कवि चन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – लङ्काकाण्ड प्रथम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

स्वाध्यायक क्रम मे कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण केर सुन्दरकाण्ड धरिक सम्पूर्ण पाठ पूर्ण भेल । ओ सब स्वयं टंकण करैत मैथिली जिन्दाबाद पर प्रकाशित कय चुकल छी । अलग-अलग अध्यायक जनतब मुताबिक अलग-अलग पृष्ठ मे ओकरा सब केँ समेटल । आब आइ लंकाकाण्ड प्रारम्भ भेल अछि ।

कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण

अथ लङ्काकाण्ड

प्रथम अध्याय

।श्लोक अनुष्टुप्।

मुकुन्दम्माधवं वन्दे समुद्रे सेतुकर्त्तारम् ।
शयानन्दभशय्यायां दशग्रीवस्य हन्तारम् ॥
उमेशं सर्व्वदं वन्दे महाकालं गुणातीतम् ।
गरैः काकोदरैः प्रेतैः पिशाचाद्यैश्च निर्भीतम्॥

।चौपाइ।

लङ्का – चरित कहल हनुमान । शुनि प्रसन्न – मन श्रीभगवान ॥
दोसर यहन करत के आन । दुष्कर कर्म्म कयल हनुमान ॥
शत योजन जलनिधि विस्तार । खग समान उड़ि गेलहुँ पार ॥
बड़ प्रताप लङ्का मे कयल । रावण आबि पकड़ि नहि धयल ॥
सभ जन रक्षक मारुत – पूत । दोसर यहन हयत के दूत ॥

मन मे होइछ समुद्रक ध्यान । कोन गति उतरब थिर नहि प्रान ॥
कोन परि देखब सीता जाय । रिपुकाँ मारब समर चढ़ाय ॥
शुनि सुग्रीव प्रभुक मुख – उक्ति । कहलनि साध्य हमर अछि युक्ति ॥
जलनिधि नक्र – झषाकुल तरब । लङ्का – गर्व्व सर्व्व हम हरब ॥
जिबइत नहि छाड़ब दशभाल । हे रघुपति हम अरिगण – काल ॥
चिन्ता जनु करु श्रीरघुनाथ । विजय मानि लिय अपनहि हाथ ॥
वानर भालु बहुत रण – शूर । तनिकाँ लङ्का अछि कत दूर ॥
तरब समुद्र तकर मति करिय । रावण मृतक यहन मन धरिय ॥
धरब धनुष सन्मुख के हयत । जौँ सन्मुख दुख यम – घर जयत ॥
प्रभु समर्थ हमरा विश्वास । श्रीरघुनन्दन विश्व – निवास ॥
आगि पानि मे जाय समाय । वानर रहत न रण पछुआय ॥

।सोरठा।

मन-हर्षित रघुवीर, जलधि तरब से विधि करब ।
कह रह धनुष सुतीर, हनूमान – साहित्य रह ॥
कहु लङ्काक सरूप, मारुत – नन्दन केहन से ।
रावण भारी भूप, तत प्रवेश दुस्साध्य विधि ॥
हाथ जोड़ि हनुमान, कहल जेहनि लङ्कापुरी ।
सानुकूल भगवान, मारब रावण सहित-बल ॥

।चौपाइ।

गिरि त्रिकूट पर लङ्का केहनि । दोसर अमरपुरी हो जेहनि ॥
सकल कनकमय दृढ़ प्राकार । मणिमय खम्भ सकल घरद्वार ॥
परिखा शोभित निर्म्मल पानि । सुधा – मधुरताधिक पड़ जानि ॥
उपवन वापी बहुत तड़ाग । पुर शोभा अति सुन्दर लाग ॥
कय हजार शोभित गजवाह । पश्चिम द्वार न रिपु निर्वाह ॥
बहुत पदाति अश्व असबार । कय अर्व्वुद जन गणय न पार ॥
पूर्व्व द्वारमे तेहने सर्व्व । चिउटी ससर न तेहन पर्व्व ॥
बहुत रथी रह दक्षिण द्वार । मध्य कक्ष अतिशय विस्तार ॥
अगणित महामत्त गजराज । विविध यान रथि तनिक समाज ॥
बहुत शतघ्नी बड़ बड़ अस्त्र । सभकाँ पहिरन लोहक वस्त्र ॥
केवल प्रभुक प्रताप सहाय । चतुर्थांश बल मारल जाय ॥
लङ्का जारल बिपिन उजारि । अक्षयकुमार आदिकाँ मारि ॥
लघु वानरक हमर ई काज । परमेश्वर अपनै महराज ॥
प्रभु – कुदृष्टि मात्रहि जरि जयत । के अछि तेहन समर थिर हयत ॥
सत्वर कयल जाय प्रस्थान । अरि – जन – दहन राम भगवान ॥

