भक्ति आराधनाः नवरात्रि विशेष
– प्रवीण नारायण चौधरी
आउ बंधुगण! आइ माँके शरणमें क्षमास्तोत्र के स्तुति करी। शंकराचार्य द्वारा रचित इ सुन्दर स्तोत्रकेँ हम सभ नित्य-प्रतिदिन भजन-स्मरण करी। हमर आग्रह अछि जे एकर संस्कृतरूप पढलाक बाद अपन मीठ मैथिली मे जरुर मनन करब, कारण एहेन अमृतमय विनतीक एक-एक भाव जखन आत्मसात करब तखन एकर अथाह प्रभाव सँ आत्मसात करबाक अवसर सेहो भेटत। नवरात्राक समय सगरो जहान मे केवल माताक जयकारा लागि रहल अछि। सबतैर लोक मायकेर शरण मे ठेहुनिया रोपिकय अपन जीवन धन्य कय रहला अछि। एहि सुन्दर बेलामे मायक ई विनतीक विशेष अर्थ छैक। हमरा पूर्ण उम्मीद अछि जे मैथिली जिन्दाबादकेर पाठक सेहो एहि सँ भरपूर लाभ उठेता। जय माँ!!
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥१॥
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥२॥
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥३॥
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥४॥
परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥५॥
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥६॥
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥७॥
न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः॥८॥
नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥९॥
आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥१०॥
जगदम्ब विचित्रमत्र किं
परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराधपरम्परापरं
न हि माता समुपेक्षते सुतम्॥११॥
मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥१२॥
श्रीशंकराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं – ॐ तत्सत्!
माँ! हम नहिये मन्त्र जानैत छी, न यन्त्र; अहो! हमरा तऽ स्तुतिके सेहो ज्ञान नहि अछि। न आवाहनके पता अछि, न ध्यान के। स्तोत्र आ कथाके सेहो जानकारी नहि अछि। नहिये अपनेक मुद्रा सभके जनैत छी आ नहिये हमरा व्याकुल होइत विलाप करय अबैत अछि; लेकिन एक बात जनैत छी, केवल अपनेक अनुसरण – अपनेक पाछू चलब। जे कि सभ प्रकारके क्लेशके – समस्त दुःख-विपत्तिके हरयवाला होइछ॥
सभके उद्धार करयवाली कल्याणमयी माता! हम पूजाके विधि नहि जनैत छी, हमरा पास धनके सेहो अभाव अछि, हम स्वभाव सऽ आलसी सेहो छी तथा हमरा सऽ ठीक-ठीक पूजाके सम्पादन सेहो नहि भऽ सकैत अछि; एहि सभ कारणसँ अपनेक चरणके सेवामें जे त्रुटि रहि गेल अछि, ताहि लेल क्षमा करब; किऐकि कुपुत्रके भेनाय सम्भव छैक, मुदा कतहु कुमाता नहि होइत छथि॥
माँ! एहि पृथ्वीपर अपनेक सीधा-सादा पुत्र तऽ बहुतो अछि, किंतु ओहि सभमें हमहीं काफी चपल अपनेक बालक थिकहुँ; हमरा जेहेन चञ्चल केओ विरले होयत; किऐकि संसारमें कुपुत्रके भेनाय सम्भव छैक, मुदा कतहु कुमाता नहि होइत छथि॥
