— दिलीप झा।
उत्तराधिकार आ पुत्राधिकार के अंतर्संबंध सभक आधार पर वैधव्य के लैंगिक पक्ष के आर करीब सs देखल जा सकैत अछि। एतs स्पष्ट होईछ जे स्त्री के सम्मान, ओकर प्रतिष्ठा आ ओकर अधिकार पति के संरक्षण आ उपस्थितिए तक सीमित रहि जाइत छैक। एहि तरहक कतेको पहलु देखवा मे अबैत अछि जकर अपन राजनीति आ आर्थिकी छैक। वर्तमान आलोक मे बिधवा स्त्री के सामाजिक सरोकार सभक अध्यन करैत ने सिर्फ ओकर सामाजिक, सांस्कृतिक आ ऐतिहासिक पहलु सब के देखब अनिवार्य छैक अपितु ओकर राजनीति आ आर्थिकी के बुझनाई सेहो परमावश्यक छैक।
एहि पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था मे स्त्रीक अस्तित्व ओकर पति के कारण जीवंत रहैत छैक। ओकर मान-सम्मान, इज्जत, सजब-धजब, ओकर हैसियत सब किछु ओकर पति सs जोरि कs देखल जाइत छैक। एक स्त्री के अपन एहि समाज मे कोनो अस्तित्व नहि छैक। एक स्त्री के एहि सामाजिक व्यवस्था मे मात्र एक उपभोगक वस्तु के रूप में देखल जाइत रहल अछि कारण स्त्री के एक मानव के रूप मे कहियो स्वीकार नहि कैल गेलैक। ईएह मूल कारण थिक जे पति के मृत्यु के उपरांत पत्नी रूपी दासी के अस्तित्व मिटा देल जाइत छैक आ धर्म के नाम पर विचित्र-विचित्र कुरीति सभक मनगढ़ंत कहानी सब के माध्यम बना महिमामंडन कs कs विधवा स्त्री के जीवन के बद सs बदतर बना देल जाइत छैक। उदाहरण के लेल अपनो समाज मे विधबा स्त्री के चुरी सब फोरि देल जाइत छैक, सिन्दुर पोछि देल जाइत छैक, बिन्दी-टिकुली, फीता के उपयोग करवा सs वंचित कैल जाइत छैक, श्रृंगार करवा सs रोकल जाइत छैक, मंशाहारी भोजन सs प्रतिबंधित कैल जाइत छैक आ आजीवन श्वेत परिधान आ आबरण पहिरवा लेल विवस कैल जाइत छैक आर की की ने। हार-मांसक एक गोट हँसैत-खेलैत स्त्री के जीबिते मुर्दा बना देल जाइत छैक। आ ओ आजीवन एहि तरहक त्रासदी भरल अपसगुनक संग जीवाक लेल अभिशप्त होइत अछि। एतवा लिखैत लिखैत सोचबाक लेल विबस भs जाइत छी जे “वैधव्य संभवत: कोनो व्यक्ति के जीवन मे सबसs दु:खद अवस्था होइछ, चाहे ओ पुरुष होइथ वा स्त्री।” कि ई बात हमर सामाजिक, संस्कृतिक आ व्यवहारिक धरातल पर एतबे उचित देखाईत अछि। अतीत सs होइत वर्तमान तक के यात्रा मे जहिया कहियो एहि प्रश्न पर मन्थन करब तs निश्चित रूप सs उत्तर भेटत “नहि”। पुर्वहि सs भारत सहित दुनियाँ भरि मे सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आ ज्ञान उत्पादनक पद्धति सब एवं परंपरा सब मे स्त्री-पुरुष गैर-बराबरी के हिस्सेदारी रहल अछि, जे आइओ बदस्तूर अछि। हालाँकि, स्थिति पहिले सs बेहतर भेल अछि तैओ किछु मुद्दा सभ पर आइओ लिंग आधारित जटिलता सब सांस्कृतिक रीति-मान्यता के जरिए लोक चेतना मे बहुत गहिर तक प्रविष्ट भs चुकल अछि आ ओकर मूल्य आइओ स्त्री सभ के अपेक्षाकृत अधिक चुनौतीपूर्ण ढंग सs चुकाब परैत छैन्ह।