।सोरठा।

तखन कहल भगवान, शुनु कपीश सेना – निकर ।
तत्क्षण कर प्रस्थान, उत्तम विजय-मूहूर्त्त अछि ॥

।षट्पद।

हमहुँ चलब यहि काल, काल दशभालहिँ मारब ।
मारब बड़ बड़ दनुज, भार भूमीक उतारब ॥
तारब हम मुनिलोक, विदेह – तनूजा आनब ।
नव नव चरित पवित्र, अमरगण गाओत मानव ॥
दक्षिणाक्ष अधभाग मे, स्फुरण होइ अछि बड़ सगुन ।
चलु चलु यूथप सज्जसौँ, नहि कर्त्तव्य विचार पुन ॥

।विजया छन्दः।

इत मर्क्कटाधीश कय अर्व्व अक्षौहिणी,
क्षोणिधर क्षोणि-संक्षोभ सौँ काँप ।
तँह दिग्गजोद्दण्ड महि शुण्डसम्पात कर,
चण्डरव दाँत महि कष्ट सौँ थाप ॥
गुरु पन्नगाधीश-फण फाट मन आँट भय,
कूर्म्मगणराट सह पीठ सन्ताप ।
वर विजय प्रस्थान भगवान श्रीराम प्रभु,
कयल लङ्कापुरी हाथ शरचाप ॥

।भुजङ्गप्रयात छन्दः।

चलू सर्व्वयूथेश लङ्केश मारू ।
चतुदिक्षु सेनाक रक्षा सम्भारू ॥
लड़ाका बड़ा वीर दैत्येश भारी ।
महावञ्चनाधार सर्व्वत्रचारी ॥
हनूमान-कन्धस्थ श्रीराम भेला ।
तथा अङ्गद-स्कन्ध सौमित्रि गेला ॥
बिदा भेलि सेना युगान्ता घनाली ।
सुपीतारुणा श्यामला वानराली ॥
कहै वीर पक्षीजकाँ जाइ लङ्का ।
करी जाय शीघ्रे पुरीकेँ सतङ्का ॥
दशग्रीव की आबि के युद्ध कर्त्ता ।
कहू कोश की नाशकेँ आबि धर्त्ता ॥

।रोलाछन्दः।

गज गवाक्ष ओ गवय मैन्द, द्विविदादि चलल नल ।
नील सुषेण ओ जाम्बवान, सेनाधिप भल भल ॥
मर्क्कट कर किलकार, अर्क्क – आच्छादित धूरा ।
श्रीरघुवीर – प्रताप, कोश रणकोविद पूरा ॥

।सोरठा।

सैन्य मध्य श्रीराम, शोभित कपिपति सहित तहँ ।
कतहु न हो विश्राम, अतिशय – रण – उत्साह मन ॥

।चौपैया छन्दः।

लाँघल सह्याचल, मलय सकल दल, फल मधु करइत भक्षण ।
तरुवर बड़ भारी, लेल उखारी, वानर समर – विचक्षण ॥
लाँगड़ि महि पटकय, तरु तरु लटकय, भूधर पर चढ़ि फानय ।
वारन – मय धरणी, चल नभ – सरणी, मन किछु त्रास न मानय ॥

।कुण्डलिया।

किलकि-किलकि कौतुक करय, कपि-कुल अति वाचाल ।
रघुनन्दन आगाँ कहय, के थिक खल दशभाल ॥
के थिक खल दशभाल, व्याल पर हम छी खगपति ।
सत्वर सन्तरु उदधि पार, हम करब दनुज – गति ॥
दनुज – मत्त – मातङ्ग उपर, मर्क्कट – मृगपति मिल ।
वानर अनल समान, दनुज – कुल कानन थिक किल ॥

।सोरठा।

प्रलय – घटा – आटोप, अटकलि सेना सिन्धु – तट ।
वानर – मन बड़ कोप, की विलम्ब जल – निधि तरू ॥
कहल राम भगवान, की प्रयास सागर तरब ।
नहि देखी जल – यान, थिक विचार कर्तव्य की ॥
कपि – पति आज्ञा पाबि, सन्निवेश सेना रहलि ।
की भेल सत्वर आबि, अति – अगाध बाधा कयल ॥
कर प्रभु विविध विलाप, हा जानकि सति प्रेयसी ।
सभ मन हो सन्ताप, प्रजा तथा राजा यथा ॥

।इति।

हरिः हरः!!