मिथिलाक लोकजीवन मे साँझ देबाक परम्परा
कहल जाइछ जे एहि धराधाम सँ वेद वर्णित विधान जँ लुप्त भऽ जाय, तँ मिथिलाक लोकजीवन मे स्थापित परम्परा केँ निभेला सँ वेद स्वस्फुर्त प्रकट भऽ जायत। जिनक जन्म आ लालन-पालन मिथिलाक लोकसंस्कार मे भेल ओ सब जनैत छी जे भोरे ब्रह्ममुहूर्त मे उठय सँ लैत नित्यकर्म सँ निवृत्ति आ स्नान-पूजापाठ, भोजन-भात, घर-गृहस्थी, खेलधूप, मनोरंजन, भजन-कीर्तन, सामूहिक सम्मेलन, सामूहिक भोजभात आदि अनेकों परम्परा जे मिथिला मे चलैत अछि से पूर्णरूप सँ वेद द्वारा वर्णित विधान अनुसार अछि।
एकटा दृश्य देखू – भोरे ब्रह्ममुहूर्त मे उठिकय आत्मारूपी परमात्मा सँ लैत घरक भगवती, तुलसी चौरा, मन्दिर मे स्थापित देवी-देवता आदि केँ प्रणाम कय कतेको प्रकारक स्तोत्र-श्लोक-स्तुति आदिक संग चालीसा वगैरह पाठ करैत हाथ मे फूलडाली लेने गाछे-गाछ सँ फूल लोढि आनब आ तदोपरान्त स्नान आदि कय पूजा लेल घर सँ बाहरक विभिन्न मन्दिर मे जायब – यैह जीवनशैली अधिकांश हिन्दू समाज केर देखल जाइछ अपन मिथिला मे।
तहिना संध्याकाल साँझ देखेबाक लेल माटिक दीवारी, अगरबत्ती आ फूलमाला आदिक संग घर सँ बाहर केर मन्दिर मे गेनाय – बिना कोनो खास मंत्र आदिक उच्चारण कएने सिर्फ देवी-देवता केँ प्रार्थनापूर्वक प्रणाम कय दीवारी मे दीप लेसैत, भगवान्-भगवती केँ फूल-माला आदि सँ श्रृंगार करैत मिथिलाक घर-घर सँ लोक सब मिलि-जुलिकय देवी-देवताक पूजनादि संपन्न करैत अछि।
आब आउ, गौर करू – वेद-पुराण मे एहि तरहक पूजनादि केँ ‘संध्या’ कहल गेल अछि। संध्या केना कयल जाय से एक इतर लेख सँ पहिने कहने छी, फेर कहियो पुनरावृत्ति करब। एखन केवल संध्याक आवश्यकता आ एकर महत्व केँ मिथिलाक आम जीवनशैली सँ देखू।
संध्या केर आवश्यकता
अत्रि ऋषि कहैत छथि जे नियमपूर्वक जे लोक प्रतिदिन संध्या करैत अछि, ओ पापरहित भऽ कय सनातन ब्रह्मलोक केँ प्राप्त करैत अछि –
संध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः।
विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम्॥
याज्ञवल्क्य द्वारा रचित याज्ञवल्क्यस्मृतिसंहिता केर प्रायश्चित्ताध्याय मे कहल गेल अछि जे एहि संसार मे जतेको स्वकर्मरहित द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) छथि, हुनका पवित्र करबाक लेल ब्रह्मा द्वारा ‘संध्या’ केर उत्पत्ति कयल गेल। राति वा दिन मे जे कोनो अज्ञानवश विकर्म भऽ जाय, ओ त्रिकाल-संध्या कयला सँ नष्ट भऽ जाइत अछि।
यावन्तोऽस्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थास्तु वै द्विजाः।
तेषां वै पावनार्थाय संध्या सृष्टा स्वयम्भुवा॥
निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत।
त्रैकाल्यसंध्याकरणात् तत्सर्वं विप्रणश्यति॥
(याज्ञवल्क्यस्मतिसंहिता प्रायश्चित्ताध्याय ३०७)
निष्कर्षः
हमरा लोकनि जे संस्कार अपन विज्ञ पुरुखा सब सँ सीखलहुँ तेकरा अनुकरण आ निर्वहन करैत रहला सँ वेदान्त जीवन जियैत रहब, से सब कियो जरूर आत्मसात करी।
हरिः हरः!!