकरजी और गुरु केर निन्दा करयवला मनुष्य (ऐगला जन्म मे) बेंग होइत अछि आ ओ हजार जन्म धरि वैह बेंगहि केर शरीर पबैत अछि। ब्राह्मणक निन्दा करयवला व्यक्ति बहुते रास नरक भोगिकय फेर जगत् मे कौआक शरीर धारण कयकेँ जन्म लैत अछि। जे अभिमानी जीव देवता आ वेद सभक निन्दा करैत अछि, से रौरव नरक मे पड़ैत अछि। सन्त लोकनिक निन्दा मे लागल लोक उल्लू होइत अछि, जेकरा मोहरूपी राति प्रिय भेल करैत छैक आ ज्ञानरूपी सूर्य जेकरा लेल अस्त भ’ गेल रहैत छैक। जे मूर्ख मनुष्य सभक निन्दा करैत अछि, से बादुड़ (चमगादड़) भ’ कय जन्म लैत अछि।”

६. (प्रश्न ७ केर उत्तर) “हे तात! आब मानस रोगक बारे मे सुनू, जाहि सँ सब लोक दुःख पबैत रहैत अछि। सब रोग केर जड़ि मोह (अज्ञान) छी। ओहि व्याधि सबसँ फेर आरो कतेको रास शूल (कष्टदायक रोग) सब उत्पन्न भेल करैछ।”

“काम वात (वायुरोग) थिक, लोभ अपार (अत्यन्त बढ़ल) कफ थिक आ क्रोध पित्त थिक जे सदिखन छाती जरबैत रहैत अछि। जँ कतहु ई तीनू भाइ (वात, पित्त आर कफ) आपस मे प्रीति कय लियय (मिलि जाय), तँ दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न भ’ जाइत छैक।”

“बहुत मुश्किल सँ प्राप्त होयबला विषय सभक जे मनोरथ अछि, ओ सबटा शूल (कष्टदायक रोग) थिक। ओकर एतेक नाम छैक जे कहि सकैत अछि! ममता ‘दाद’ (दिनाय) थिक। ईर्षा (डाह) नोंचनी थिक। हर्ष-विषाद गलाक रोग सभक अधिकता थिक (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग थिक)। दोसरक सुख केँ देखिकय जे जलन होइत छैक, वैह ‘क्षयी’ थिक। दुष्टता आर मनक कुटिलते ‘कोढ़ि’ रोग थिक। अहंकार बहुते दुःख दयवला ‘डमरू’ (गाँठक) रोग थिक। दम्भ, कपट, मद आ मान ‘नहरुआ’ (नस केर) रोग थिक। तृष्णा बड़ा भारी ‘उदर वृद्धि’ (जलोदर) रोग थिक। तीन प्रकार (पुत्र, धन आ मान) केर प्रबल इच्छा सब प्रबल ‘तिजारी’ (शीत ज्वर, हर तेसर दिन पर आबयवला रोग) थिक। मत्सर आ अविवेक दुइ प्रकारक ‘ज्वर’ थिक। एहि प्रकारें अनेकों खराब रोग अछि, जे कतय धरि कहू!”

“एक्कहि टा रोगक वश भ’ कय मनुष्य मरि गेल करैछ, फेर ई सब तँ बहुतो तरहक असाध्य रोग सब थिक। ई सबटा रोग जीव केँ लगातार (निरन्तर) कष्ट दैत रहैत छैक। एहेन दशा मे ओ समाधि (शान्ति) केँ कोना प्राप्त कय सकैत अछि?”

“नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा आरो करोड़ों औषधि सब थिकैक, लेकिन हे गरुड़जी! ओहि सब सँ ई रोग कखनहुँ खत्म नहि भेल करैछ, बस ओकर अधिकता केँ कम कय देल करैछ।”

“एहि प्रकारें जगत्‌ मे समस्त जीव रोगी अछि, जे शोक, हर्ष, भय, प्रीति आर वियोग केर दुःख सँ आर बेसी दुःखी भ’ रहल अछि।”

“हम ई थोड़बे रास मानस रोग सब कहलहुँ हँ। ई अछि तँ सब केँ, मुदा ई बुझि पेलक अछि कियो कियो विरले लोक टा।”

“प्राणी सब केँ जराबयवला ई पापी (रोग) जानि गेला सँ किछु त कम (क्षीण) अवश्ये भ’ गेल करैत छैक, लेकिन नाश नहि भेल करैछ।”

“विषयरूप कुपथ्य पाबि मुनियो लोकनिक हृदय मे रोग अंकुरित भ’ गेल करैत छैक, तखन बेचारा साधारण मनुष्य केर त बाते कि कहल जाय!”

“यदि श्री रामजीक कृपा सँ एहि तरहक संयोग बनि जाय तँ ई सबटा रोग नष्ट भ’ जाय। सद्गुरुरूपी वैद्य केर वचन मे विश्वास हो, विषय सभक आशा नहि करय, यैह सब संयम (परहेज) थिक।”

हरिः हरः!!