स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
किष्किन्धाकाण्ड – नवम् अध्याय
।चौपाइ।
सम्पातिक सभ जनमल पाँखि । सभ जन वानर देखल आँखि ॥
ओ खग मुदित गगन – पथ गेल । वानर सभ मन हर्षित भेल ॥
दुर्ग्ग जलधि सन्तरण विचार । अछि अगम्य के जायत पार ॥
अङ्गद कहल अहाँ सभ गोट । प्रबल शूर सभ सुयश न छोट ॥
राज-काज मन दय के करत । ई जलनिधि कहु कहु के तरत ॥
रघुपति कपिपति पालक हयत । निर्भय लङ्का – पुर जे जयत ॥
शुनल सर्व्व जन रहल अवाक । सबक परस्पर मुह सभ ताक ॥
उचित न यहि अवसर चुपचाप । कहक अपन बल करक प्रताप ॥
वानर सकल अपन बल कहल । अभ्यन्तर किछु गड़बड़ रहल ॥
तखन कहल अङ्गद युवराज । लङ्का जाय करब प्रभु – काज ॥
शतयोजन जलनिधिकाँ फानि । जायब मनमे होइछ हानि ॥
किछु गड़बड़ सन घुरती बेरि । आयब शीघ्र कि लागत देरि ॥
जाम्बवान बजला बड़ वृद्ध । नहि युवराज दूत परसिद्ध ॥
हम अति वृद्ध करब की जाय । हम मँगितहुँ नहि एक सहाय ॥
बलि – वञ्चन वामन – अवतार । भेल तखन हम छलहुँ कुमार ॥
बढ़इत देल प्रदक्षिण सात । अगणित योजन प्रबह बसात ॥
कि करब काज जरासौँ ग्रस्त । करितहुँ नहि ककरो मन व्यस्त॥
अङ्गद शोच करू जनु चित्त । से छथि सङ्गहिँ कार्य्य निमित्त ॥
कहलनि तखन शुनू हनुमान । यहन काज के करता आन ॥
हरता रघुवर धरणी – भार । तनिक सहाय अहँक अवतार ॥
जहि लय उतपति से दिन आज । की विलम्ब सत्वर करु काज ॥
जन्ममात्र दिनकर फल जानि । गगन गेलहुँ शत योजन फानि ॥
खसलहुँ भूमि अतुल बल – वीर । व्यथा – लेश नहि भेल शरीर ॥
उठु उठु करु रघुनन्दन – काज । हमरा सभहिक राखू लाज ॥
शुनि हर्षित वर्द्धित हनुमान । नाद कयल घन सिंह समान ॥
सकल सृष्टि फाड़क भ्रम कयल । पर्व्वत सन तन वाम धयल ॥
।कड़खा छन्दः।
जानकी-जानि-पद हृदय मे ध्या करि
सुरभिपद-तुल्य जल – राशिकेँ फानबे ।
रोकि शकताह के बाट हम वायुसुत,
प्रवह सौँ अधिक जव – दर्प मन मानवे ॥
प्रभुक सन्देश कहि स्वामिनी देखि केँ,
शत्रु दशमौलिकेँ बाँधि हम आनबे ॥
जारि लङ्कापुरी मारि वैरीन्द्र – दल,
सकल जन तखन बल हमर किछु जानबे ॥
।घनाक्षरी।
देखादेखी मध्य हम वारिनिधि फानि फेरि
सदल सकुल दशवदन केँ मारिकेँ ।
समर समक्ष प्रतिपक्ष लक्ष कोन अछि,
पवन प्रतक्ष बल लङ्कापुर जारिकेँ ॥
“चन्द्र” भन रामचन्द्र परसन हेतु आगाँ,
भूधर – सहित लङ्का धरब उखारिकेँ ।
जाम्बवान युवराज कहु की करब काज,
आनि देब बिनु श्रम जनक – कुमारिकेँ ॥
।चौपाइ।
जाम्बवान अङ्गद मन हर्ष । कि कहब वीरक मन उत्कर्ष ॥
अँहइ पुरब रघुपति – मन – आश । हमरा सभकाँ दृढ़ विश्वास ॥
जिबइत सीता छथि देखि लेब । से रघुनन्दन काँ कहि देब ॥
राम – सहित रण पौरुष करब । समुचित जेहन तेहन अनुसरब ॥
सतत करथु अहँकाँ कल्याण । व्योम – विहार पिता पवमान ॥
आशिर्व्वचन कहल पढ़ि मन्त्र । उड़ि चलला हनुमान स्वतन्त्र ॥
।सोरठा।
स्वर्ण-वर्ण मुख लाल, महाफणीन्द्रकार भुज ।
महानगेन्द्र विशाल, प्राप्त महेन्द्राचल उपर ॥
।कवि प्रार्थना।
।मझोटी।
श्रीमत्करुणावतारमिन्दुखण्डभालम्।
वन्दे घनसारगौरमाश्रितैणबालम्॥
परशुवराभीतिकरं व्यालराजमालम्।
सर्व्वदा प्रसन्नमुखं कालकालकालम्॥
व्याघ्रचर्मवाससं समस्तविश्वसारम्।
निर्ज्जरनिवहैः स्तुतं दृशा विनष्टमारम्॥
पञ्चाननमादिदेवमाधिहं त्रिनयनम्।
प्रलये जगतां ध्रुवं दयालुतासदनम्॥
।इति।
आगू – सुन्दरकाण्ड
हरिः हरः!!