स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
लङ्काकाण्ड – पाँचम अध्याय
।चौपाइ।
शुक – मुख – वचन शुनल लङ्केश । मूढ़ तोर जानल बुढ़ वेश ॥
शुक गुरुजकाँ की कहइछ ज्ञान । बाढ़ल मन मे बड़ अभिमान ॥
रे पापिष्ठ नगर काँ छाड़ । बसय न देब भाँड़ सम राड़ ॥
एखनहि प्राण तोर हम लेब । चर खर केँ मानब गुरु – देव ॥
किङ्कर जानि कयल प्रतिपाल । सिंहक शासक शुभ्र शृगाल ॥
रे हम त्रिभुवन शासक आज । नीति पढ़ाबय मन नहि लाज ॥
प्राण हरण करितहुँ से क्रोध । बचला पूर्व्वक गुण अनुरोध ॥
पुन जनु आबह राजद्वार । बिगड़ल बुद्धि बिलट व्यवहार ॥
वानर – नख – दन्तक विष देह । औषध करह जाय निज गेह ॥
जोड़ल हाथ कम्प बड़ अङ्ग । चलल भवन भय मानक भङ्ग ॥
मन मे शुक कह महाप्रसाद । हेतु कि ककरहु कहब समाद ॥
शुक ब्रह्मिष्ठ छला द्विज जाति । वानप्रस्थ – विधि – रत दिन राति ॥
देव – वृद्धि सुख हो अभिराम । यज्ञ करथि असुर – क्षय – काम ॥
वज्रदंष्ट्र एक राक्षस घोर । आयल आश्रम बनि केँ चोर ॥
अयला ततय अगस्ति महान । शुक पाहुनक कयल सन्मान ॥
जखना कुम्भज गेला नहाय । वज्रदंष्ट्र तनि वेष बनाय ॥
छाग मांस होइछ मन खाइ । कहलनि तृप्त निजाश्रम जाइ ॥
शुक बनबाओल तेहने पाक । मुनि विलम्ब पूजा सन्ध्याक ॥
से राक्षस पुन चूपहि चूप । आयल बनि शुक – वधू स्वरूप ॥
मानुष – मासु परसि देल पात । अन्तर्हित अपने भय कात ॥
मानुष – मांस अमेध्य विचार । घोर कोप मुनि – मन सञ्चार ॥
रे शुक राक्षस हो तोँ जाय । मानुष – मांस तोँ दितैँ खोआय ॥
शुक – मन शुष्क कहल मुनि जैह । छाग मांस भोजन विधि सैह ॥
मुनि मुहूर्त भरि कयलनि ध्यान । जानल कर्म्म कयल केओ आन ॥
कहल अगस्ति तोहर नहि दोष । शाप अकारण मन घन रोष ॥
रामक जखन होयत अवतार । दशवदनक बनबह तोँ चार ॥
रामक दर्शन सौँ छुट शाप । कर जनु शुक किछु मन मे ताप ॥
शुक ब्राह्मण राक्षस तन पाय । भोगल कर्म्म लिखल कत जाय ॥
वैखानस सङ्ग कर तप वेश । राक्षसताक रहल नहि लेश ॥
।चौबेल छन्द।
शुक निष्काशन कयल दशानन, तखन कहल भल माल्यवान ॥
की निश्शङ्क चित्त लङ्कापति, कपि – डङ्का शुनि पड़य कान ॥
अपनहुँ आँखि प्रबल दल देखल, अपने काँ के कहत आन ॥
श्रीरघुवर परमेश समागम, नृपवर भय रहु सावधान ॥
सीता देल जाय रघुवर केँ, काल – दण्ड कर तनिक बाण ॥
शपथ खाय हम सत्य कहै छी, नहि तौँ बचत न अहँक प्राण ॥
कोटि कोटि हनुमान अधिक-बल, नख – दन्तायुध चढ़ल शाण ॥
प्रात पुरी प्रवेश करत सभ, शत शङ्कर नहि करत त्राण ॥
यदवधि सीता हरि आनल अछि, असगुन होइछ पुरी आबि ॥
तकरो शान्ति सविधि होमक थिक, काटल जाय अनिष्ट भावि ॥
रामचन्द्र नारायण निश्चय, तनिक चरण मे करु भक्ति ॥
जननी वैदेही का मानू, हरिमाया वर-आदि-शक्ति ॥
शुनि दशभाल लाल – लोचन कह, यम – कुबेर काँ हमर त्रास ॥
वानर – बल – आश्रित दुइ भ्राता, होयता राक्षस – जनक ग्रास ॥
जाह जाह घुरि एतय न आबह, बहुत वृद्ध गत-बुद्धि – ज्ञान ॥
रामचन्द्र दिशि मिलि आयल छह, ततहि जाह निर्व्वाह मान ॥
।सवैया।
