स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
किष्किन्धाकाण्ड – पाँचम् अध्याय
।चौपाइ।
एक समय तहि गिरिमणि – सानु। विरही राम चरण – गिरि भानु॥
असह विरह लक्ष्मण काँ कहल। सीता हरलक राक्षस रहल॥
छथि वा नहि जिबयित के जान। हृदय हमर थिक कुलिश समान॥
छथि जिबयित केओ कहि जाय। तखन करब हम उचित उपाय॥
हठ सौँ हम हुनकाँ छिनि लेब। सुधा – पयोनिधि मथि जनु देब॥
अरि बल पुत्र सकल देब मारि। हरलक जे सीता सति नारि॥
महामत्त – गज घन – विस्तार। विरहिनि बधय भ्रमय संसार॥
चपला – कसा सुरेश्वर मार। अम्बरमे घन शब्द उचार॥
बड़ जलभार वलाका सङ्ग। अग अग अटकथि बाहिक रङ्ग॥
निद्रा केशव – तन लपटाथि। सरित सकल सुख सागर जाथि॥
विशद वलाका गगन समाथि। विरही जन मन मन अकुलाथि॥
चिन्ता – खेद विरहि – मन व्याप। शिखरि शिखरि शिखि ऋषभ अलाप॥
बर्द्धित रस नहि रहल संभार। चललि नदी नदिपति अभिसार॥
गगन न देखिय घन परिपूर। तारा तारापति नहि सूर॥
पङ्कज मुद्रित खग नोड़स्थ। विलसित मालति दिनपति अस्त॥
दिन रजनिक मन हो अनुमान। कोक अशोक शीकसौँ भान॥
नृप नृपकाँ घन कलह घटाय। वर्षा सेना देल अटकाय॥
भेक अनेक वचन उच्चार। जनु पटु वटु रटु श्रुतिस्वर – सार॥
धन सुख सुग्रीवहि कैँ प्राप्त। दार – सहित अरि शूर समाप्त॥
।हंसगति छन्दः।
।जाज।
हम बिना वैदेहि विषम दुख सहती।
राक्षस-घरमे जाय हाय की रहती॥
प्राणेश्वरी कहाय हाय की कहती।
शय शय संशय आब दुर्दशा महती॥
।रोला।
।लावण्या।
सीता – चरण – सरोज – परश – शीतलता तोरा।
रे शशि बनु जनु भानु दहन करु जनु तनु मोरा॥
हरि हरि हरि हरु हृदय – ताप तुय हृदय कठोरा।
वैदेही – मुख पूर्णचन्द्र मोर नयन चकोरा॥
।बाला छन्द।
राखि नहि भेल की अपन नारी।
वंश मे लक्ष्म हा पड़ल भारी॥
राक्षसागारमे जनक-बाला।
हाय रे आँखि की जलदमाला॥
।तरल-नयन छन्द।
हमरहि पड़ल विपति – तति, कत छथि जनक-कुमरि सति।
अविरल नयन बहय जल, पल भरि पड़य न मन कल॥
शशि नहि थिकथि विषम फणि, उडु-तति थिक तनि फण-मणि।
लह लह रसन किरण – गण, अतिशय मलिन गरल धन॥
डसयित विरहि गलित तन, अछि बचि रहल धवल फन।
फणपति कुलक धवल छथि, विषधर गणक प्रबल छथि॥
छथि कत रमणि जौँ शुनितहुँ, शमनहु हनि तनि अनितहुँ॥
।चौपाइ।
हम हृतदार भोग्य नहि राज। सीता बिनु जीवन की काज॥
कतय बलाहक कतय बलाक। हर्ष मयूरक गति चपलाक॥
इन्द्र छोड़ाओल पृथिवि पियास। जीवन – दायक जनिकर दास॥