मैथिल समाज मे स्त्रीक लेल वैधव्य एक गोट पैघ त्रासदी के रूप में देखल जाइत रहल अछि। स्त्रीक निजी एवं सार्वजनिक जिन्दगीक खाँचेबंदी सब के आस्था आ धार्मिक विश्लेषण के जरिए पुरुषवादी सत्ता-संरचना अपन निहित स्वार्थ सभक पूर्ति हेतु तय कs कऽ रखने छैथ जे मान-सम्मान, इज्जत, आदर्श आ परंपरा सभक नाम पर पीढ़ी दर पीढ़ी पुष्पित-पल्लवित होइत आबि रहल अछि। जेकर प्रमाण किछु धार्मिक स्थल जेना बनारस, मथुरा इत्यादि मे बहुसँख्यक बिधबा स्त्री दयनीय स्थिति मे गुजर-बसर कs रहलिह अछि। ऐतिहासिक संदर्भ मे जाइ तs स्पष्ट अछि जे चातुर्वर्णीय हिन्दू सामाजिक संरचना मे उच्चवर्णीय स्त्रीगण के वैधव्यक त्रासदी अपेक्षाकृत अधिक झेलs परैत छैन्ह कारण उच्च वर्ग मे दरअसल स्त्रीगणक लेल अधिक कठोर नियम-कायदा प्रभावी रहल अछि।
सामाजिक मान्यताक अनुसार विधवा स्त्री के पतिक मृत्यु के जिम्मेदार मानल जाइत छैक आ एकर पाछा तमाम सगुन-अपसगुन आ परंपरागत तर्क देल जाइत छैक आ ओकरा जिनगी भरि सजा भुगतबाक लेल छोड़ि देल जाइत छैक जखन कि अन्य तार्किक अध्ययन मे एकर कारण विवाह मे परस्पर-उम्र के अंतर, पुरुषक तुलना स्त्रीक उच्च जीवन-प्रत्याशा, पतिक आकस्मिक मृत्यु इत्यादि मानल जाइत छैक।
आधुनिक काल मे शिक्षित समाज मे विधवा, परित्यकता आ परतारीत स्त्रीक पुनर्विवाह के खराब नहि कहल जा सकैत अछि परन्तु किछु कट्टर धार्मिक लोक आ देहाती, अनपढ़ समाज मे विधवा, परित्यकता आ परतारीत स्त्रीक दशा एखनो शोचनीय अछि। अतः हमरा कहबा मे कोनो परहेज नहि होयत जे विधवा, परित्यकता आ परतारीत स्त्रीक पुनर्विवाहक समस्या कोनो ने कोनो रूप में आईओ हमर मैथिल समाज मे विद्यमान अछि। जखन की वैदिक साहित्य मे सहो विधवा पुनर्विवाहक बिरोध नहि भेटैत अछि। अथर्ववेद मे सहो विधवाक पुनर्विबाहक उल्लेख अछि। एतिहासिक प्रमाण एहि सs भेटैत अछि जे अल्टेकर के लिखल उक्ति ”नियोगक संग-संग विधवा पुनर्विवाह सेहो वैदिक समाज मे प्रचलित छल।” वशिष्ठ सेहो विधवा पुनर्विवाहक स्वीकृति देने छलाह। कौटिल्यक अर्थशास्त्र मे विधवा पुनर्विवाह के सेहो स्वीकार कैल गेल अछि। उच्छंग जातकक कथा सभ मे सेहो विधवा पुनर्विवाहक आभास भेटैत अछि।
प्राचीन भारत मे विधवा पुनर्विवाह निषेध नहि अपितु बहुत कम छल। ३०० ई. पू. स ईसा के २०० वर्ष पश्चात तक के काल मे विधवा पुनर्विवाह के अनुचित मानबाक प्रमाण भेटैत अछि। जाहि काल मे विधवाक पुनर्विवाह कठोर रूप सs प्रतिबन्धित भs गेल छल। परन्तु विधवा पुनर्विवाहक अधिक प्रबल विरोध ईसा के ६०० वर्ष पश्चात सs प्रारम्भ भेल आ १००० वर्ष बाद तक रहल तs बाल विधवाक विवाह सेहो बन्द भs गेल। तs विधवा सभक जीवन नर्क बनि जैबाक कारण अधिकांश स्त्री पतिक संग जरि मरवा के बेहतर विकल्प बुझs लगलिह आ शती प्रथाक समाज मे प्रदुर्भाव भेल छल।
