दीपिका झा।
🌷”भाग्य-विधाता” “🌷
मनु-सतरुपा के वरदान हेतु,
श्री विष्णु जखन राम बनि ऐला।
माता रुप कौशल्या और,
पिता रुप में दशरथ पेला।।
सभक भाग्य विधाता स्वयं के, भाग्य केहेन रचेला।
दुःख, संघर्ष, त्याग, बलिदान छोड़ि,
सुख कहियो नहि पेला।।
जे सर्वस्य ब्रम्हांड के गुरु,
शिष्य वशिष्ठ के भेला।
विश्वामित्र, ऋषि जन सबके,
मनोरथ सफल बनेला।।
अंजनिक माता, गौतम नारी,
परम सती अहिल्या नारी।
इंद्र के छल, ऋषि गौतम के श्राप,
निर्दोष पाथर बनि करथि संताप।।
माता अहिल्याक उद्धार हेतु,
तारका वध सऽ ऋषि कल्याण हेतु,
श्रीराम जखन धरती पर ऐला,
सभक भाग्य विधाता स्वयं के, भाग्य केहेन रचेला।।
जनक सुता साक्षात लक्ष्मी,
सीता बनि धरा पर ऐली।
धनुष तोरि संग नाता जोरि,
रघुवर सियावर कहेला।।
पिता वचन के मान हेतु,
समस्त रघुकुल के कल्याण हेतु,
निर्भीक भय वनवास हेतु,
सिय लक्ष्मण संग वन प्रस्थान केला।
सभक भाग्य विधाता स्वयं के, भाग्य केहेन रचेला।।
व्याधा निज पुण्य प्रताप फलस्वरुप,
राम सखा निषाद बनि ऐला,
सिया राम लखन के वन गमन में,
दर्शन, सहयोग दय पुण्य कमेला।।
जीवन भवसागर के नाव खेवैया,
केवट के अपन खेवनहार बनेला।
सभक भाग्य विधाता स्वयं के भाग्य केहेन रचेला।।
जे स्वयं ज्ञानी, मुनि के आराध्य,
मुनि दर्शन कय भऽ गेला कृतार्थ।
महिमाँ हुनकर की कहू यथार्थ,
जे त्रिपुरेश्वर तक के आराध्य।।
मतंग शिष्या सबरी माता,
श्रीराम भक्तिनी करथि प्रतीक्षा।
गुरु सेवा के वरदान फलस्वरुप,
प्रभु दर्शन हुयै ओतबे इच्छा।।
पहुँच सबरी के कुटिया,
प्रेम वश जूठन बैर खेला।
सभक भाग्य विधाता स्वयं के भाग्य केहेन रचेला।।
रावण पर साक्षात काल सवार,
भय सीता पर मोहित मूढ़ – अगाढ़।
सीता रुप हरि लय गेल ओ काल,
पुष्प बुझि पहिरलक सर्पक माल।।
राक्षस रावण संहार हेतु,
राक्षस जातिक उद्धार हेतु।
सिंधु पर सेतु बांधि लंका गेला,
सभक भाग्य विधाता स्वयं के भाग्य केहेन रचेला।।
कुल-वंश समेत शत्रु के मारि,
सकुशल वापस अनला निज नारि।
तिहुँ लोक में गूँजै जय-जयकार,
हे पुरुषोत्तम अहांक न्याय शिरोधार्य।।
चौदह वर्ष वनवास बिता,
श्रीराम अवधपुर ऐला।
श्रीराम बनि राजा राम,
अवध नगरी के स्वर्ग बनेला।।
अंतो अंत बिछुड़ि सीता सऽ,
त्यागी परम कहेला।
किंतु वैदेही के त्याग समक्ष,
नतमस्तक प्रभु भय गेला।।
मानव रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम,
मर्यादा स्थापित कय गेला।
सभक भाग्य विधाता स्वयं के भाग्य केहेन रचेला।।
©️दीपिका झा
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