गिरिवर – उच्च सौध पर रावण बैसल बर – मन्त्री – गण सङ्ग ॥
कथक गाब रसभाव सुखद स्वर विविध ताल लय बाज मृदङ्ग ॥
मन्दोदरी निकट पट – भूषण – शोभित छथि शुनइत वर गान ॥
मदिरा पान – पात्र शोभित थल त्रास नाश अतिशय अभिमान ॥
रावण घन मुकुटाली चपला मन्दोदरी – श्रवण – ताटङ्क ॥
रावण काँ देखल रघुनन्दन भेल कोप मन भ्रुकुटी वङ्क ॥
दश किरीट अवदात छत्र महि खसल चलल रघुवर – कर तीर ॥
की थिक की थिक दशमुख लज्जित कहल बहल नहि प्रबल समीर ॥
।सोरठा।
शयन – भवन चललाह, मुकुट छत्र खसलय विमन ॥
पुन कहि हँसि उठलाह, शिर कटलय बढ़इछ विभव ॥
।मिथिला-सङ्गीतानुसारेण जयकरी छन्दः।
मन्दोदरि असगुन मन मानि । दैवक हतमति काँ नित हानि ॥
राम – अनादर – फल परिणाम । कुशल कतहु रह लङ्का गाम ॥
तखनहि सौँ मन बढ़ आतङ्क । खसल अकारण श्रुति-ताटङ्क ॥
रावण काँ कहलनि सति रीति । मर्य्यादा कत जतय अनीति ॥
हमरहु दुख देखी हित हानि । गेलहुँ वर्षा बाँधी पानि ॥
राम विमुख सुख-सिन्धु सुखाय । वधिर अन्ध कह जन-समुदाय ॥
अपमानित सोदर निर्भीत । घर-विरोध नाशक पथ थीक ॥
अपने काँ अछि कोप प्रचण्ड । नीति कहथि से पाबथि दण्ड ॥
।सवैया छन्द।
कहइत नीति लात सौँ मारल नेह न राखल सोदर भाय ।
गेला विभीषण विश्वकर्म्म-सुत नलसौँ राम समुद्र बन्धाय ॥
हनूमान वानर से आयल लङ्का मे गेल आगि लगाय ।
प्राणनाथ निश्शङ्क वृथा छी बाढ़ल जाइछ विपति सवाय ॥
।रावण-वचन।
की करताह आबि लङ्का मे जनिकाँ वानर भालु सहाय ।
प्रेयसि शुनु चिन्ता मन जनु करु कुम्भकर्ण सन हमरा भाय ॥
जगइत छथि एको नहि बचता सभ कपिदलकेँ जैथिनि खाय ।
जिबइत पकड़ब दुनू भाइ काँ तखन तमाशा देखब जाय ॥
।मन्दोदरी-वचन।
देखल तमाशा लङ्का जरइत अक्षय बेरि नहि भेलहुँ सहाय ।
आ परमेश्वर थिकथि निरञ्जन माया – मानुष देह बनाय ॥
अनुज न तनुज न अपन सुतनु नहि सेना रक्षा करति कि हाय ।
लौकिक उपलक्षणक भेल क्षण टिटही टेकल पर्व्वत जाय ॥
।सोरठा।
करइछ सभ कृति काल, कहल बहुत मन्दोदरी ।
मानल नहि दशभाल, चिन्तहिँ बिताल विभावरी ॥
।जयकरी छन्द।
इत प्रातहि जागल रघुवीर । जय जय ध्वनि कर कपि रणधीर ॥
आज्ञा देल जाय रघुनाथ । आनिय बाँधि वैरि दशमाथ ॥
सानुज राम विभीषण नाम । सह सुग्रीव सभा एकठाम ॥
भेल विचार करक की आज । अयलहुँ चढ़ि दशकण्ठ-समाज ॥
कहल प्रसन्न प्रथम श्रीराम । थिक कर्त्तव्य प्रथम विधि साम ॥
दूत एक रावण तट जाय । रावण काँ कह नीति बुझाय ॥
जौँ मानथि से मन मे हारि । तौँ की हेतु भयङ्कर मारि ॥
सभ अनुमति सभ कह तट जाय । टहल करब प्रभु रहब सहाय ॥
कपि-कुल बहुत चित्त उत्साह । जायब हमहिँ नाथ कहताह ॥
ककरो मन नहि ततय मलान । प्रभु प्रताप विजयक अभिमान ॥
।सोरठा।
तखन कहल रघुराज, लङ्का जयबा योग्य छथि ॥
बालि तनय युवराज, रिपु – भङ्गद अङ्गद बली ॥
बद्धाञ्जलि युवराज, उत्साही शुनितहिँ कहल ॥
स्वयंसिद्ध प्रभु काज, टहल कहल कर्त्तव्य विधि ॥
पुन कहलनि रघुराज, परम चतुर युवराज अहँ ॥
जे भल जानब काज, सिद्धि करब अरि जोति रण ॥