घन वारण प्रस्रवण मयूर। सभहिक नाद गेल चल दूर॥
वन वन सम्प्रति काश फुलाय। घन ऋतु क्रम क्रम गेल बुढ़ाय॥
मूक मयूर हंस – खन शूनि। गलित – पक्ष – अरि – परिभव गूनि॥
।दोहा।
शरद-सरित सुन्दर पुलिन, थोड़ थोड़ दरशाब।
नव – सङ्गम – लज्जावतिक, जवनक उपमा पाब॥
।चौपाइ।
तारा भूषण विधु मुख थीक। तिमिर तनिक अलकावलि नीक॥
सन्ध्यारुण पट कुसुमक रङ्ग। हो परतक्ष न संशय अङ्ग॥
देखि पड़ अम्बर – दर्पण माँझ। राति कि सीता-छाया साँझ॥
गगन न थिकति उदधि मन मान। तारा – तति नव फेन समान॥
शशि न कुण्डलित थिकथि फणीश। अङ्क न शयित विष्णु जगदीश॥
पावस विगत शरद अवतार। नहि चर हमर कतहु सञ्चार॥
की थिति सीता छथि कोन देश। के हित आनत तनिक सन्देश॥
कपिपति कृपा कयल परित्याग। पाछिल दिन मन पड़ि के जाग॥
कामी राज्य-मदैँ की सूझ। आनक सुख दुख कतहु कि बूझ॥
आब होइछ मन बालिक शोच। मारल तनिका हिनके रोच॥
आमिष भक्षण मदिरा पान। कतय ततय रह सदसत ज्ञान॥
अधिक निन्दवश रति – अवसान। जगलहु जलपथि आनक आन॥
ओ कपटी छथि मारय योग्य। बालिक बधसौँ ई आरोग्य॥
बुझला जाइछ तेहन कुठाठ। धयल चरण जनु बाली-बाट॥
से शुनि लक्ष्मण मन अति कोप। अनुमति हो करि कपि-पति-लोप॥
हमरा हो जौँ आज्ञा नाथ। सुग्रीवक थिति हमरा हाथ॥
ई कहि लेल धनुष कर बाण। प्रभु-रुचि पाबथि करथि प्रयाण॥
।तोटक छन्द।
शुनु लक्ष्मण सत्वर जाउ अहाँ
भयभीत करू कपिनाथ तहाँ।
परित्यागि बालि – कुचालि जना
नहि मारब मित्र करैछी मना॥
।चौपाइ।
स्फुरित अधर लोचन अति लाल। चलल रौद्र रस जेहन विशाल॥
ई प्रभु माया अपन पसार। निर्गुण सगुण सुगुण अवतार॥
नगरक निकट धनुष – टङ्कार। कयलनि लक्ष्मण कोप अपार॥
से शुनि प्राकृत कीश सगर्व्व। पाथर तरु कर दौड़ल सर्व्व॥
लक्ष्मण देखल वानर रङ्ग। बाढ़य लागल कोप अभङ्ग॥
अङ्गद दौड़ला करयित घोल। कहि अबाच्य रोकल कपि-गोल॥
वानर – बल हठि दूर पड़ाह। कोपक विकट निकट नहि जाह॥
अङ्गद आबि प्रार्थना कयल। लक्ष्मण – चरण शरण कहि धयल॥
अङ्गद काँ लेल हृदय लगाय। कहलनि कहू पितीकेँ जाय॥
रघुनाथक आज्ञा अनुसार। हे युवराज करब व्यवहार॥
एतय पठाओल रौद्रक मूर्ति। कयल व्यवस्था कयल न पूर्ति॥
शुनि से सत्वर अङ्गद जाय। समय पितीकेँ कहल बुझाय॥
पुरी – द्वार लक्ष्मण छथि ठाढ़। उचित क्रोध हुनका मन बाढ़॥
शुनितहि कपिपति बहुत डराय। हनूमान काँ कहल बजाय॥
हनूमान संगेँ युवराज। लक्ष्मण करिय कोप कृश आज॥
शञ्च शञ्च निज भवनहिँ लाउ। कोप रहितसौँ भेट कराउ॥
