कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – लङ्काकाण्ड दोसर अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

लङ्काकाण्ड – दोसर अध्याय

।चौपाइ।

रावण मन मन कर अनुमान । लङ्का डाहि गेल हनुमान ॥
बड़ आश्चर्य कहू की आन । अक्षयकुमार लेलक प्राण ॥
सभा कयल निज लोक हकारि । रावण – वचन देथि के टारि ॥
तखन सभ्य सौँ रावण कहल । गुप्त न हमर कतहु कृति रहल ॥
की कर्त्तव्य भेल बड़ घोल । बजबहि पड़य गरा पर ढोल ॥
हम राजा छी केवल नाम । सभकाँ सुख धन सम्पति धाम ॥
एक – मत रहू कहू जे नीक । समर – कार्य्य कर्त्तव्ये थीक ॥
नर वानर सौँ मानब हारि । एहि सौँ बाढ़ि दोसर की गारि ॥
सामक समय रहल नहि आब । भावी आगाँ आगाँ धाब ॥
कहु कहु निज मति जे भल रीति । श्रवण करक भल जनकाँ नीति ॥
राक्षस बहुत कहल कल जोड़ि । देल जाय चिन्ता चित छोड़ि ॥
सुरपति – विजयी सुत घननाद । अनका जय मध कोन विवाद ॥
पुष्पक लेल कुवेरक छीनि । की सम्पति नहि अपन अधीनि ॥
वरुण बेचारे मानल हारि । आज्ञा केओ सकथि नहि टारि ॥
मय भय सौँ देल कन्या आनि । भययुत की अपनैँ मन हानि ॥
वानर आबि कयल उतपात । रण – वीरत्व देखु रहु कात ॥
नर – वानर सौँ पृथिवी हीन । कय देब लागत थोड़े दीन ॥
आज्ञा प्रभु सौँ पाओत जैह । कार्य्य – सिद्धि कय आनत सैह ॥

।दोहा।

बुद्धि – विहीन कुमन्त्रणा, कुम्भकर्ण शुनि कान ।
कहल दशानन सौँ उचित, नयकोविद निज ज्ञान ॥

।रूपमाला छन्द।

चित्त दय दशकण्ठ प्रभु शुनु, कयल अहँ नहि नीक ।
कर्म्म सीता – हरण – रूपक, आत्म – नाशक थीक ॥
रामचन्द्र अनन्त ईश्वर, काल – शासन बाण ।
धनुष सौँ छुटि जखन लागत, बचत अहँक कि प्राण ॥
लेल अछि अवतार लक्ष्मी, राक्षसान्तक काज ।
काल – काली राम – सीता, प्राप्त अहँक समाज ॥
कयल यद्यपि बहुत अनुचित, स्वस्थ – मन रहु भूप ।
कहब करब सुमन्त्र जेहन, भक्ति – भाव अनूप ॥

।रोला छन्द।

शुनि सकोप कह मेघनाद की नीति विचारब ।
प्रभु-आज्ञा काँ पाबि राम लक्ष्मण काँ मारब ॥
सुग्रीवादिक सकल प्रबल मर्क्कट संहारब ।
मेघनाद हम पुत्र पिता – आज्ञा नहि टारब ॥

।घनाक्षरी।

कहल विभीषण विचार – सार बार बार
करु न विरोध बन्धु राम भगवान सौँ ।
दशमाथ – नगर अनाथ जकाँ जारि गेल
कत गोट अपमान भेल हनुमान सौँ ॥
एक गोट छोट भाय कहल कयल जाय
खलक कहल न शुनल जाय कान सौँ ।
बाली बलशालीक कुचालि पाबि आबि पुर
दिव्य गति देल मारि उर एक बान सौँ ॥

।अनुष्टुप/देश छन्द।

धरित्री-पुत्रिका देवी, त्वया नीतात्र लङ्कायाम् ।
हरेर्म्माया जगन्माता, हनूमत्प्राप्ततङ्कायाम् ॥
त्वया सा जानकी देया, न हेया सन्मतिर्ब्बन्धो ।
अजेया वानरी सेना, समायाता तटे सिन्धोः ॥
महेशः किङ्करो यस्य, विभोः श्रीरामचन्द्रस्य ।
प्रयासस्त्वाल्लये कस्स्याद्दयार्द्रञ्चेन्मनो न स्यात् ॥

।चौपाइ।

काल – विवश रावण हतज्ञान । धर्म्मकथा नहि धारण कान ॥
उलटे भाइक ऊपर कोंप । असमय धर्म्म – ज्ञान हो लोप ॥
औषध सन्निपाति नहि खाय । अनट सनट रटि यमघर जाय ॥
क्रोध दशानन पुन बजलाह । मुनि भ्राता घर हमर छलाह ॥
थिक कुल – दूषण सोदर भाय । अनुचित कयल जे कहल बजाय ॥
बड़ कातर जिव थर थर काप । जनु अन्धार घर सापहि साप ॥
अरि – उत्कर्ष हमर लग बाज । धिक घोरि पिउलक सभटा लाज ॥
हमरे लालित पालित पुष्ट । बुझल विभीषण मानस दुष्ट ॥
हमर नगर सौँ हो खल कात । प्राण हरब मारब हम लात ॥
छल भल दया सहोदर जानि । कुक्कुर – न्याय चढ़ल अछि छानि ॥
शुनल विभीषण मन बड़ आनि । लङ्का त्यागि चलल नभ फानि ॥
मन्त्री चारि चतुर जन सङ्ग । बड़का भाइक बिगड़ल रङ्ग ॥
गगन गदाकर धर्म्म पुकार । सर्व्व – विनाश बढ़ल व्यवहार ॥
काली काल लेल अवतार । हरण होयत अवनिक ओत भार ॥
तनि प्रेरित अहँकाँ नहि ज्ञान । निकट काल होइछ अनुमान ॥
नर वानर कर दनुजक नाश । दशमुख त्यागू जीवन – आश ॥
व्यापक ब्रह्म शुनै छी जैह । विधि – प्रार्थित अवतरला सैह ॥
विस्मित – मन रावण बजलाह । सोदर – सर्प्प सदन अधलाह ॥
समय सन्धि नहि बौँसल आब । भीरु विभीषण नाम स्वभाव ॥
कहल विभीषण भावी भङ्ग । जनि साहस खस अनल पतङ्ग ॥
अद्यावधि हठ बल अभिमान । बिसरल नहि होयता हनुमान ॥
रहितहुँ सहि घर कहितहुँ नीति । पुन पुर नाचय नटी कुरीति ॥

।इति।

हरिः हरः!!