कयल मुदित प्रस्थान, कयल प्रदक्षिण राम पद ॥
सानुकूल भगवान, तारासुत विस्तार बल ॥
देखल राक्षस-लोक, पुन पुर अबइछ एक कपि ॥
केओ रोक नहि टोक, चौँकि पड़ायल विकल-मन ॥
।मन्दाक्रान्ता छन्द।
की रे की रे कह कि झट दै मूह कीयै सुखैलौ ।
वीरे वीरे बहुत जन छी त्रास की हेतु भेलौ ॥
हाँ हौ हाँ हौ विपति बड़ छौ काल लङ्का समैलौ ।
लङ्काध्वंसी कपिक सदृशे दोसरो फेरि ऐलौ ॥
।जयकारी छन्द।
लङ्का – नगर कोलाहल ढेर । पुर – दाहक कपि आयल फेर ॥
के कर भानस खायत भात । हृदय काँइ जनु पीपर – पात ॥
घरघर सभजनि कह हिय हारि । भल नहि भावि भयङ्कर मारि ॥
एकओ गोटय जनु बाहर जाह । अछि संप्राप्त समय अधलाह ॥
रावण काँ कह सभ जन जाय । कृत सभ तनिके करथु उपाय ॥
प्रलय करत दौड़त कपि सर्व्व । व्यर्थ करथि घर रावण गर्व्व ॥
की घर छथि रावण बहराथु । अपनहिँ राम – शरण मे जाथु ॥
घर रहलैँ न सिद्धि हो काज । झपटल बगड़ा ऊपर बाज ॥
करथु सन्धि जौँ जन-भल चाह । विग्रह सौँ नहि अछि निर्व्वाह ॥
धर्म्ममूर्त्ति रावण – छोट-भाय । तनिकहु राम लेल अपनाय ॥
रावण निकट कहल जन जाय । रावण देखल आँखि उठाय ॥
।शार्दूलविक्रीड़ित।
लङ्का मे कपि एक आयल बली, निश्शङ्कता की कहू ।
की ओ फेरि अनर्थ जारत पुरी, से वृत्त बूझू अहूँ ॥
निद्राहार – विहार – शून्य नगरी, हा कष्ट की की सहू ।
आबैयै कि सभा कहै किछु कथा, लङ्केश सज्जे रहू ॥
।चौपाइ।
स्मितमुख कहलनि रावण नीक । लय आनह कपि के ओ थीक ॥
एक कहयित दश दौड़ल धाय । अङ्गद काँ लय चलल बजाय ॥
हरिणाधिप गजराज – समाज । जेहन निशङ्क तेहन युवराज ॥
कह से कह कत चलल लेआय । रावण अछि कत दैह देखाय ॥
शशि – रविकुल वर – वनिता – रत्न । छल हरि अनलक चोर प्रयत्न ॥
कालानल सन रघुपति – वाण । जे जरता गय शलभ समान ॥
देखि सभासद सभ भेल ठाढ़ । दशमुख – हृदय कोप बड़ बाढ़ ॥
देखल परस्पर से सभ रूप । सभा सकल जन कत छन चूप ॥
रावण पुछलनि परिचय नाम । ककर दूत की अचि मन काम ॥
देव-शत्रु – पुर मे की काज । त्रास-रहित कहु करु जनु व्याज ॥
।वसन्ततालिका।
श्री रामचन्द्र – परमेशक दूत जानू ।
लङ्का – निशाचर समस्तक काल मानू ॥
बाली बली सकल जानल शौर्य्य से टा ।
उद्दण्ड अङ्गद तनीक थिकौँह बेटा ॥
।जयकरी छन्द।
एतय पठाओल जय प्रभु राम । उचित प्रथम भूपति काँ साम ॥
विधि – प्रपौत्र शिव – द्विगुण सुभाल । अनुचित पथ चढ़लहुँ एहि काल ॥
जगदम्बा वन सौँ हरि आनि । मोह – विवश नहि जानल हानि ॥
सीता काँ माता मन मानि । करू समर्प्पण रामक पानि ॥
कपि – दल आयल सागर – पार । रिपुदल – तूलराशि – अङ्गार ॥
पिती हमर छथि रामक सङ्ग । तनिक चरण मे प्रीति अभङ्ग ॥
जानि बूझि मन जनु अनठाउ । रामचरण मे माँथ लगाउ ॥
नव लङ्केश्वर अहँ काँ भाय । सुख सौँ छथि प्रभु – दास कहाय ॥
हम देखल प्रभु – वाण – प्रताप । बाण प्राण – हृत हमरा बाप ॥
काल न जीति सकथि सङ्ग्राम । जानू परमेश्वर छथि राम ॥
वचन हमर हित धरब न कान । तौँ भावी जानू अछि आन ॥
हमर जनक काँ विश्व चिन्हार । के कर समर शूर – व्यवहार ॥