विधवा पुनर्विवाहक निषेधक नैतिक प्रभाव किछु एहि तरहक परल जेना अनैतिकताक वृद्धि, वेश्यावृति मे वृद्धि इत्यादि इत्यादि। विधवा पुनर्विवाहक निषेध के किछु सामाजिक प्रभाव सेहो परल जेना कि समाज मे जनसंख्या वृद्धि मे कमी आ सामाजिक जातीय संरचना मे असंतुलन, धर्म परिवर्तन इत्यादि इत्यादि।
आइ काल्हि अधिकांश शिक्षित व्यक्ति विधवा पुनर्विवाह के सर्वथा उचित मानैत छैथ। परन्तु तैओ किछु लोक एहि पर शंका करैत छैथ। अतः विधवा पुनर्विवाहक औचित्य के विवेचना करब प्रासंगिक होयत। परिणाम स्वरूप एहि विषय के नैतिक आ सामाजिक दुनू पक्ष पर विचार करब आवश्यक थिक। विधवा पुनर्विवाहक नैतिक पक्ष अछि बाल विधवा सभक उद्धार, अनैतिकता सभक उन्मूलन इत्यादि इत्यादि। विधवा पुनर्विवाहक सामाजिक पक्ष अछि हिंदू समाजक जनसंख्या वृद्धि, समाज मे जातीय जनसंख्या संतुलन, धर्म परिवर्तनक विरोध, अनैतिकता सs समाजक रक्षा, समाज मे वेश्याक संख्या मे कमी, अनधिकृत यौन संबंध मे कमी इत्यादि इत्यादि। विधवा पुनर्विवाहक कानूनी पक्ष अछि मृत पतिक सम्पत्ति मे अधिकारक समाप्ति, नब परिवार मे सब कानूनी अधिकारक प्राप्ति इत्यादि इत्यादि।
एहि सब के ध्यान रखैत श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागरक प्रयत्न सs हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम १८५६ मे पास भेल जे विधवा पुनर्विवाह के वैध घोषित कs देलक आ कानूनी रूप सs हमर समाज के कुरिति पर अंकुश लगेबाक प्रयास कैल गेल जाहि सs हमर सभक समाज परिमार्जित भs सकै। एतबे नहि ओ स्वयं अपन बेटाक विवाह एक गोट बिधबा के संग सहर्ष करवा कs समाजक सामने उदाहरण प्रस्तुत कैने छलाह।
कानूनी स्वीकृति के साथ-साथ समाज सुधारक सभ विधवा पुनर्विवाहक प्रोत्साहनक लेल आगा एलैथ। पिछला आधा शताब्दी मे आर्य समाज आ अन्य संस्था सब एहि विषय मे जन जागृति उत्पन्न केलैथ। वर्तमान मे हिन्दू समाज के एक गोट पैघ वर्ग विधवा पुनर्विवाह के समर्थन करैत छैथ। वर्तमान मे ऊँच जातिक किछु रूढ़िवादी लोक आइओ एकर औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगबैत छैथ। अपनो समाज मे आंशिक रूप सs ब्राह्मण, कायस्थ आ राजपूत मे आ पूर्ण रूप सs अन्य सब वर्ग मे विधवा पुनर्विवाह प्रचलित भs गेल अछि।
अतः आशा नहि अपितु दृढ़ विश्वास अछि जे हमरा लोकनि जखन चांद पर डेग बढ़ा देलहु अछि तs हमर सभक समाज मे सब तरहक भ्रांति सब किछु खतम होयत आ अपन समाज निकट भविष्य में विधवा पुनर्विवाह के पूर्ण रूप सs स्वीकार करत। आवश्यकता जन जागृति के छैक जे एहि प्रयास के बल देत।