ताराकाँ कहलनि कपिराज। अहँउ जाउ सौमित्रि – समाज॥
कोमल वचनेँ करु परितोष। मिलब हमहु जखना नहि रोष॥
तारा पहुचलि मध्यम कक्ष। यहि पथ अओता हयब समक्ष॥
अङ्गद विनय – युक्त हनुमान। कयल प्रणाम कहल कल्याण॥
हे सौमित्रि अपन थिक गेह। चलल जाय मन निस्सन्देह॥
देखब राजदार कपिराज। अपनैँ सौँ के जनि कर लाज॥
तखन जेहन आज्ञा से करब। अपनहुँ दीर्घ दोष परिहरब॥
लक्ष्मण कर धय कह हनुमान। चलु अन्तष्पुर बुद्धि – निधान॥
क्रम क्रम गेला मध्यम कक्ष। तारा चन्द्रानना समक्ष॥
मद-अरुणित दृग भूषण – राजि। नमस्कार कयलनि हसि बाजि॥
रक्षा करिय अपन जन जानि। कपिपतिसौँ नहि हो हित-हानि॥
अपनहि कयल विषय आरोप। भृत्य भक्त कपिवर पर कोप॥
दुर्दश छला दशा भल पाबि। भोग-विवश इच्छित सुख भावि॥
छथि उद्योगहि मध्य कपीश। अन्तर्य्यामी प्रभु जगदीश॥
बहुतो दूत पठावल दूरि। बहुत शीघ्र अबयित अछि घूरि॥
जौँ दशकन्धर – कृत अन्याय। विद्यमान बल बालिक भाय॥
तारा – विनय – वचन शुनि कान। अन्तष्पुर पुनि कयल प्रयाण॥
।सोरठा।
रुमा-अङ्क निश्शङ्क, मदावस्थ मातङ्ग सम।
बैसल मणिपर्य्यङ्क, देखल लक्ष्मणकेँ ततय॥
सत्वर उठल डराय, लज्जित मद-घूर्णित नयन।
रामानुज खिसिआय, कहल बहुत निन्दित कथा॥
रे वानर दुर्व्वृत्त, विस्मृत श्रीरघुनाथ किय।
भावी यहन निमित्त, बालि सदृश मरणेच्छ की॥
प्रभुतादिक मद पाब, धन-मद गुण – तारुण्य – मद।
मद मद महिला आब, विधिहुक बुत नहि से बुझथि॥
समय कहल हनुमान, लक्ष्मण-योग्य न वचन थिक।
कपिपति भक्ति समान, अपनहुँ नहि रघुनाथ मे॥
करथि प्रभुक हित काज, वानरेश रघुनाथ – प्रिय।
वानर सैन्य समाज, आबि गेल देखू अहाँ॥
सकल सैन्य लय संग, सीतान्वेषण मे निरत।
करता शत्रुक भङ्ग, नहि विलम्ब सन्नद्ध बल॥
निज अनुचित मन मानि, लज्जित रामानुज तहाँ।
अर्घ्यादिक सन्मानि, कपि-राजा मिललाह तहाँ॥
हम श्रीरामक दास, ओ रक्षा कयलनि हमर।
तनिकहु अनकर आश, हम सहाय नामक ध्रुव॥
क्षमा करब अपराध, कहल प्रणय सौँ कटु वचन।
अँह प्रिय गुणक अगाध, लक्ष्मण ततक्षण कहल पुन॥
सीता-विरही राम, एकाकी कानन बसथि।
हम न करब विश्राम, सेव्य निकट सेवक सुखी॥
।चौपाइ।
भल विचार चलला कपिराज। रथ चढ़ि लक्ष्मण सह प्रभु-काज॥
नीलाङ्गद हनुमान प्रधान। सेना सङ्गहि कयल प्रयाण॥
बाजन नाना तरहक बाज। राज-चिन्ह छत्रादि विराज॥
प्रभुक निकट सब सज्जित जाय। मुदित राम देखल समुदाय॥
।इति।
हरिः हरः!!