स्मितमुख रावण बजलाह आह । बड़ गुण – शालि बालि मुइलाह ॥
वानर मे नहि रहले शूर । छल छथि समर – कला – परिपूर ॥
बिलटल घर तनिकेँ तोँ पूत । अयला बनल तपस्वी – दूत ॥
ओ अछि कतय एतय जे आय । लङ्का मे गेल आगि लगाय ॥
मारल गेल न दूत – विचार । नीति सौँ भरल हमर व्यवहार ॥
यम कुबेर लड़ि लड़ि पछताथि । के नहि हमरा डरैँ नुकाथि ॥
वनिता – विरही गत – उत्साह । मानुष असुख समुख लड़ताह ॥
देखलनि लङ्का घुरि घर जाथु । चारू खूट माँगि केँ खाथु ॥
हमरा जिबइत हमर कनिष्ठ । लङ्केश्वर बनलाह बलिष्ठ ॥
ई अन्याय बालि काँ भाय । रामक से छथि मुख्य सहाय ॥
किष्किन्धा भेल वीर – परोक्ष । सुग्रीवे छथि प्रबल महोक्ष ॥
देखलहि लङ्का मन भेल त्रास । त्यागल सभ जन जीवन – आश ॥
दूत बनल अङ्गद लयलाह । राजपुत्र – बल पाओल थाह ॥
मन मे बाढ़ल समुचित धन्धि । अभिप्राय की होयै सन्धि ॥
बालिक तनय कतहु नहि चूक । हसि हसि कहलनि फूजल ऊक ॥
वानर मे करु काल – प्रतीति । लज्जारहित सकथि जग जीति ॥
घर समटल अछि अहँइक आज । प्रेत – समान कर्म्म नहि लाज ॥
लङ्का कपि आयल एक गोट । सुग्रीवक से अनुचर छोट ॥
राक्षस – जन सौँ बाँधल जानि । वनचर अनुचर गञ्जन मानि ॥
शाखामृग वन रहल नुकाय । विनु आज्ञा कयलक अन्याय ॥
निजजन – गञ्जन समुचित पाय । देवतारि – पुर अनल लगाय ॥
छोड़ि – देलक अछि सेव्य-समाज । बहुत गलानि मानि मन आज ॥
निज घर शूर समटु मन रोष । बलक थाह पाओल भरि रोष ॥
शङ्कर किङ्कर कर पद – ध्यान । रामक तुलना के कर आन ॥
लङ्केश्वर अहँ काँ लघु भाय । सुपथ चलनि उत्तम पद जाय ॥
लङ्का उलटक तन – सामर्थ्य । प्रलय करब ई यश बुझि व्यर्थ ॥
सन्धि समर विधि देखल नयन । महितल विकल करब अहँ शयन ॥
।शार्दूलविक्रीड़ित।
एके गोट समुद्र लाँघि अयला, लङ्कापुरी डाहि केँ ।
से की वानर-देह जानल अहाँ, गेला किला ढाहि केँ ॥
जे अज्ञात कुबुद्धि युद्ध भिड़ला, निष्प्राण से से तहाँ ।
सीतान्वेषक दूत कर्म्म बुझले, छी छिः अहाँ ओ कहाँ ॥
।सवैया छन्द।
।रावण-वचन।
अगव – खण्डन जलनिधि – बन्धन,
ब्याध बनल छल मारल बालि ।
छल सड़ले ओ जड़ मातल मृग,
शुन रे बालिक पुत्र कुचालि ॥
हमर बीश भुज सतत रहित – रुज,
अनाया कैलास उठाब ।
तोँ युवराज काज कर दूतक,
धिक मन मे नहि लज्जा आब ॥
।अङ्गद-वचन।
काँख दबाय लेल तोहरा जे,
सातो जलधिक तट तट जाय ।
सन्ध्यार्चन जे कयल महाबल,
विद्यमान तनि सोदर भाय ॥
एक तीर मारल रघुनन्दन,
बालिक रहि न सकल तन प्रान ।
शुन दशभाल गाल मारह की,
काल – विवश नहि तोहरा ज्ञान ॥
।रावण-वचन।
हमर पयर जाँतथि यमराजा, मन्द मन्द रवि किरण पसार ।
आठो लोकपाल भय – कम्पित, बद्धाञ्जलि भय वचन उचार ॥
देववधू पन्नगी आदि काँ, गर्भ स्रवित हो देखि तरुआरि ।
के थिक राम कहाँ के लक्ष्मण, वचन रचन कर सभा विचारि ॥
।अङ्गद-वचन।
शुन दशकन्ध बन्ध्य-मति लोचन, अन्ध लेश नहि भूपति ज्ञान ।
रे हतप्राण त्राण के करतौ, मृग-विशेष व्यर्थहि जनु फान ॥
श्रीरघुवर – कर-मुक्त विषम शर, खसत समर सभटा तोर भाल ।
