“पारस्परिक सिनेह आ सहयोगक प्रतीक थिक भार”

167

— अनिल कुमार।       

‘भार’- शब्द स्वयं मे द्विअर्थी अछि।

एहि शब्दक सहज अर्थ भेल – दायित्व। जेना हरेक परिवारक कुशल प्रबंधनक भार माय-बाप’क होइछ।
तहिना बदलल मन:स्थिति मे भार शब्दक जटिल अर्थ भेल- दबाबजन्य दायित्व। जेना – एहि युग मे संयुक्त परिवारक संचालन करब हमरा लेल पैघ भार अछि।
एहि संदर्भेँ यदि देखल जाय तँ कोनो यज्ञादि मे परस्पर मिथिला मे भारक’ प्रचलन एहि ठामक’ मानवीय संवेदना,पारस्परिक सहयोग,संबंधक दायित्व,लोकाचारक आदर्श,अन्त:बाह्य समृद्धिक द्योतक ओ’ लौकिक व्यवहारक परिचायक छल। एहि भारक’ परस्पर आदान-प्रदान सँ दू-टा’ समाजक आचार-विचार,लोक-व्यवहार,रीति-रिवाज आदिक समन्वीकरण होइत छल। एहि तरहेँ लोक परस्पर व्यवहारिक कमी-बेशी केँ आत्म-मूल्यांकन कय अपन गुणवत्ताक स्तर वृद्धि हेतु सजग रहैत छल। कारण जे- एहि तरहक आदान-प्रदान मे मात्रा नहिं आहार-व्यवहारक स्तरक गुणवत्ताक महत्व होइत छलैक।
एखुनका बदलल परिस्थिति मे – जतय ‘ हमर पिया सुन्नर,हम सुन्नरी; दुनियाक लोक बनरा-बनरी’ संपूर्ण समाज केँ ग्रस्त केने अछि, ‘भार’ निश्चित रूप सँ अनिच्छापूर्वक कर्तव्य निर्वाहक कोटि मे आबि दबाबक परिस्थिति बनाओत। कारण- एकर महत्ता गुणवत्ता आधारित नहिं भऽ मात्रा आधारित व्यक्तिगत आकांक्षापूर्तिजन्य होयत। एकर संबंध कोनो लोकाचार, सामाजिक व्यवहार,स्थिति-परिस्थिजन्य मानवीय संवेदना सँ नहिं होयबाक कारणेँ जटिल बनल रहत’।
तेँ हमरा सब केँ सर्वप्रथम कन्यादान केँ महायज्ञ बूझि एकर सार्वभौमिकता केँ स्वीकार कय स्वयं केँ विशुद्ध रूपेँ अपन भूमिका मे तैयार भय माँ मैथिलीक समुचित सम्मान करय पड़त, तखनहिं विवाहजन्य आनंदक भागी बनि सकब।