जगदम्ब! माता! हम अपनेक चरणके सेवा कहियो नहि कैल, देवि! अपनेकेँ कहियो अधिक धन सेहो समर्पित नहि कैल; तथापि हमरा एहेन अधमपर जे अपने अनुपम स्नेह करैत छी, एकर कारण यैह अछि जे संसारमें कुपुत्र पैदा भऽ सकैत छैक, मुदा कतहु कुमाता नहि होइत छथि॥
गणेशजीके जन्म देवयवाली माता पार्वती! अन्य देवता सभके आराधना करैत समय हमरा नाना प्रकारके सेवामें व्यग्र रहय पड़ैत छल, एहि हेतु पचासी वर्ष सऽ अधिक अवस्था बीत गेलापर हम सभ देवतागणके छोड़ि देलहुँ, आब हुनक सेवा-पूजा हमरा सऽ नहि भऽ पवैत अछि; अतएव हुनका लोकनिसँ कोनो सहयोग भेटबाक आशा नहि अछि। एहि समय यदि अपनेक कृपा नहि होयत तऽ हम अवलम्बरहित भऽ के किनका शरणमें जायब॥
माता अपर्णा! अपनेक मन्त्रके एक अक्षर सेहो यदि कानमें पड़ि जाय तऽ ओकर फल एहेन होइछ जे कि मूर्ख चाण्डाल सेहो मधुपाकके समान मधुर वाणीके उच्चारण करयवाला उत्तम वक्ता बनि जैछ, दीन मनुक्ख सेहो करोड़ों स्वर्ण मुद्रा सऽ सम्पन्न भऽ के चिरकालतक निर्भय विहार करैत रहैछ। जखन मन्त्रके एक अक्षरके श्रवणके एहेन फल अछि तऽ जे लोक विधिपूर्वक जपमें लागल रहैत छथि, हुनक जपसँ प्राप्त होवयवाला उत्तम फल केहेन हेतैक! एकरा के मनुष्य बुझि सकैत अछि॥
भवानी! जे अपनेक अङ्गमें चिताके राख-भभूत लपेटने रहैत छथि, जिनक विषे भोजन थिकन्हि, जे दिगम्बरधारी अर्थात् नग्न रहनिहार छथि, मस्तकपर जटा आ कण्ठमें नागराज वासुकिके हारके रूपमें धारण करैत छाथि तथा जिनकर हाथमें कपाल (भिक्षापात्र) शोभा पबैत अछि, एहेन भूतनाथ पशुपति सेहो जे एकमात्र ‘जगदीश’ के पदवी धारण करैत छथि, एकर कारण कि छैक? एहेन महत्त्व हुनका कोना भेटलन्हि; ई सभ केवल अपनेक पाणिग्रहणके परिपाटीक फल थीक; अपनहि संग विवाह भेलाके कारण हुनक महत्त्व बढि गेलन्हि॥
मुखमें चन्द्रमाके शोभा धारण करयवाली मा! हमरा मोक्षके इच्छा नहि अछि, संसारके वैभवके सेहो अभिलाषा नहि अछि; नहिये विज्ञानके अपेक्षा अछि, नहि सुखके आकाङ्क्षा; अतः अपने सँ हमर केवल यैह याचना अछि कि हमर जन्म ‘मृडानी, रुद्राणी, शिव, शिव, भवानी’ – एहि नामके जप करैत बितय॥
माँ श्यामा! नाना प्रकारके पूजन सामग्री सऽ कहियो विधिपूर्वक अपनेक आराधना हमरा सऽ नहि भऽ सकल। सदिखन कठोर भावके चिन्तन करयवाली हमर वाणी कोन-कोन अपराध नहि कयलक अछि! तैयो अपने स्वयं प्रयत्न कय केँ हमरा सन अनाथपर जे किञ्चित् कृपादृष्टि रखैत छी, माँ! ई केवल अपनहि योग्य अछि। अपने-समान दयामयी माता मात्र हमरा सनके कुपुत्रकेँ सेहो आश्रय दय सकैत छथि॥
माता दुर्गा! करुणासिन्धु महेश्वरी! हम विपत्तिमें फँसिकय आइ जे अपनेक स्मरण करैत छी (पहिले कहियो नहि करैत रहलहुँ) एकरा हमर ठकबुद्धि नहि मानि लेब; किऐक तऽ भूख-प्यास सऽ पीड़ित बालक केवल मायकेर स्मरण करैत अछि॥
जगदम्ब! हमरा पर जे अपनेक पूर्ण कृपा बनल अछि, एहिमें आश्चर्यक कोन बात छैक, पुत्र अपराध पर अपराध किऐक नहि करैत जाइत हो, तहियो माता कहियो ओकर उपेक्षा नहि करैत छैथ॥
महादेवि! हमर समान केओ पातकी नहि अछि आ अहाँ समान दोसर किओ पापहारिणी नहि अछि; एहेन जानिकय जे उचित बुझा पड़य, वैह करू॥
हरिः हरः!!