बाल वृद्ध मिलि गृद्ध काक-कुल, क्रीड़ाकुल सञ्चरत शृगाल ॥
।सोरठा।
।रावण-वचन।
रे शाखामृग मूढ़, कि करब दूत अबध्य थिक ।
भूप-नीति बड़ गूढ़, अङ्ग – भङ्ग अङ्गद करब ॥
।अङ्गद-वचन।
सुयश तकय नहि सोर, रे रे राक्षस अधम तोँ ।
धिक धिक वनिता – चोर, शूर्प्पनखा-गति हम करब ॥
।रोला छन्द।
।अङ्गद-वचन।
प्रतीहोर रवि हमर, अमरपति मालाकारक ।
वरुण वायु गृह बाढ़, मार्ज्जनी भृत्य अगारक ॥
दिनकर धर कर छत्र, पाककर्त्ता नित हुतबह ।
रक्षभक्ष्य की हमर, समर मे तुलना करबह ॥
।षट्पद छन्द।
।अङ्गद-वचन।
रे रे कुमति कठोर मनुष – गणना रघुनन्दन ।
नदी कि गङ्गा होथि वृक्ष की छथि हरिचन्दन ॥
की ऐरावत करटि इन्द्र – बाजी की छथि हय ।
स्त्री की रम्भा होथि मूढ़मति शुन रे निर्भय ॥
की कृतयुग युग मे थिकथि धन्बी मनसिज के गणत ।
जनि प्रताप त्रिभुवन प्रकट हनूमान कपि के कहत ॥
।रोला छन्द।
।रावण-वचन।
कुल – कलङ्क – प्रद पुत्र कतहु जनु देथि विधाता ।
बरु जन सहथु विषाद रहथु बन्ध्या भय माता ॥
धिक अङ्गद युवराज तपस्वी – दूत कहाबय ।
जे मारल छल बालि तनिक जय सतत मनाबय ॥
।सोरठा।
।अङ्गद-वचन।
उचित कयल रघुनाथ, जे वनपति देल दिव्य गति ।
बचत की तोहर माँथ, परवनिता-गण – चोर खल ॥
।षट्पद छन्द।
।रावण-अङ्गद – वचन।
बाँधल किदहुँ समुद्र, अमर-अरि-घर नहि जानल ।
कत हम त्रिभुवनजयी, कतय मर्कट हठ ठानल ॥
हसि कह बालि-कुमार, सत्य – संकल्प राम – घन ।
बरिसत कर नाराच, बचत तोहर नहि हित जन ॥
एक विभीषण कुशल-मति, लङ्कापति बनले रहत ।
छिन्न भिन्न रावण सकुल, शोणित-मय सरिता बहत ॥
।सबैया छन्द।
।रावण-वचन।
बाँधल बाँध जलधि मे वानर,
नहि आश्चर्य्य विदित व्यवहार ।
पर्व्वत सन कर उच्च मृत्तिका,
अति लघुतर हो कीट दीबार ॥
लङ्का दग्ध कयल कपि चञ्चल,
से जानक थिक अनल – स्वभाव ।
राम-प्रताप एखन धरि नहि किछु,
हम देखल अछि होयत कि आब ॥
।शार्दूल-विक्रीड़ित छन्द।
।अङ्गद-वचन।
गेली सूर्प्पनखा नटी कपटिनी गोदा – तटी धर्क्कटी ।
श्रीरामानुज-तीक्ष्ण-खड्ग लगलैँ ख्याता मही नक्कटी ॥
लै सेना खरदुषणादि लड़ला गेला कहाँ से कहू ।
सीतावल्लभ सौँ विरोध कयलैँ से ठाम जैबे अहूँ ॥
।सवैया छन्द।
।रावण-वचन।
अपनहि हाथ माँथ दश काटल,
होम कयल नहि किछु मन त्रास ।
अति प्रसन्न गौरीश देल वर,
नव नव शिर भेल मन भेल हास ॥
बाँचल विधिक लेख निज भाल मे,
मरण मनुष्य – हाथ सौँ पाब ।
सकल – लोक – जित बिश भुज हमरा,
विधि अति वृद्ध ज्ञान नहि आब ॥
।अङ्गद-वचन।
पतिहीना दीना अबला कत, करय निराकुल अनल – प्रवेश ।
अथवा इन्द्रजाल – विज्ञानी, काटय अङ्ग दुःख नहि लेश ॥
शुन रावण आब न मुख लज्जा, निज-मुख निज-गुण वर्ण न कयल ।
अक्षयकुमार मारि पुर जारल, तनि कपिकाँ किय बाँधि न धयल ॥
।दोहा।
कीर्त्तवीर्य्य बलि बालि की, नहि त्रुभुवन सौँ भिन्न ।
तनि प्रताप अनुभव अहँक, मन होइछ नहि खिन्न ॥
।सोरठा।
।रावण-वचन।
के थिक मानव राम, के लक्ष्मण हनुमान के ।
करत कठिन सङ्ग्राम, हम रावण सुरपति-जयी ॥
।सोरठा।
।अङ्गद-वचन।
लक्ष्मण – कृत धनु रेख, लाँघि न सकला शून्य मे ।
