स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
किष्किन्धाकाण्ड – आठम् अध्याय
।चौपाइ।
उड़लहुँ हम जटायु दुहु भाय। रवि-रथ रोकब सत्वर जाय॥
भ्राता युगल अतुल बल मानि। तरुण अवस्था गुणल न हानि॥
घुरला बन्धु असह्य विचारि। हम नहि मानल मनमे हारि॥
दिनकर निकट जरल दुहु पक्ष। दिनकर देव- देव परतक्ष॥
खसलहुँ विन्ध्यगिरिक पाषाण। तीनि दिवस धरि छल अज्ञान॥
खसलेँ लागल छल बड़ चोट। पक्ष-विहीन भेल मन छोट॥
बचत जीव शिव कोन प्रकार। विकल सतत मन शोच अपार॥
सदय महान चन्द्रमा नाम। दुर्ग्गति से मुनि देखल ठाम॥
ओ परिचित पुछलनि की भेल। पक्ष अहाँक कतय जरि गेल॥
अपन कहल छल जे अज्ञान। दुःख – मूल केवल अभिमान॥
बहुत प्रकार देल सन्तोष। ज्ञान शिषाओल से भरिपोष॥
।षट्पद।
देह-मूल थिक दुःख, देह कर्म्महि सौँ उदभव।
अहं-बुद्धि सौँ कर्म्म, पुरुष देह – स्थित अनुभव॥
अहङ्कार जड़ अति अनादि, माया परकासल।
चिच्छायासय्युँक्त तप्त, लोहक सन भासल॥
तनिका सौँ ई देह काँ, भेल एकता देह हम।
यहन बुद्धि लय चेतना – सहित देहकाँ विविध भ्रम॥
।सोरठा।
तनिक मूल संसार, साधक सुख दुख उभय सब।
आत्मा रहित – विकार, मिथ्यातादात्म्यैँ सदा॥
हम शरीर कर नर्म्म, कर्म्मक कर्त्ता हमहि सभ।
जीव करथि सभ कर्म्म, तत्फल बाँधल से विवश॥
पापपुणयुत भेल, भ्रमित होथि उद्ध्र्वाध नित।
यज्ञ कयल धन देल, सुख – भोक्ता हम स्वर्ग मे॥
ई सङ्कल्पाध्यास, भोग कयल चिर स्वर्ग – सुख।
क्षीन – पुण्य सन्त्रास, मर्त्य – लोक मे पुन बसथि॥
विधुमण्डल काँ पाबि, शीत सङ्ग ब्रीह्यादि मे।
तखन पुरुष तन आबि, रेतरूप स्त्री-योनि-गत॥
योनि – रक्त – संयुक्त, वेष्टित भेल जरायु सौँ।
एक दिवस भेल भुक्त, कलल भेल आरूढ़ पुन॥
भेल बुद्बुदाकार, पाँच रातिमे सैह पुन।
सात राति सञ्चार, धयल पेशिताकार काँ॥
पनरह दिन बिति जाय, से पेशी शोणित – युता।
राति पचीश बिताय, पेशी सौँ अङ्कुर बनय॥
।चौपाइ।
ग्रिवा माथ काँध ओ पीठि। वंश उदर एक मासैँ सृष्टि॥
पाणि चरण पाँजर कटि जानु। दुइ मासमे उतपति मानु॥
अङ्ग-सन्धि बितला तिनि मास। चारि मास अंगुली – प्रकास॥
नाक कान लोचन बनि जाय। मास पाँच काँ समय बिताय॥
दन्त-पाँति नह गुह्याधार। पचमा मासेँ होय प्रचार॥
नाक कान मे छिद्र प्रकास। बीति जाय जखना षट मास॥
।पादाकुञ्जक दोहा।
नाभि उपस्थ लिङ्ग ओ पायुक उतपति मासैँ सात।
सकल अवयव रोम शिर मे कच अष्टमास विख्यात॥
स्त्रीक जठर मे गर्भे बाढ़थि पाँच मास चैतन्य।
जीव पबै छथि ई अद्भुत गति कर्त्ता प्रभु से धन्य॥
।चौपाइ।
मातृ-भक्त अन्नादिक खाथि। बर्धित गर्भ विकल पछताथि॥
पूर्व जन्म मन पड़लय ताप। देखल विविध माय ओ बाप॥
विविध भक्ष्य नाना – स्तन-पान। कयल कतहु नहि पावल ज्ञान॥
कति बेरि विधि-कृत धारण देह। प्रज्ञा हरल विषय – मध नेह॥
मिलि कुटुम्ब मे भेलहुँ प्रचण्ड। गर्भवास मे कर्म्मक दण्ड॥
कयल सकल हम अनुचित काज। विषयि कुटुम्बक सङ्ग समाज॥
नाना योनि विविध व्यवहार। कयल न भल मन कतहु विचार॥
अनुभव कत दुख योनि कुयन्त्र। करिय यहन हम सम्प्रति मन्त्र॥
साङ्ख्य – योग सौँ करब न आन। जौँ करता बाहर भगवान॥
गर्ब्भवास सौँ बाहर भेल। स्मरण-ज्ञान माया हरि लेल॥
आत्मा सभ तन सौँ छथि आन। से जानथि जनिकाँ दृढ़ ज्ञान॥
होथि चिदात्मा जौँ परिज्ञात। माह – तिमिर हर भानु प्रभात॥
मुख दुख ज्ञानी सम मति मान। देह – स्थिति प्रारब्ध प्रमाण॥
देह थिकहुँ हम ई अध्यास। दुखदायक कर नर क विनाश॥
कञ्चुक कञ्चुकि बुझ निज काय। कञ्चुक – रहित न ततय समाय॥
रहू अहाँ प्रारब्ध विचार। मिथ्या मानू ई संसार॥
।सवैया छन्द।
दण्डक – वन रावण – वध कारण, जनकनन्दिनी लक्ष्मण सङ्ग।
अयोता करता माया – मानुष, लीला -मारीचक तन भङ्ग॥
रावण तस्कर बनि सीताकाँ, हरता तनि अन्वेषण काज।
सुग्रीवक प्रेषित वानर सभ, अयोता जखना अहँक समाज॥
तनिका सभकाँ अहाँ कहब सब, सीता छथि लङ्का जेहि देश।
नव नव कोमल पक्ष अहाँकाँ, अनायास होएत गय बेश॥
भेल सत्य जे कहल चन्द्रमा, देखू सभ जन जनमल पाँखि।
हम जाइत छी दश दिन बितलय, दशमुख-दुर्ग्गति देखब आँखि॥
।रूपमाला।
नाम जपि जपि जनिक जन, भव – जलधि उतरथि पार।
तनिक दूत अहाँ सबहिकाँ, सिन्धु कति विस्तार॥
यत्न करु जलराशि सन्तरु, देखि सीता आउ।
कहल जे सन्देश प्रभु से, सकल सुचित शुनाउ॥
।इति।
हरिः हरः!!