हनूमान – बल देख, मान-रहित लङ्का कयल ॥
।रूपमाला।
।अङ्गद-वचन।
बालि – सुत रघुनाथ – चरणक दास अङ्गद नाम ।
मारि तोहरा आज दशमुख करब चौपट गाम ॥
जनकजा मन्दोदरी काँ संग लेब लगाय ।
देब हम पहुँचाय प्रभु-तट विजय-वाद्य बजाय ॥
।षट्पद छन्द।
।रावण-वचन।
धर धर कपि वाचाल काल बनि हिनका मारब ।
के अछि त्रिभुवन शूर जतय हम रण मे हारब ॥
सकल सैन्य सन्नद्ध मार मर्क्कट काँ धय धय ।
त्रास – रहित चल लड़य पराक्रम सङ्गर कय कय ॥
धर तपसी दुहु भाय काँ, मार विभीषण अनुज खल ।
रावण आज्ञा देल हम, वार्ता दय दे सकल थल ॥
।अङ्गद-वचन।
थिर रह रे दशभाल काल हम तोहर अयलहुँ ।
जयबह कतय पड़ाय चोर काँ चीन्हल धयलहुँ ॥
पटकल महि भुजदण्ड चण्ड-धुनि दश दिश व्यापल ।
खसल दशानन – मुकुट मही ओ महिधर काँपल ॥
चपल-कोप युवराज तहँ, बाज – जकाँ तहिपर टुटल ।
प्रभु-तट फेकल मुकुट से, चारू जनु नृप-गुण लुटल ॥
।दोहा।
उत कपिदल हलचल सकल, अरिपुर सौँ की चारि ।
अबइछ अछि ग्रहवेग सौँ, रविमण्डल-अनुकारि ॥
।सोरठा।
हनूमान उड़ि धैल, रवि-उज्ज्वल मुकुटावली ।
सभक स्वस्थ मन कैल, उल्कापातक दिवस भ्रम ॥
हसि कहलनि भगवान, अङ्गद – प्रेषित तर्क्क हो ।
करत एहन के आन, राक्षसेन्द्र-शिर-मुकुट हर ॥
।चौपाइ।
बड़ कौतुक प्रभु मुकुट निहार । अङ्गद – धन्यवाद उच्चार ॥
उत दशकन्धर मौन विचार । देखि बालि – सुत – बल-विस्तार ॥
त्रस्त अस्त – बल जेहन बटेर । बलि – युवराज – बाज – बल हेर ॥
जाइतछी कहलनि युवराज । अछि कर्त्तव्य आगु किछु काज ॥
करता रघुनन्दन भगवान । रावण – मुण्डावलि बलिदान ॥
कह रावण मर्क्कट काँ घेर । करत अनर्थ कि चलती बेर ॥
कह अङ्गद हसि वचन प्रमान । अनल – पटल जानथि हनुमान ॥
अङ्गद धरणी रोपल चरण । रावण – गण – मन-संशय – हरण ॥
महि सौँ जे देत चरण उखारि । से विजयी हम मानब हारि ॥
कय बल राक्षस सुभट उठाब । उठय न पद प्रभु – राम – प्रभाव ॥
सभ कह मन मन अदभुत कीश । भेल विपक्ष बुझल जगदीश ॥
रावण चरण धरय चललाह । अङ्गद देखितहिँ हसि उठलाह ॥
कयलह रघुनन्दन सौँ बैर । ककर ककर नहि धरबह पैर ॥
रावण लज्जित बैशला घूरि । अङ्गद लेल प्रतिज्ञा पूरि ॥
अङ्गद चलल उठल दरबार । रावण गेला वनितागार ॥
मन्दोदरी कहथि शुनु नाह । लङ्कावास कठिन निर्व्वाह ॥
यद्यपि अहाँ कयल बड़ दोष । श्री रघुनन्दन काँ नहि रोष ॥
दूत पठाओल बालि – कुमार । अहँक कयल नहि किछु अपकार ॥
ठानल हठ नहि मानल नीति । धम्म विरोध पाप सौँ प्रीति ॥
वानर एकसर नगरी जार । विधि जौँ बाम बाम संसार ॥
अङ्गद – चरित देखल सभ नयन । सकल पराक्रम सम्प्रति शयन ॥
कयल विसर्जन सचिव – प्रधान । हितकर वचन धरय के कान ॥
।सबैया छन्द।
जनिक दूत वानर एक आयल, निर्भय सौँ लङ्का – पुर जारि ।
से हसि गेल कयल की तनिकर, ककरा ककरा सौँ करिं मारि ॥
कालरात्रि सीता काँ आनल, ई की जानल प्राकृति नारि ।
काल – विवश लङ्केश्वर निश्चय, भावी विषय शकय के टारि ॥
।रूपक दण्डक।
शुनु प्राणेश सत्य मन मानू
जिबितहिँ छथि से बाली, बलशाली ।
सकल सभा काँ अङ्गद-बल-चय
अनुभव समर – प्रणाली, वागाली ॥
जनिक विलोचन बसथि अनुक्षण
लहलह – रसना – बाली, कङ्काली ॥
लङ्कावास निराश, भेल मन
सुख सौँ बसथु शृगाली, काकाली ॥
।चौपाइ।
उत अङ्गद – मन हर्ष अपार । पहुंचल कुशल प्रभुक दरबार ॥
प्रभुक प्रदक्षिण कयल प्रणाम । अङ्गद राखल बालिक नाम ॥
राम पुछल कहु कहु युवराज । लङ्का जाय कयल की काज ॥
अङ्गद कहल दशानन गर्व्व । प्रभुक प्रताप हरल हम सर्व्व ॥
सन्धिक प्रिय नहि खल दशभाल । पयःपान निर्विष नहि व्याल ॥
अबइछ रावण – सैन्य अपार । कयल जाय प्रभु समर – विचार ॥
प्रभु प्रधान काँ देल निदेश । प्रातहिँ युद्ध करत लङ्केश ॥
सावधान रहु कपि – दल राति । मायामय थिक राक्षस – जाति ॥
सभ छल शयन प्रभुक बल पाय । जागल अङ्गद मात्र सहाय ॥
नाम प्रभञ्जनि राक्षसि जाति । रावण – प्रेरित आइलि राति ॥
से पापिनि काँ मुख्य विचार । सानुज रामक करब संहार ॥
कल कौशल जौँ सिद्ध उपाय । मूलच्छेदैँ वृक्ष सुखाय ॥
देखलनि अङ्गद धयलनि झोँट । लतिअओलैँ भेली लोटपोट ॥
अति चीत्कार करय से लाग । शब्द शुनल कपि – दल भेल जाग ॥
धर धर पकड़ पकड़ भेल सोर । जाय पड़ाय न राक्षस चोर ॥
केओ भूधर केओ वृक्ष उखाड़ । मार मार लङ्कापुर – राड़ ॥
परिपूरित भेल कतय न शब्द । प्रलयकाल जनि गर्जय अब्द ॥
दशवदनक मुह गेल सुखाय । मुइलि प्रभञ्जनि गञ्जन खाय ॥
कह मन रावण हमरे भाय । बाट घाट सभ देल देखाय ॥
कपिदल मन किछु त्रास न पाब । पुर स्वाधीन जकाँ चल आब ॥
हमरा बालि केँ बैरी भाय । पोसल पन्नग दूध पिआय ॥
कपि चञ्चल – बल की करताह । अनल शलभ सन सब जरताह ॥
गञ्जित मुइलि प्रभञ्जनि जाय । उचित न शत्रुक विजय उपाय ॥
निज प्रधान काँ कहल सकोप । प्रथम करह वानर – बल लोप ॥
शुनितहिँ चलल पटह देल चोट । कातर जीव न एको गोट ॥
गोमुख भेरी बाज मृदङ्ग । पणवानक गोमुख भल रङ्ग ॥
महिष ऊँट खर सिंह सवार । वाहन विविध प्रवह सञ्चार ॥
शूल चाप तोमर तरुआरि । पाश यष्टि शक्तिक भल मारि ॥
लङ्का सकल द्वार सौँ व्यूह । चलल बहुत उत्साही मूह ॥
एतय राम – अनुशासन पाय । कपि – दल चलल न रण पछुआय ॥
केओ गिरि-शृङ्ग-शिखर कर धयल । तरु उखाड़ि केँ आयुध कयल ॥
दल सन्नद्ध सकल छल ठाढ़ । वीरोत्साह बहुत मन बाढ़ ॥
करब दशानन – सुभट संहार । मन मन कपिदल करथि विचार ॥
रोकल लङ्का चारू द्वारि । कपि – दल प्रबल मचल बड़ मारि ॥
कोटि कोटि यूथप एक बेरि । लङ्का नगर सगर लेल घेरि ॥
खन उड़ गगन मही घुरि आब । गर्ज तर्ज्ज कपि चपल – स्वभाव ॥
अतिबल राम जयति जयवीर । तथा महाबल लक्ष्मण धीर ॥
राघव – पालित जय कपिराज । सिद्ध मन्त्र रण वानर बाज ॥
।षट्पद छन्द।
पवन – तनय युवराज, कुमुद नल नील महाबल ।
शरभ केसरी द्विविद, तार वानर भट भल भल ॥
जाम्बवान दधिवक्त्र, मैन्द यूथप लङ्का काँ ।
रोकल सगरो नगर, फानि बाढ़ल तङ्का काँ ॥
तरु पर्व्वत नख दन्त सौँ, राक्षस बल कयलनि विकल ।
युद्ध – हेतु सभद्वार सौँ, बहरायल क्रोधी सकल ॥
।चौपाइ।
भिन्दिपाल पट्टिश तरुआरि । शूल हाथ राक्षस कर मारि ॥
शोणित मांस पूर रण पङ्क । तदपि युगल दल बड़ निःशङ्क ॥
काञ्चन – निभ हय गज रथ हाँकि । राक्षस – शूर कीश – दल ताकि ॥
करय युद्ध हो दश दिश शोर । मत्त महाभट राक्षस घोर ॥
कुपित कपीन्द्र दनुज – जय काज । राक्षस – चटक प्रकट कपि – वाज ॥
देव – अंश – सम्भव सब कीश । विद्यमान रघुवर जगदीश ॥
समर अमर कपि दनुज विनाश । अङ्कुर – ब्रीहि टिड़ी कर नाश ॥
जय हो ततय जतय रह धर्म्म । दनुज – पराजय दशमुख – कर्म्म ॥
चतुर्थांश सैन्यक भेल नाश । विचलित राक्षस – दल मन त्रास ॥
मेघनाद भेल अन्तर्धान । ब्रह्म – दत्त वर मन अभिमान ॥
गगन जाय अस्त्रक कर वृष्टि । नाना विधि अद्भुत रण – सृष्टि ॥
वानर – सैन्यक चल नहि हाथ । विकल देखि दल श्रीरघुनाथ ॥
क्षण भरि छला महाप्रभु चूप । क्रोध कयल धयलनि निज रूप ॥
लक्ष्मण हमर अजय धनु देब । ब्रह्मास्त्रहिँ हम बदला लेब ॥
तत्क्षण सभ काँ हम देब जारि । हमरा सौँ के करता मारि ॥
शुनि घननाद गेल घुरि गेह । मन मानल समरक सन्देह ॥
वानर – दल समर – क्षत – अङ्ग । ककरो छल नहि जीवक रङ्ग ॥
रघुनन्दन कह शुनु हनुमान । एखन प्रयास करत के आन ॥
क्षीर – महोदधि सत्वर जाउ । द्रुहिणाचल औषधि लय आउ ॥
अपन सकल दल विकल जिआउ । वीर – सुयश त्रिभुवन मे पाउ ॥
शुनि हनुमान पवन – जव जाय । आनल ओ गिरि सकल उठाय ॥
औषधि – बल बाँचल सभ कीश । पालक स्वयन्देव जगदीश ॥
जते सौँ आनल नग हनुमान । राखल ततहि कहल भगवान ॥
वानर – दल कर भैरव नाद । छुटल समर – श्रम मरण – विषाद ॥
मन विस्मित शुनि लङ्काधीश । कयलक कठिन काल – बल कीश ॥
विधि राघव - अरि ध्रुव निर्म्माय । वर्त्तमान देल नगर पठाय ॥
हटि नहि रहब करब सङ्ग्राम । दूरि करब नहि रावण – नाम ॥
मन्त्रि बन्धु यूथप जे शूर । करथु सकल जन आलस दूर ॥
करथु युद्ध सभ मन उत्साह । हम नहि कयल ककर निर्व्वाह ॥
हमरा कष्ट समय अछि आज । त्रासेँ घर रहता किछु व्याज ॥
अरि सम तनिकाँ हम देब मारि । अपनहिँ हाथ धरब तरुआरि ॥
त्रासेँ चलल समर सभ शूर । रण – पण्डित बल – कला – सुपूर ॥
अतिबल चलल नाम अतिकाय । तथा प्रहस्त प्रधान कहाय ॥
नाम महोदर ओ महानाद । लड़य चलल रावण अहलाद ॥
नाम निकुम्भ देव – अरि नाम । वानर सङ्ग कयल सङ्ग्राम ॥
दवान्तक एक नाम कहाब । वीर नरान्तक नाम धराब ॥
अगणित असुर कहब कत नाम । क्रुद्ध युद्ध कर जय मन – काम ॥
वानर – दल मे गेल समाय । उद्यत युद्ध कहल नहि जाय ॥
भिन्दीपाल भुशुण्डिक मारि । बाण परश्वध चल तरुआरि ॥
नाना तरहक धयलक अस्त्र । पहिरि पहिरि रण लोहक वस्त्र ॥
कपि – यूथप सङ्ग रण आघात । सहय तुरङ्ग तुरङ्गम – लात ॥
पर्व्वताग्र तरुवर नख दन्त । एहि बल कपि कर राक्षस – अन्त ॥
कत जन काँ दृढ़ मूका मार । नख सौँ तनिकर उदर बिदार ॥
कत राक्षस काँ मारल राम । कत काँ कपि देल निर्ज्जर – धाम ॥
कत राक्षस काँ अङ्गद मार । अगणित हति हनुमान प्रचार ॥
कत जन काँ लक्ष्मण कर नाश । समर जितल यूथप निस्त्रास ॥
समर – जयी कपिराज – प्रताप । ठाढ़ महाप्रभु कर शरचाप ॥
।इति।
हरिः हरः!!